छात्र संगठनों में बढ़ती हिंसा चिंता का विषय

हिंसक धमकियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए और कर्मचारियों को हिंसक व्यवहार के चेतावनी संकेतों के बारे में जानकारी होनी चाहिए…

देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्र संगठनों में हिंसक घटनाएं होना आम बात हो गई है, लेकिन इससे बहुत से छात्र जो हैं वे प्रभावित भी हो रहे हैं। कई शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राएं इसलिए प्रवेश नहीं लेते हैं कि वहां पर राजनीतिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है। भारत में यह समस्या गंभीर होती जा रही है, जहां आए दिन समाचार पत्रों के माध्यम से छात्रों की हिंसक घटनाएं पढऩे को मिलती हैं जिससे उनके अभिभावक तो परेशान होते ही हैं वहीं प्राध्यापक वर्गों को भी काफी समस्या का सामना करना पड़ता है । बहुत से प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान ऐसे भी हैं जिन्हें यूजीसी से ए ग्रेड मिला हुआ है लेकिन उसके बावजूद अगर हिंसक घटनाएं हों तो इसके लिए क्या प्रशासन दोषी है या हमारी शिक्षा प्रणाली दोषी है, इसके ऊपर हमें चिंतन करने की आवश्यकता है। युवा हिंसा एक विकराल समस्या है जो हर दिन हजारों युवाओं को प्रभावित करती है। युवा हिंसा और अपराध एक समुदाय के आर्थिक स्वास्थ्य के साथ-साथ व्यक्तियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित करते हैं। हाल ही में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला में मंगलवार को एबीवीपी और एसएफआई संगठनों के बीच झड़प में दो छात्र घायल हो गए, जिसके बाद परिसर में भारी पुलिस बल तैनात किया गया। जाहिर है समरहिल चौक पर सुबह कुछ राजनीतिक संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच हुई बहस के बाद हाथापाई और पथराव हुआ। पुलिस की त्वरित प्रतिक्रिया टीम भी मौके पर पहुंची और मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। इसके तुरंत बाद छात्र फिर से परिसर में भिड़ गए। झड़प के बाद दोनों संगठनों के नेताओं ने कैंपस में हुई हिंसा के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराया।

एसएफआई ने एबीवीपी पर माहौल खराब करने का आरोप लगाया जबकि एबीवीपी ने दावा किया कि उसने लड़ाई शुरू नहीं की थी। प्रतिद्वंद्वी छात्र संगठनों के बीच संघर्ष ने विश्वविद्यालय के अधिकारियों के लिए छात्र संघ चुनावों का राजनीतिकरण करना या छात्र संघों पर प्रतिबंध लगाना बेहतर बना दिया है। ताजा हिंसक झड़पों ने आम छात्रों में गुस्सा भर दिया है। जबकि अधिकांश छात्र राजनीति के खिलाफ हैं, छात्र संघ गैर-राजनीतिकरण के पक्ष में नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि छात्र नेताओं की राजनीति में करियर बनाने की आकांक्षा है। इसके अलावा अच्छे छात्रों को भय, दुव्र्यवहार, चिंता और अवसाद की भावना का सामना करना पड़ा है। भले ही हिंसा एक बहुत ही जटिल मुद्दा है, जिसके कई अलग-अलग कारण हैं, लेकिन एक महत्वपूर्ण पहलू, अनियंत्रित क्रोध के साथ इसका संबंध है। छात्रों के द्वारा की गई हिंसा ने पढ़ाई का माहौल भी खराब कर दिया है। जैसे एक मछली पूरे तालाब को दूषित कर देती है वैसे ही कुछ लड़ाकू तत्व पूरे कॉलेज का संतुलन बिगाड़ रहे हैं, जिस कारण पढऩे वाले छात्रों में भी डर का माहौल है और वह अपनी पढ़ाई ठीक ढंग से नहीं कर पा रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा संचालित विश्वविद्यालय का इतिहास हत्याओं से भरा पड़ा है। 70 के दशक के अंत से अब तक चार छात्र हिंसा का शिकार हो चुके हैं। हिंसा को लेकर शैक्षणिक संस्थान चिंतित होते जा रहे हैं। हिंसक व्यवहार पर साहित्य की यह समीक्षा दो सामान्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है जिसका उपयोग सामुदायिक कॉलेज प्रशासकों और संकाय को उनके छात्रों की भलाई पर हिंसक व्यवहार के हानिकारक प्रभावों का प्रतिकार करने के उनके प्रयास में मार्गदर्शन करने के लिए किया जा सकता है।

सबसे पहले यह जानना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश छात्रों को हिंसा का कम से कम कुछ अनुभव है। इस बात के काफी प्रमाण हैं कि छात्रों का हिंसा के संपर्क में आना असामाजिक व्यवहार और मनोवैज्ञानिक आघात (जैसे अवसाद, चिंता, क्रोध, पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) दोनों से जुड़ा है। सामुदायिक कॉलेज उन छात्रों की मदद कर सकते हैं जो हिंसा के नकारात्मक प्रभावों का सामना कर रहे हैं। उदाहरण के लि छात्र सहायता समूहों की स्थापना और उत्पीडऩ के आरोपों को गंभीरता से लेना। संबोधित किया गया दूसरा मुद्दा कुछ कदम प्रदान करता है जो सामुदायिक कॉलेज अपने छात्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उठा सकते हैं। दुनिया भर में हर साल 10.-29 वर्ष की आयु के युवाओं में अनुमानित 200000 हत्याएं होती हैं जो इस आयु वर्ग के लोगों के लिए मृत्यु का चौथा प्रमुख कारण है। युवा मानवहत्या दर देशों के बीच और भीतर नाटकीय रूप से भिन्न होती है। विश्व स्तर पर 84 फीसदी युवा मानव वध के शिकार पुरुष हैं और अधिकांश अपराधी पुरुष भी हैं। 2000-2016 के बीच अधिकांश देशों में युवा मानवहत्या की दर में कमी आई है, हालांकि निम्न और मध्यम आय वाले देशों की तुलना में उच्च आय वाले देशों में कमी अधिक रही है। हिंसा से मारे गए प्रत्येक युवा व्यक्ति के लिए अधिक घायल होते हैं जिन्हें अस्पताल में इलाज की आवश्यकता होती है। आग्नेयास्त्रों के हमले, मुक्के, पैर, चाकू और कुंद वस्तुओं से होने वाले हमलों की तुलना में घातक चोटों में अधिक बार समाप्त होते हैं। युवाओं में शारीरिक लड़ाई और डराना-धमकाना भी आम बात है। 40 विकासशील देशों के एक अध्ययन से पता चला है कि औसतन 42 फीसदी लडक़े और 37 फीसदी लड़कियां बदमाशी का शिकार हैं।

युवा हत्या और गैर-घातक हिंसा न केवल समयपूर्व मृत्यु, चोट और अक्षमता के वैश्विक बोझ में काफी योगदान देती है, बल्कि एक व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कार्यप्रणाली पर गंभीर, अक्सर आजीवन प्रभाव भी डालती है। यह पीडि़तों के परिवारों, दोस्तों और समुदायों को प्रभावित कर सकता है। युवा हिंसा से स्वास्थ्य, कल्याण और आपराधिक न्याय सेवाओं की लागत बढ़ जाती है। उत्पादकता कम कर देता है। संपत्ति का मूल्य घटाता है। युवा हिंसा को रोकने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जो हिंसा के सामाजिक निर्धारकों, जैसे आय असमानता, तेजी से जनसांख्यिकीय और सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक सुरक्षा के निम्न स्तर को संबोधित करता है। युवा हिंसा के तत्काल परिणामों को कम करने के लिए महत्वपूर्ण देखभाल तक पहुंच सहित पूर्व-अस्पताल और आपातकालीन देखभाल में सुधार हैं। अब यह कॉलेज प्रशासन पर निर्भर करता है कि जो संतुलन कॉलेज खो बैठा है, उसे जल्द से जल्द स्थिति पर लाया जाए ताकि इसका प्रभाव अन्य छात्रों पर न पड़े। इसी के साथ हिंसक धमकियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए और कर्मचारियों को हिंसक व्यवहार के चेतावनी संकेतों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। इसके अलावा सामुदायिक कॉलेज अपने परिसरों की विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर एक सुरक्षा योजना विकसित करें।

प्रो. मनोज डोगरा

लेखक हमीरपुर से हैं


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