इतिहास को लिखने और पढ़ाने का मामला

गोवा को पुर्तगाली साम्राज्यवादियों से मुक्त करवाने के लिए भारतवासियों को अपने ही देश की सरकार से लडऩा पड़ा, यह इतिहास की किताबों में से गायब है। पंडित जवाहर लाल की सरकार उन सत्याग्रहियों पर गोलियां चला रही थीं जो गोवा की आजादी के लिए पुर्तगाली शासन के खिलाफ मोर्चा लगा रहे थे। राम मनोहर लोहिया और जगन्नाथ राव जोशी पर पुर्तगाल की जेलों में अमानुषिक अत्याचार किए गए। इसका इतिहास में कितना जिक़्र है? यही स्थिति पुदुच्चेरी को फ्रांस के पंजे से मुक्त करवाने के लिए थी। खुदा का शुक्र है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू इन दोनों प्रश्नों को भी संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं ले गए। यह इसीलिए संभव हो सका क्योंकि भारतीयों ने देश के इस हिस्से को मुक्त करवाने के लिए कांग्रेस सरकार के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया था। मुझे लगता है हेमन्त विश्व शर्मा की बात को गंभीरता से लेते हुए इतिहास के इन प्रश्नों पर नए सिरे से विचार करने और लिखने की जरूरत है। इतिहास को फिर से लिखने के लिए समय भी अनुकूल है क्योंकि केंद्र में एनडीए की सरकार है। मोदी सरकार को इस विषय में पहल करनी चाहिए तथा हमारे भुला दिए गए नायकों को सम्मान दिलाना चाहिए…

कुछ दिन पहले असम के मुख्यमंत्री हेमन्त विश्व शर्मा ने छात्रों और अध्यापकों के एक समूह को सम्बोधित करते हुए कहा कि हिन्दुस्तान के इतिहास को फिर से लिखने और व्यवस्थित करने की जरूरत है। इतिहास के पुनर्लेखन की बात काफी लम्बे अरसे से कही जा रही है। हेमन्त विश्व शर्मा ने पहली बार यह बात कही हो, ऐसा नहीं है। लेकिन उन्होंने इसके साथ जो दूसरी बात कही, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा विश्वविद्यालयों के इतिहास के पाठ्यक्रमों में से पूर्वोत्तर भारत का इतिहास गायब है। उसे कहीं भी पढ़ाया नहीं जाता। शर्मा के अनुसार अंग्रेज़ सरकार ने यह जानबूझ कर और एक षड्यन्त्र के तहत किया है। शर्मा के इस आरोप में दम है। दरअसल ब्रिटिश सरकार पश्चिमोत्तर भारत की तरह ही पूर्वोत्तर भारत को भी देश से तोडऩा चाहती थी। अब इस षड्यन्त्र को ब्रिटिश सरकार की कूपलैंड योजना कहा जाता है।

लेकिन दूसरे विश्व युद्ध की मजबूरियों के चलते उन्हें जल्दी यहां से जाना पड़ा। लेकिन पूर्वोत्तर भारत को इतिहास के स्तर पर देश से अलग रखने की नीति का निर्वाह नई सरकारें भी करती रहीं। यही कारण है कि पूरा असम गैर क़ानूनी बांग्लादेशियों से भर गया लेकिन देश को कानों कान ख़बर तक नहीं हुई। अरुणाचल प्रदेश का तो पता ही उत्तर प्रदेश वालों को तब चला जब चीन ने 1962 में वहां हमला ही कर दिया। उन दिनों अरुणाचल को नेफा कहा जाता था और नेहरू ने उसे अपने मित्र एल्विन वैरियर के हवाले किया हुआ था। अब यह भी पता चला है कि वैरियर भी कूपलैंड षड्यन्त्र का ही हिस्सा था। सबसे पहले सुलतानों/मुगलों के शासन को लें। किसी भी कालखंड में इनका पूरे हिन्दुस्तान पर कब्जा नहीं रहा। देश में दसियों राज्य थे। उनमें से एक मुगल राज्य भी था। इतिहास के किस कालखंड में असम पर मुगलों का राज्य रहा? औरंगजेब ने असम को जीतने का प्रयास किया और मुंह की खाई। लेकिन इतिहास की किताबें तो देश के कुछ हिस्सों पर मुगल शासन को पूरे भारत पर ही मुगल शासन बताती हैं। स्वतंत्रता संग्राम को ही लें। विदेशी सुलतानों/मुगलों के खिलाफ देश के अनेक स्थानों पर सफल-असफल लड़ाइयां लड़ी गईं। इनमें शिवाजी मराठा, महाराणा प्रताप और जम्मू-कश्मीर के बन्दा सिंह बहादुर, असम के लचित बडफूकन, महाराजा पृथु का नाम बहुत प्रसिद्ध है। लेकिन उनका जिक़्र इतिहास में कितना आता है? मुगल शासकों से डर कर देश के कुछ राजाओं ने अपनी राजकुमारियों की शादियां मुगल शासकों से कर दीं। इस कायरता के काम को इतिहास में हिन्दु-मुस्लिम एकता का स्वर्णकाल कह कर प्रचारित किया जा रहा है। इतिहास लिखने, उसके काल विभाजन व नामकरण की वही पद्धति आज भी प्रचलित है जो दो सौ साल पहले ब्रिटिश साम्राज्यवादी तय कर गए थे। लेकिन हेमन्त विश्व शर्मा के बयान में एक और गहरा संकेत है।

आज देश के स्कूलों और विश्वविद्यालयों में जो भारत का इतिहास के नाम पर पढ़ाया जाता है, उसमें कितना भारत है? उस इतिहास में से पूर्वोत्तर भारत व दक्षिण भारत का इतिहास ग़ायब है। ऐसा क्यों है? हेमन्त विश्व शर्मा की सबसे बड़ी चिन्ता यही है। उत्तर भारत का विद्यार्थी जब भारत के इतिहास के नाम पर पढ़ाई जा रही सामग्री में पूर्वोत्तर भारत व दक्षिण भारत का इतिहास नहीं पढ़ेगा तो वह भावनात्मक स्तर पर कैसे महसूस करेगा कि ये दोनों खंड मिलाकर ही भारत बनता है। इसी प्रकार जब मिज़ोरम का छात्र भारत का इतिहास पढ़ते समय उसमें से मिज़ोरम को गायब पाएगा तो उसे यही महसूस होगा कि मिज़ोरम शायद भारत का हिस्सा ही नहीं है। अंग्रेज़ों को यह पैटर्न अपने हितों के अनुकूल लगता था क्योंकि वे यहां से जाने के पहले देश को खंड-खंड करना चाहते थे। लेकिन उनके बाद की सरकारों ने इस पद्धति को क्यों अपनाए रखा? उनका इसमें क्या हित था? हम हिमाचल प्रदेश का ही उदाहरण लें। सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में दशगुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने देश को विदेशी मुगल शासकों से मुक्त करने के लिए ऐतिहासिक अभियान छेड़ा था। उसी में से खालसा पंथ का जन्म हुआ। इस अभियान में कुछ राजाओं ने उनकी सहायता की और कुछ ने विरोध किया और मुगलों की सहायता की। यह ऐतिहासिक तथ्य है। लेकिन ब्रिटिश इतिहासकारों ने लिखने व कहने का तरीका बदल दिया। उन्होंने लिखना शुरू किया कि पहाड़ के हिन्दु राजाओं ने गुरु जी का विरोध किया। लेकिन यह नहीं लिखा कि जिन राजाओं ने सहायता की वे भी हिन्दु ही थे।

सबसे बड़ी बात यह कि गुरु जी के समय हिन्दु-सिख शब्दावली प्रचलन में थी भी नहीं। जाहिर है ब्रिटिश इतिहासकार अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए इतिहास की नई व्याख्या कर रहे थे और नई शब्दावली का प्रयोग करके फूट डालने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन आज भी इतिहास में वही व्याख्या और वही शब्दावली प्रयोग की जा रही है। गोवा को पुर्तगाली साम्राज्यवादियों से मुक्त करवाने के लिए भारतवासियों को अपने ही देश की सरकार से लडऩा पड़ा, यह इतिहास की किताबों में से गायब है। पंडित जवाहर लाल की सरकार उन सत्याग्रहियों पर गोलियां चला रही थीं जो गोवा की आजादी के लिए पुर्तगाली शासन के खिलाफ मोर्चा लगा रहे थे। राम मनोहर लोहिया और जगन्नाथ राव जोशी पर पुर्तगाल की जेलों में अमानुषिक अत्याचार किए गए। इसका इतिहास में कितना जिक़्र है? यही स्थिति पुदुच्चेरी को फ्रांस के पंजे से मुक्त करवाने के लिए थी। खुदा का शुक्र है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू इन दोनों प्रश्नों को भी संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं ले गए। यह इसीलिए संभव हो सका क्योंकि भारतीयों ने देश के इस हिस्से को मुक्त करवाने के लिए कांग्रेस सरकार के खिलाफ सत्याग्रह शुरू किया था। मुझे लगता है हेमन्त विश्व शर्मा की बात को गंभीरता से लेते हुए इतिहास के इन प्रश्नों पर नए सिरे से विचार करने और लिखने की जरूरत है। इतिहास को फिर से लिखने के लिए समय भी अनुकूल है क्योंकि केंद्र में एनडीए की सरकार है। मोदी सरकार को इस विषय में पहल करनी चाहिए तथा हमारे भुला दिए गए नायकों को सम्मान दिलाना चाहिए। ऐसा करना भावी पीढ़ी के लिए भी लाभदायक होगा।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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