कालेज छात्र और पुरुष वेश्यावृत्ति

कॉलेज छात्रों को पढ़ाई-लिखाई के बाद भी काम न मिलने के कारण, बढ़ती बेरोजगारी के चलते या फिर कुछ लोगों की असंतुष्ट यौन इच्छाएं इत्यादि कारणों से, चाहे कोई भी हो, जब तक इस विकृति की डिमांड बनी रहेगी, पुरुष वेश्याओं का वजूद भी शायद बना रहेगा….

उच्च शिक्षा से जुड़े लोगों के लिए हतप्रभ करने वाली खबरें बता रही हैं कि पैसा कमाने की होड़ में देश में अनेक डिग्री कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के कुछ लडक़े पुरुष वेश्यावृत्ति में लिप्त हो रहे हैं। इस काले काम में संलिप्त लडक़ों को जिगोलो कहा जाता है। सोशल मीडिया के जरिये पता लगता है कि इन लडक़ों से सेवाएं लेने वाली अनेक महिलाएं अमीर और बड़े घरानों की होती हैं। कहा जाता है कि बड़े शहरों में अनेक एजेंसियां रहती हैं जो जिगोलो की सप्लाई करती हैं और जल्दी से पैसा कमाने की इच्छा रखने वाले कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्र इनके सॉफ्ट टारगेट्स होते हैं। इनका ज्यादातर काम इंटरनेट के जरिये चलता है। देश में पुरुष वेश्याओं यानी कि जिगोलो का ट्रेंड दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ आदि में स्थित मिडिल क्लास नाइट क्लबों में तेजी से बढ़ा है। ऐसा लगता है कि अनेक छोटे और पहाड़ी राज्य इससे अछूते नहीं रहे हंै। भारत में महिलाओं के बीच वेश्यावृत्ति तो सदियों से चली आ रही है, लेकिन अब पुरुष भी इस धंधे में पडऩे लगे हैं। यह आश्चर्यजनक भी है और सत्य भी है कि देश में कई कारणों से पुरुष वेश्यावृत्ति में इजाफा देखा जा रहा है।

सोशल मीडिया पर इससे जुड़े ताज़ा समाचार इसकी पुष्टि करने के लिए काफी हैं। आइए, इस बोल्ड और समाज को कलंकित करने वाले इस काले स्याह मुद्दे की बारीकी को समझें। आम भाषा में कामुकता तलाशती चिनिन्दा महिला ग्राहकों को सेवा प्रदान करने वाले पुरुष वेश्याओं या फिर मेल एस्कोर्ट की कई श्रेणियां हो सकती हैं। सबसे पहले है यूफेमिडम, ये वे पुरुष वेश्या होते हैं जो सामान्यतया अपने सेक्स व्यवसाय के तहत न्यूड डांसिंग, माडलिंग, बॉडी मसाज या अन्य दूसरी शुल्क आधारित सुविधाएं मुहैया करवाते हैं। दूसरे स्थान पर हैं गे फॉर पे, इन पुरुषों की इस श्रेणी में वैसे पुरुष आते हैं जो खुद को ‘गे’ तो नहीं मानते, पर पैसों के लिए दूसरे मर्दों के साथ सेक्स करते हैं। तीसरे स्थान पर होते हंै जौन या ट्रिक्स। इन्हें स्ट्रीट प्रोस्टिट्यूट भी कहा जाता है। आम तौर पर ऐसे पुरुष बार या स्ट्रीट से पुरुष वेश्या को पिक करते हैं। इसके बाद आते हैं वो पुरुष जो स्थायी तौर पर किसी मेल ब्रोथल में अपनी सेवाएं देते हैं। उन्हें फेयरिज कहा जाता है। ये बार में भी अपना धंधा चलाते हैं। जापान में इन युवा पुरुष वेश्याओं को ‘कोगामा’ कहा जाता था। इनके ग्राहक अधिकतर प्रौढ़ पुरुष होते थे। मध्य एशिया और अफगानिस्तान के दक्षिणी भागों में 12 से 16 वर्ष के पुरुष वेश्याओं को ‘बाच्चा’ कहा जाता था। ये वे किशोर होते थे जो अपने कामुक गीतों और नृत्यों से लोगों को लुभाते थे। क्यूबा में पुरुष वेश्याओं को ‘जिनतेरो’ कहा जाता है। कैरेबिया में पुरुष सेक्स वर्कर को ‘सैंकीपैंकी’ कहा जाता है। खुल्लम खुला बात करें तो एक वक्त था जब वेश्यावृत्ति स्त्रियों से जुड़ा पेशा माना जाता था। चूंकि कामुक देह की स्वामिनी सिर्फ स्त्रियां होती थीं और चंचलता, नजाकत, शोखी, सेक्स अपील जैसे कामुक विशेषण स्त्रियों की देह के साथ जुड़े होते थे, लिहाजा यह सर्वसम्मत राय थी कि देह का व्यापार सिर्फ स्त्रियां कर सकती हैं।

अरसे से एकछत्र राज कर रही कुछ महिलाओं के इस बाजार में पुरुषों ने भी सेंध लगाना शुरू कर दिया है। इसके अनेक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं। दरअसल उदारवादी, उन्मुक्त और विकासवादी विचारधारा ने कभी न प्रदर्शित होने वाली सेक्स उत्कंठा को बाजार की व्यापारिक जरूरत बना दिया है। समृद्धि, संपन्नता और संभ्रांतता ने इसे और ज्यादा व्यावसायिक बनाया है। सामाजिक पाबंदियों के चलते दबा कर रखी जाने वाली स्त्रियों की कामेच्छा ने अब प्रत्यक्ष रूप से पुरुष वेश्यावृत्ति के व्यवसाय को विस्तारित किया है। इन दिनों अनेक पहाड़ी राज्यों मे सेक्स टूरिज्म शबाब पर है। देश के पवित्र स्थानों के आसपास यह आम बात हो गई है। इसके अलावा देश-विदेश में बढ़ती महिला पर्यटकों की आवाजाही ने इस फील्ड में मेल प्रोस्टिट्यूट की मांग को और ज्यादा बढ़ाया है। पर्यटन के दौरान यात्रा को और ज्यादा रोमांचक व मजेदार बनाने के लिए महिला पर्यटकों द्वारा इन्हें ‘टैंपरेरी ब्वायफ्रेंड’ के तौर पर हायर किया जाता है जो उन की यौन इच्छा की पूर्ति के लिए न केवल सेक्स पार्टनर की तरह काम करते हैं बल्कि वे डायनिंग कंपेनियन, टुअर गाइड, डांसिंग पार्टनर आदि की भी भूमिका निभाते हैं। समाज शास्त्री और मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि तथाकथित पुरुष को हायर करने वाली अधिकतर उम्रदराज या अधेड़ उम्र की महिलाएं होती हैं जिन्हें सेक्स के साथ-साथ रोमांस की भी दरकार होती है।

आर्थिक रूप से संपन्न चाहवान औरतों द्वारा इन्हें मोटी रकम अदा की जाती है और हर प्रकार की सुख-सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाती हैं। इससे इस क्षेत्र में कदम बढ़ाने वाले पुरुषों की तादाद बढ़ गई है। जब हमारे कॉलेज छात्र इसमें शामिल होने लगे हैं तो यह अत्यंत चिंताजनक है। यह हमारे समाज के परदे के पीछे की वीभत्स और घिनौनी सत्यता है। इससे जुड़ी अनेक रिसर्च बताती हैं कि भारत में पिछले कुछ वर्षों से मेल प्रोस्टिट्यूटों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। इंटरनेट पर उपलब्ध ख़बरें विदित करती हैं कि भारत के बड़े शहरों में पुरुष वेश्यावृत्ति को प्रोमोट करने वाले नैटवर्क काम करते हैं जिसमें फीमेल क्लाइंट की जरूरत और डिमांड के आधार पर उन्हें 2 तरह की सुविधाएं होम बेस्ड सर्विस (जिसमें क्लाइंट के घर तक सीधे जिगोलो की सर्विस दी जाती है) और आउटर सर्विस (जिसमें क्लाइंट को सीधे जिगोलो द्वारा तय किए गए किसी स्थान पर या स्वयं क्लाइंट द्वारा चयनित किसी स्थान पर पहुंचना होता है) प्रदान की जाती हैं। बदले में फीमेल क्लाइंट से फीस के तौर पर मोटी रकम वसूली जाती है। एक तरफ कमजोर आर्थिक स्थिति वाले, बेरोजगार, एक्स्ट्रा आमदनी की चाह वाले, सेक्स कुंठाग्रस्त पुरुष और पैसे की तलाश में कॉलेज छात्र अपनी जरूरतों के दबाव में इस अनैतिक काम को अंजाम दे रहे हैं, दूसरी तरफ क्योंकि ताली दो हाथ से ही बजती है और कुंठाग्रस्त, अकेलेपन की शिकार, अवसादग्रसित या फिर रोमांस व रोमांच की तलाश करने वाली कुछ महिलाएं विशेषतौर पर पुरुष वैश्या की ग्राहक होती हैं।

पर्यटन के दौरान सुदूर इलाकों में नितांत अकेले यात्रा करने वाली महिला पर्यटकों को भी एक साथी के रूप में जिगोलो की जरूरत पड़ती है। दूसरी ओर अलग-अलग सैक्स पार्टनरों के साथ सैक्सुअल रोमांच की चाह रखने वाली महिलाएं भी मेल प्रोस्टिट्यूटों की नियमित ग्राहक होती हैं। कुल मिला कर पुरुष वैश्यावृति हमारे सांस्कृतिक समाज पर काला धब्बा है। पश्चिमी समाज हो या एशियाई समाज, किसी में भी पुरुष जिगोलो को न तो सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त है और न ही कानूनी मान्यता है। फिर भी कहना न होगा कि न पूरी हो रही जरूरतों के दबाव में सैक्स अब एक हौट ब्रैंड बन गया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसमें ग्राहक कौन है और उपभोक्ता कौन। यौनेच्छा की चाहत रखने वाले और कामसेवा देने वाले अब स्त्री और पुरुष दोनों ही वर्ग हैं। जिसकी जितनी तलब और जितनी आर्थिक पहुंच है, उसे उस हिसाब से सुविधाएं उपलब्ध हैं। इस पेशे में पुरुष वेश्याओं के रूप मे कॉलेज छात्रों के प्रवेश से और दिन प्रतिदिन बढ़ती उनकी मांग ने यह साफ कर दिया है कि सैक्स का संसार और इसका बाज़ार अप्रतिबंधित क्षेत्र है। कॉलेज छात्रों को पढ़ाई लिखाई के बाद भी काम न मिलने के कारण, बढ़ती बेरोजगारी के चलते या फिर कुछ लोगों की असंतुष्ट यौन इच्छाएं इत्यादि कारणों से, चाहे कोई भी हो, जब तक इस विकृति की डिमांड बनी रहेगी, पुरुष वेश्याओं का वजूद भी शायद बना रहेगा। मनोवैज्ञानिक सवाल यह भी है कि अमूमन यौनेच्छाएं कभी मरती नहीं हैं तो फिर इससे जुड़ा व्यापार कैसे थमेगा? इस बिंदु पर सामाजिक बहस की दरकार है।

डा. वरिंद्र भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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