कश्मीर में सरकारी जमीन पर कब्जा

इसलिए गुलाम नबी का कहना है कि यदि कब्जा छुड़ाओ अभियान बंद न किया तो लोग सडक़ों पर निकल आएंगे और फिर पत्थरबाज़ी का युग शुरू हो जाएगा। इसका अर्थ है गुलाम नबी शुरू से जानते हैं कि पत्थरबाज़ों का नियंत्रण कहां से होता है और उन्हें कब-कब मैदान में उतारना है। लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि आम कश्मीरी, आज तक जिसे एटीएम या अशरफ अपने हितों के लिए इस्तेमाल करता आया था, इस बार उसके हाथ का खिलौना बनने से इन्कार कर रहे हैं। मुफ़्ितयों और शेखों की चिंता का विषय यही है….

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की आड़ में इतने दशकों तक जो कुकर्म होते रहे, उसकी जैसे-जैसे परतें खुल रही हैं तैसे-तैसे कुकर्म करने वालों में बेचैनी बढ़ रही है। इन कुकर्मों की एक लंबी फेहरिस्त है। अब उसका एक नया अध्याय खुला है, जम्मू-कश्मीर की सरकारी जमीन को बाप की जमीन समझ कर उस पर कब्जा जमा लेना। पता चला है अब तक लाखों एकड़ सरकारी जमीन पर कुछ प्रभावशाली लोगों, मसलन राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों, आतंकवादियों, हुर्रियत वालों और उनके रिश्तेदारों ने कब्जा कर लिया था। इसमें उन्हें किसी का डर भी नहीं था। सरकार भी इन्हीं की और कागज़़ात भी इन्हीं के। सैंया भए कोतवाल तो फिर डर काहे का। अनुच्छेद 370 का कवच तो था ही। उसके पिछवाड़े में जो कुछ मजऱ्ी करते रहो, कोई पूछने वाला नहीं था। लेकिन नौकरशाहों ने सुझाया होगा कि कोई हल्का सा क़ानूनी कवच भी तैयार कर लेना चाहिए ताकि भविष्य में भी कोई कब्जे में की गई सरकारी जमीन छुड़ा न सके। इसके लिए रोशनी एक्ट पास कर दिया गया। प्रतीकात्मक रूप से सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन के दो पैसे सरकारी खजाने में जमा करवा कर वह जमीन सरकारी रिकार्ड में भी अपने नाम करवा ली गई। इस सरकारी जमीन पर कब्जा क्या आम कश्मीरियों ने किया? जमीन पर कब्जा करने वाले हांजी, वाजा, सोफी, भंगी, हज्जाम, गिलकर, सिप्पी, गद्दी नहीं थे बल्कि कब्जा करने वाले ज़्यादातर सैयद व शेख थे।

या फिर नकली शेख थे। देसी मुसलमान कश्मीरी नहीं थे बल्कि विदेशी मूल के अशरफ थे। अजलाफ/पसमान्दा तो इस गुंडागर्दी को केवल देखने वालों में से थे। अलबत्ता अशरफों ने इस ‘सरकारी जमीन कब्जाओ’ मुहिम में गुज्जरों के नाम का भी दुरुपयोग किया और कई स्थानों पर उनके नाम से भी सरकारी जमीन हड़प ली। लेकिन जैसे कि कहा गया है, सब दिन रहत न एक समान। 2019 में अनुच्छेद 370 का कवच टूट गया। कुछ दिन बाद जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने रोशनी एक्ट का कवच भी तार-तार कर दिया। तब कश्मीर के नेताओं का कब्जा अभियान दिन की रोशनी में नंगे चिट्टे रूप में दिखाई देने लगा। सरकार ने इन महानुभावों से सरकारी जमीन छुड़ाने का अभियान शुरू कर दिया। अब तक ‘सरकारी जमीन कब्जाओ’ अभियान चल रहा था, अब अचानक ‘सरकारी जमीन छुड़ाओ’ अभियान शुरू हो गया। लेकिन अब तक तो सरकारी जमीन पर चार-चार मंजिल के महल बन चुके थे। मार्केट बन चुकी थीं। पहले तो आम कश्मीरी ने सोचा कि फालतू का हो-हल्ला सरकार कर रही है। अब तक अजलाफ/पसमान्दा के नाम पर अपना घर भरते रहे अशरफ समाज के ख्वाजाओं पर कार्रवाई करने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। दरअसल आम कश्मीरी का यह सोचना भी सही था। पिछले सत्तर साल से सत्ता पर प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जा उन्हीं का रहा था जिन्होंने सरकारी जमीन कब्जा रखी थी। लेकिन जब सरकारी बुलडोजऱ अवैध कब्जे वाली इमारतों को गिराने लगे तो आम कश्मीरी का विश्वास भी प्रशासन पर जमने लगा। पता चला है कि अब तक प्रशासन ने दो करोड़ एकड़ सरकारी जमीन इन ‘माननीय’ लोगों के कब्जे से छुड़ा ली है। कब्जा करने वालों में कई पूर्व मंत्री, विधायक और नौकरशाह भी हैं।

ऐसा नहीं कि ये किसी एक राजनीतिक दल या किसी एक आतंकवादी संगठन के लोग ही थे। इसमें लगभग सभी राजनीतिक दलों के लोग शामिल हैं। चुनाव में आपस में लड़ते हैं, लेकिन सरकारी जमीन कब्जाने में सांझा मोर्चा बना कर काम करते हैं। कुछ ने तो हवा का रुख़ पहचान कर स्वयं ही सरकारी जमीन सरकार को वापस करनी शुरू कर दी है। सरकार के कब्जा छुड़ाओ अभियान के विरोध में सभी गुपकार मोर्चा बना रहे हैं। उमर अब्दुल्ला मानते हैं कि कश्मीर में उस मामले में केवल मुसलमानों पर शिकंजा कसा जा रहा है। वैसे पूछा जा सकता है कि कश्मीर में हिंदू-सिख बचे ही कहां हैं। लेकिन उमर अब्दुल्ला जान बूझ कर इसे मुसलमानों से जोड़ रहे हैं। जबकि असलियत यह है कि घाटी के 98 फीसदी देसी मुसलमानों सा अजलाफ/पसमान्दा का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। यह कब्जा एटीएम (अरब-तुर्क-मुगल मंगोल) वालों का है। अलबत्ता इसमें कुछ ऐसे देसी मुसलमान जरूर शामिल हैं जो देसी होते हुए भी अरबी टाईटल शेख/सैयद इत्यादि का प्रयोग करते हैं। वे भी एटीएम के साथ मिल कर कब्जा अभियान का हिस्सा बन गए थे। उमर अब्दुल्ला इसे बख़ूबी जानते हैं लेकिन संकट की इस घड़ी में एक बार फिर कश्मीर के देसी मुसलमानों को वे कवच की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, जैसा कि वे अब तक करते आए हैं। वे जीतते देसी कश्मीरी मुसलमानों की वोट से हैं और रक्षा अशरफ के आर्थिक व सामाजिक हितों की करते हैं। महबूबा मुफ़्ती का कष्ट और गहरा है। वे समझ चुकी हैं कि जिन्होंने सरकारी जमीन पर कब्जा किया है, वे ज़्यादातर उसी के राजनीतिक व सामाजिक कुनबे के लोग हैं। इसलिए वे चिल्ला रही हैं कि कश्मीर को अफगानिस्तान की तरह नष्ट किया जा रहा है। महबूबा जानती हैं कि अफगानिस्तान को पूर्व काल में अरबों और तुर्कों ने नष्ट किया था और आधुनिक काल में गोरों और रूसियों ने नष्ट किया है। भारत ने अफगानिस्तान को कभी नष्ट नहीं किया बल्कि हर संकट में पश्तूनों की सहायता ही की है। महबूबा मुफ़्ती क्या बताएंगी कि उनकी बिरादरी आज भी पठान को अशरफ का हिस्सा क्यों नहीं मानती? महबूबा ‘कब्जा छुड़ाओ अभियान’ का विरोध करने के लिए अपनी बिरादरी को लेकर दिल्ली पहुंच गईं। उसका कहना था कि वे संसद को सुनाना चाहती थीं कि हमसे सरकारी जमीन से कब्जा नहीं छुड़ाना चाहिए। यह बहुत बड़ा अत्याचार है। वैसे महबूबा इतना तो जानती ही हैं कि संसद के अंदर जाकर बात करने के लिए पहले हिंदुस्तान के किसी भी इलाके से चुन कर आना पड़ता है। लेकिन वे बिना चुने ही संसद को कुछ सुनाना चाहती हैं। अभी कांग्रेस से छिटक कर गए गुलाम नबी आज़ाद, जिन्होंने अपनी ख़ुद की पार्टी डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी बना ली है, का कहना है कि बहुत से कब्जाधारी राजस्व विभाग के कर्मचारियों को रिश्वत दे रहे हैं कि उनका नाम किसी तरह से कब्जाधारियों की लिस्ट में से निकाल दिया जाए। इसका अर्थ हुआ कि गुलाम नबी ने यह तो स्वीकार कर लिया है कि प्रदेश में सरकारी जमीन पर कब्जा बड़े स्तर पर हुआ है। लेकिन मामला फिर वहीं का वहीं है कि उस हमाम में सभी नंगे हैं। इसलिए गुलाम नबी का कहना है कि यदि कब्जा छुड़ाओ अभियान बंद न किया तो लोग सडक़ों पर निकल आएंगे और फिर पत्थरबाज़ी का युग शुरू हो जाएगा। इसका अर्थ है गुलाम नबी शुरू से जानते हैं कि पत्थरबाज़ों का नियंत्रण कहां से होता है और उन्हें कब-कब मैदान में उतारना है। लेकिन इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि आम कश्मीरी, आज तक जिसे एटीएम या अशरफ अपने हितों के लिए इस्तेमाल करता आया था, इस बार उसके हाथ का खिलौना बनने से इन्कार कर रहे हैं। मुफ़्ितयों और शेखों की चिंता का विषय यही है। असली जमीन तो छिन ही रही है, उसके साथ-साथ राजनीतिक जमीन भी खिसकने लगी है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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