कृषि और उद्योग में संतुलन आवश्यक

By: Mar 23rd, 2023 12:06 am

इन कंपनियों के सहयोग से बहुत से क्रांतिकारी आविष्कार हुए हैं जो शायद अन्यथा संभव ही न हुए होते। अत: औद्योगीकरण का विरोध करने के बजाय हमें ऐसे नियम बनाने होंगे कि बड़ी कंपनियां हमारे समाज के लिए ज्यादा लाभदायक साबित हों तथा उनके कारण आने वाली समृद्धि सिर्फ एक छोटे से तबके तक ही सीमित न रह जाए, बल्कि वह समाज के सबसे नीचे के स्तर तक प्रवाहित हो। उद्योगों और कृषि में संतुलन लाना हमारी आवश्यकता है, वरना किसानों की आत्महत्याओं पर सिर्फ राजनीति होती रहेगी, कोई हल कभी नहीं निकलेगा…

बदले हुए मौसम में अचानक आ रही बारिश ने किसानों का गणित बिगाड़ दिया है। अधिकांश किसानों की फसल या तो कटने वाली है या कट चुकी है। इस अनचाही बारिश से शहरों में बेशक राहत महसूस की जाए पर इससे किसानों को जो नुकसान होगा उससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था गहरे संकट में आ जाएगी। छोटे किसानों के लिए खेती यूं भी फायदे का धंधा नहीं है। आम जनता को किसानों की समस्याओं का अंदाज़ा नहीं है और हमारे नीति निर्धारक किसानों की समस्याओं की अनदेखी कर रहे हैं। कभी सूखा, कभी अकाल, कभी ओलावृष्टि और कभी बाढ़ किसानों की फसल को बर्बाद कर डालते हैं। तेज बारिश के समय फसल खराब होने के साथ-साथ किसानों और मजदूरों के कच्चे घर भी टपकने लगते हैं या ढह जाते हैं। अधिकांश छोटे किसान इस नुकसान को झेल नहीं पाते क्योंकि वे पहले से ही कर्ज में दबे होते हैं। कृषि संकट में आत्महत्याओं के ज्यादातर मामले नकदी फसलों से जुड़े किसानों के हैं। जब तक फसल किसान के पास रहती है, उसके दाम बहुत कम होते हैं लेकिन बाजार में पहुंचने के तुरंत बाद दाम बढ़ जाते हैं। नकदी फसलों से जुड़े किसान भी अपनी जरूरत का खाद्यान्न बाजार से खरीदते हैं जो उन्हें महंगे भाव पर मिलता है, जिससे वे हमेशा कर्ज से दबे रहते हैं और सूखा या बाढ़ न होने पर भी उनका जीवन आसान नहीं होता।

विभिन्न सरकारी नियमों ने धीरे-धीरे खेती को अनुपयोगी और अलाभप्रद बना दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अंधाधुंध प्रचार से प्रभावित किसानों ने आर्गैनिक खेती छोड़ कर विषैली खेती को अपनाया, कुछ समय तक फसल बढ़ती नजऱ आई पर कुछ ही दशकों में जमीन की उत्पादकता घट गई, पानी का स्तर नीचे चला गया और किसानों के बच्चे अन्य व्यवसायों में जाने के लिए विवश हुए, किसानों की आत्महत्याएं हुईं। कहा यह गया कि कृषि क्षेत्र में नए रोजगार संभव नहीं हैं, इसलिए उद्योग को बढ़ावा देना आवश्यक है। परिणामस्वरूप औद्योगीकरण के लिए पूंजी और संसाधनों को खेती के बजाए उद्योगों में लगा दिया गया। खेती के उत्पाद को कारखानों में बने सामान के मुकाबले कम रखकर ऐसा किया जा रहा है, क्योंकि कृषि लागत और मूल्य आयोग का कीमतें तय करने का फार्मूला ही गलत है। खेती को अकुशल कार्य मानकर यह कहा गया है कि किसान साल में केवल 160 दिन काम करता है। इस तरह खेती की उपज का हिसाब बनाते समय उसकी मजदूरी कम लगाई जाती है। ट्रैक्टर, कल्टीवेटर, हार्वेस्टर चलाने वाला, मौसम को समझकर खेती के फैसले करने वाला, फसलों की किस्मों और बीजों को समझने वाला, सिंचाई के उपाय करने वाला, पैदावार को बेचने और हिसाब-खाता रखने वाला किसान तो अकुशल है, जबकि सफाई कर्मचारी, ड्राइवर, चपरासी, चौकीदार आदि को कुशल कर्मचारी माना गया है।

इन सब को साल में 180 दिन की छुट्टियां मिलती हैं, यानी साल के 185 दिन काम करने के बावजूद पूरे 365 दिन का वेतन, महंगाई भत्ता और सालाना इन्क्रीमेंट मिलती है जबकि किसान को बिना किसी छुट्टी के अपनी फसल की चौकीदारी हर दिन करनी पड़ती है तो भी वह केवल 160 दिन की मजदूरी पाता है और वह भी अकुशल के ठप्पे के कारण कम दाम पर। सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम मूल्य भी इन्हें नहीं मिलता क्योंकि सरकार खुद फसलों की खरीद करने के बजाय उन्हें दलालों-आढ़तियों के भरोसे छोड़ देती है जो हर तरह से उनका शोषण करते हैं। किसानों की आमदनी घटकर अलाभप्रद हो गई है। बासमती धान हो, कपास हो, गन्ना हो या आलू, टमाटर, सेब और दालें, किसानों को कम पैसे मिल रहे हैं जबकि खुदरा मूल्य बढ़े हैं। इसका दोहरा नुकसान हुआ है। आम जनता की खरीददारी की हैसियत में कमी आई है और किसानों की आर्थिक हालत और ज्यादा बिगड़ी है। इससे न शहरों में पैसा बचा है, न किसानों के पास। दालों के लिए हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक, उपभोक्ता व आयातक है। दुनिया की कुल दाल की खेती के एक-तिहाई भाग में हम दाल की खेती करते हैं। दुनिया के दाल उत्पादन का 20 प्रतिशत उत्पादन हमारे यहां होता है। परंतु हमारे नेताओं ने दाल को दूसरे दर्जे का अनाज मानकर इसके विकास पर समुचित ध्यान नहीं दिया। हम गेहूं-चावल में ही लगे रहे और दाल आयात करते रहे। सरकारी उपेक्षा के कारण किसान इस फसल की ओर आकर्षित नहीं हुए क्योंकि लम्बी अवधि की फसल होने के साथ इसमें कीटों व बीमारियों का खतरा अधिक है, अच्छे बीजों की कमी है और बाजार में दालों के खरीददार भी नहीं मिलते। 2008 से सरकार ने दालों के समर्थन मूल्य की घोषणा शुरू तो कर दी परंतु सरकार द्वारा खरीद न करने के कारण किसान को व्यापारियों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। विवश होकर किसान दलहन की फसलों से किनारा करते रहे। नतीजतन दलहन की खेती में वैसी बढ़ोत्तरी नहीं हुई जिसकी आवश्यकता है। सरकारी नियमों में इतने सारे झोल हैं कि चौतरफा कार्यवाही के बिना इस समस्या का पार पाना संभव नहीं है। यह कोई अजूबा नहीं है कि सब्जी मंडी में मूली का भाव एक रुपये किलो हो और मंडी के गेट के बाहर वही मूली दस रुपये किलो के भाव बिक रही हो। केंद्र सरकार इसे राज्य सरकार का मामला बताती है और राज्य सरकार इसका दोष पूरे देश की मार्केटिंग व्यवस्था पर मढ़ देती है। यही कारण है कि खेती घाटे का धंधा बन गई है।

स्पष्ट है कि फसल बीमा योजना और रियायती कृषि ऋण तथा कभी-कभार मिलने वाले कुछ मुआवजे, यहां तक कि कर्ज माफी आदि भी काफी नहीं हैं और इस स्थिति से उबरने के लिए कृषि क्षेत्र की समस्याओं और चुनौतियों को बारीकी से समझने तथा उनसे निपटने के लिए योजनाबद्ध कार्य की आवश्यकता है। खेती और किसानी के लाभ के नाम पर जो तीन कानून बनाए गए थे उसमें झोल ही झोल थे, और किसानों के विरोध के कारण सरकार को ये कानून वापस लेने पड़े। यह समझना भी आवश्यक है कि कृषि के पक्ष की बात करने का मतलब यह नहीं है कि हम उद्योगों के विरुद्ध हो जाएं। सच तो यह है कि यदि आप विश्व की सौ सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों की सूची बनाएं तो पहले 63 स्थानों पर भिन्न-भिन्न देशों का नाम आता है और शेष 37 स्थानों पर आईबीएम, माइक्रोसॉफ्ट तथा पेप्सिको जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं। विश्व के शेष देश भी इन कंपनियों से बहुत छोटे हैं। इनमें से बहुत सी कंपनियां शोध और समाजसेवा पर नियमित रूप से बड़े खर्च करती हैं। इन कंपनियों के सहयोग से बहुत से क्रांतिकारी आविष्कार हुए हैं जो शायद अन्यथा संभव ही न हुए होते। अत: औद्योगीकरण का विरोध करने के बजाय हमें ऐसे नियम बनाने होंगे कि बड़ी कंपनियां हमारे समाज के लिए ज्यादा लाभदायक साबित हों तथा उनके कारण आने वाली समृद्धि सिर्फ एक छोटे से तबके तक ही सीमित न रह जाए, बल्कि वह समाज के सबसे नीचे के स्तर तक प्रवाहित हो। उद्योगों और कृषि में संतुलन लाना हमारी आवश्यकता है, वरना किसानों की आत्महत्याओं पर सिर्फ राजनीति होती रहेगी, कोई हल कभी नहीं निकलेगा।

पी. के. खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com


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