महिलाओं की पीड़ा समझने की जरूरत

By: Mar 16th, 2023 12:05 am

क्या हम महिलाओं की समस्याओं, आवश्यकताओं, इच्छाओं, अपेक्षाओं आदि सभी बातों का ध्यान रखते हुए चर्चा करेंगे और समग्रता में सोचेंगे ताकि इस बार भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस सिर्फ एक औपचारिकता मात्र बनकर न रह जाए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मीडिया की भूमिका का भी जायजा लेना होगा और खुद हमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिये तथा अन्य सभी साधनों से आवश्यक मुद्दों पर चर्चा करते रहना होगा और चर्चा तब तक हो जब तक समाधान न हो जाए…

अभी पिछले हफ्ते 8 मार्च को देश भर में रंगों के पर्व होली की धूम रही। इस वर्ष वृंदावन की होली, बरसाने की होली, और अभी इसी सप्ताह के पहले दिन रंग पंचमी के संदेशों की धूम रही। होली तो हो ली, लेकिन यह एक संयोग ही था कि इस वर्ष होली वाले दिन ही अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस भी था। हर साल की तरह महिला दिवस आया भी और चला भी गया। कार्यक्रम हुए, प्रस्ताव पास हुए, नारे लगे, अखबारों में खबरें छपीं और अब हम सब फिर से अपने-अपने काम में व्यस्त होने के लिए स्वतंत्र हैं। यह एक दुखद सत्य है कि जवानी के जोश में होने वाले प्यार और विवाह ही नहीं, बल्कि दो परिवारों द्वारा देखभाल के बाद होने वाले विवाह भी असफल हो रहे हैं। असफल होने वाले विवाहों में दंपत्ति पढ़े-लिखे भी थे, अच्छे पदों पर थे। सार्वजनिक स्थानों पर, बसों, ट्रेनों में और कार्यालयों में महिलाओं से छेड़छाड़ के मामलों में भी कोई ऐसा सुधार नहीं हुआ जिससे मन में कोई तसल्ली हो। बर्बर बलात्कार का किस्सा हो या प्यार में फंसी महिलाओं की हत्या का मामला हो, समाज में ऐसे कोई बदलाव नहीं हुए हैं कि महिलाएं स्वयं को सुरक्षित महसूस करना शुरू कर दें। महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानून और प्रावधानों से राहत नहीं मिली है। ये कदम नाकाफी साबित हो रहे हैं और लगभग हर रोज ही बलात्कार और हत्याओं के कई और समाचार देखने-सुनने को मिल रहे हैं।

मुद्दा दरअसल, ज्यादा बड़ा है और समस्या की जड़ें ज्यादा गहरी हैं। शायद सरकारी इंतजामों और कानूनी बदलावों के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन, बच्चों की परवरिश के तरीकों में बदलाव और हम सब की सोच में बदलाव कहीं ज्यादा आवश्यक है। सच तो यह है कि कमी ही यही है कि हमारी सोच में बदलाव के ज्यादा लक्षण नजर नहीं आ रहे, यही कारण है कि दिल्ली के जघन्य अपराध से जो शोर मचा वह अभी थमा भी नहीं था कि एक और बलात्कार की खबर आ गई और यह सिलसिला अब तक भी थमा नहीं है। पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक अलग ही रंग दे दिया। भारतीय संसद अभी तक महिला आरक्षण के बारे में अनिश्चित है, भारतीय समाज इस समस्या से अनजान है और भारतीय मीडिया के लिए यह एक फैशनेबल मुद्दा मात्र है। लेकिन चेन्नई की एक ब्लॉगर श्रीमती विदिशा कौशल ने इस संबंध में कई तर्कसंगत सवाल उठाये हैं। उनका कहना है कि जब हम बचपन में ही लडक़ों को ‘जानवर’ और लड़कियों को ‘कोमल गुडिय़ा’ मानने लगते हैं तो भेदभाव वहीं से आरंभ हो जाता है। जब मांएं खेल के मैदान में छोटे बच्चों को पेड़ों की जड़ों में पेशाब करने देती हैं जबकि लड़कियों को बाकायदा शौचालय ले जाया जाता है, जब लड़कियों को धीमी आवाज में बात करने और बाकी बहन-भाइयों का ख्याल रखने की सीख दी जाती है लेकिन लडक़ों को इस जि़म्मेदारी से छूट दी जाती है, और यह कह कर संतोष कर लिया जाता है कि ‘लडक़े तो होते ही ऐसे हैं’, और लड़कियों को सिखाया जाता है कि वे लडक़ों की बराबरी नहीं कर सकतीं, तो भेदभाव बढ़ता चला जाता है। श्रीमती कौशल कहती हैं कि रोने पर लडक़ों का मजाक उड़ाते हुए कहा जाता है ‘क्या लड़कियों की तरह रो रहे हो’, समाज के किसी भी आय वर्ग में अक्सर लडक़ों को घर की सफाई करने, खाना बनाने आदि की सीख नहीं दी जाती, लड़कियों को पैसे कमाने और संभालने की सीख नहीं दी जाती।

अक्सर शादी के बाद भी महिलाएं जीवन बीमा, म्युचुअल फंड, बचत और निवेश के मामले में पति पर ही निर्भर रहती हैं। पुरुष प्रधान समाज में हालात ऐसे हैं कि यदि लड़कियों के साथ छोटी-मोटी छेडख़ानी हो तो वे उसकी उपेक्षा करने में ही अपनी भलाई समझती हैं, यहां तक कि वे अपने घर में भी कई बार ऐसी बातों की खुलकर शिकायत नहीं कर पातीं। महिलाओं पर अत्याचारों की बात छोड़ भी दें तो भी पुरुष समाज महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं से वाकिफ नहीं जान पड़ता। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला अधिकारों पर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता प्राप्त की है। महिलाओं ने भी लगभग हर क्षेत्र में अपना सिक्का मनवाने में सफलता प्राप्त की है। इस सब के बावजूद महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मन:स्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में कोई सार्थक चर्चा देखने को नहीं मिलती। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या, माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल आदि के बारे में ज्यादातर पुरुष लगभग सारी उम्र पूर्णत: अनजान रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां बहनें या पुत्रियां अपने भाइयों और पिता को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। इसमें पुरुषों का दोष इसलिए नहीं है क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। महिलाओं के शोषण की कहानी सचमुच अजीब है। पुरुष प्रधान समाज में अकेली महिलाओं की स्थिति अक्सर शोचनीय होती है और उन पर कई और नए बंधन लाद दिये जाते हैं।

विधवा महिलाएं ससुराल में शेष सदस्यों के अधीन हो जाती हैं, परित्यक्ताएं और तलाकशुदा महिलाएं तो कई बार अपने मायके में भी दूसरे दर्जे की नागरिक बनकर रह जाती हैं। घर में सारा दिन काम करते रहने पर भी उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, स्वतंत्रता नहीं मिलती और अपेक्षित सम्मान नहीं मिलता। विधवाओं की कठिनाइयों के बारे में तो फिर गाहे-बगाहे बात होती रहती है लेकिन परित्यक्ताओं, तलाकशुदा एकल महिलाओं, किसी भी विवशतावश अविवाहित रह गई महिलओं की समस्याओं के बारे में हम शायद ज्यादा जागरूक नहीं हैं। सुश्री नलिनी राजन द्वारा संपादित पुस्तक ‘ट्वेंटी फस्र्ट सेंचुरी जर्नलिज्म इन इंडिया’ में अपने लेख ‘दि जेंडर फैक्टर’ में उन्होंने बताया है कि सन् 2005 के सुनामी के कहर के कारण शरणार्थी कैंपों में महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं की ओर ध्यान न दिये जाने के कारण (महिलाओं के आंतरिक परिधान, सैनिटरी नैपकिन, खुले पानी की सुविधा वाले महिला टायलेट, माहवारी आदि के समय प्राइवेसी की आवश्यकता आदि) महिलाओं को अतिरिक्त परेशानियों का शिकार होना पड़ा क्योंकि शरणार्थी शिविरों का प्रबंध देखने वाले अधिकारी मूलत: पुरुष थे। हमें तय करना होगा कि हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर खुद से क्या चाहते हैं? क्या हम महिलाओं की समस्याओं, आवश्यकताओं, इच्छाओं, अपेक्षाओं आदि सभी बातों का ध्यान रखते हुए चर्चा करेंगे और समग्रता में सोचेंगे ताकि इस बार भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस सिर्फ एक औपचारिकता मात्र बनकर न रह जाए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मीडिया की भूमिका का भी जायजा लेना होगा और खुद हमें सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिये तथा अन्य सभी साधनों से आवश्यक मुद्दों पर चर्चा करते रहना होगा और यह ध्यान रखना होगा कि यह चर्चा तब तक होती रहे जब तक महिलाओं से संबंधित महत्त्वूपर्ण समस्याओं का समाधान नहीं हो जाता।

पी. के. खुराना

राजनीतिक रणनीतिकार

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com


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