अंबेडकर और राव का ‘संयुक्त राज्य भारत’

यह राव ही थे जिन्होंने वर्ष 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत भारतीयों को वास्तविक अधिकार देने के लिए ब्रिटिश सरकार को मनाया था। इस कानून ने भारतीयों को पहली बार अपनी प्रांतीय सरकारें बनाने की अनुमति दी, परंतु अंग्रेज उन्हें कोई संप्रभु अधिकार देने के प्रति अनिच्छुक थे। राव का तर्क था कि 1935 के कानून को संविधान की तरह मानना चाहिए, न कि मात्र एक कानून। यही एक्ट बाद में भारत के अपने संविधान का आधार बना…

बीआर अंबेडकर को उनकी 133वीं जयंती पर सच्ची श्रद्धांजलि देश को ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ के रूप में स्थापित करने के उनके सपने को याद करना होगी। उन्होंने भारत की संविधान सभा की एक उपसमिति के समक्ष यह विचार मार्च 1947 में प्रस्तुत किया था। परंतु कुछ माह बाद जब वह संविधान की प्रारूपण समिति के अध्यक्ष नियुक्त किए गए, उन्होंने अपनी परिकल्पना का अनुसरण करने के बजाय कांग्रेस पार्टी का दृष्टिकोण आगे बढ़ाना आरंभ कर दिया। मैं पहले ही अंबेडकर की योजना के विषय में लिख चुका हैं और यह भी कि इसे कैसे सभा में चर्चा के लिए भी नहीं लाया गया।

यह केवल अंबेडकर की ही परिकल्पना नहीं थी। उनके पूर्ववर्ती सर बेनेगल नरसिंह राव, जिन्होंने संविधान का प्रथम प्रारूप लिखा था, ने भी ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ नामक संघ प्रस्तावित किया था। राव का प्रस्ताव एक वर्ष से भी पहले जनवरी 1946 में प्रस्तुत किया गया था, जब वह ब्रिटिश सरकार में ही अफसर थे। बाद में वह संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किए गए और उन्होंने संविधान निर्माण में जवाहर लाल नेहरू और अन्यों के साथ निकटता से कार्य किया।

अंबेडकर और राव, दोनों ही दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि एक विभक्त भारत के बजाय संयुक्त भारत अधिक मजबूत और खुशहाल होगा।

राव एक विख्यात संविधानविद थे। ‘‘वर्ष 1935 से राव भारत में प्रमुख संवैधानिक घटनाक्रमों के मध्य में थे। वर्ष 1946 आते-आते वे सभी प्रमुख भारतीय राजनीतिक दलों और ब्रिटिश सरकार के सबसे चहेते संवैधानिक विशेषज्ञ बन चुके थे।’’ यह कहना है उनकी जीवनी लिखने वाले अरविंद इलांगोवान का। कैंब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद – जहां खबरों के अनुसार नेहरू उनकी विधवता की सराहना करते थे – राव भारतीय सिविल सर्विसेज में चले गए, और जल्द ही गवर्नर जनरल के सचिवालय में नियुक्त हो गए। बाद के जीवन में राव ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व किया और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में सेवाएं दी।

यह राव ही थे जिन्होंने वर्ष 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत भारतीयों को वास्तविक अधिकार देने के लिए ब्रिटिश सरकार को मनाया था। इस कानून ने भारतीयों को पहली बार अपनी प्रांतीय सरकारें बनाने की अनुमति दी, परंतु अंग्रेज उन्हें कोई संप्रभु अधिकार देने के प्रति अनिच्छुक थे। राव का तर्क था कि 1935 के कानून को संविधान की तरह मानना चाहिए, न कि मात्र एक कानून। यही एक्ट बाद में भारत के अपने संविधान का आधार बना।

राव ने अपना ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ का प्रस्ताव देश में निराशा के अंतिम क्षणों में तैयार किया, जब मुस्लिम लीग और कांग्रेस स्वतंत्र भारत के लिए संविधान की किसी भी प्रकार पर सहमति बनाने में असफल रहे थे। वर्ष 1946 में भारत में एक विचित्र और शर्मनाक स्थिति थी। चार वर्षों से एक विदेशी शक्ति स्वतंत्रता देना चाहती थी, परंतु वह ऐसा करने में असफल थी क्योंकि भारतीय स्वयं अपनी सरकार की प्रणाली पर सहमत नहीं हो रहे थे।

राव ने देश को प्रांतीय सरकारों के संघ के रूप में संयोजित करने का प्रस्ताव रखा, जहां हर प्रांत को स्वशासन का अधिकार हो पर स्वाधीनता का नहीं। उनका ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ तीन प्रकार के प्रांतों से बना था : ब्रिटिश भारतीय प्रांत, सीमावर्ती प्रांत, और रियासतें व जनजातीय क्षेत्र। सीमावर्ती प्रांत उन क्षेत्रों के अनुरूप थे जिन्हें मुस्लिम लीग पाकिस्तान के रूप में देखती थी। राव ने प्रांतों को स्थानीय मुद्दों पर स्वायत्तता दी, परंतु रक्षा, विदेशी मामलों, संचार और संबंधित वित्त पर नहीं। उनकी योजना ने ब्रिटिश और सीमावर्ती प्रांतों को केंद्रीय कार्यपालिका और विधायिका में समान प्रतिनिधित्व दिया।

‘‘इस योजना का सार यह है’’, राव ने लिखा कि ‘‘एक समुदाय का प्रभुत्व दूसरों पर न हो। भारत की एकता इस प्रकार बचानी होगी कि वह सभी के लिए समान रूप से लाभदायक हो।’’ राव ने संघ की एक ही संघीय विधायिका प्रस्तावित की, परंतु इसे तीन भागों में बिठाने की योजना बनाई, ताकि ‘‘हर समूह के कार्य… केवल उसी समूह के सदस्य निपटाएं।’’ उनके ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ की कार्यपालिका इस प्रकार व्यवस्थित की गई : ‘‘संघ का कार्यकारी प्राधिकरण एक गवर्नर जनरल चलाए और उसे सलाह देने के लिए भारत की एक प्रिवी काउंसिल हो… तीनों समूहों के लिए प्रिवी काउंसिल की अलग-अलग कार्यकारी समितियां हों।’’

अंबेडकर के ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ ने भी समान दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें स्थानीय सरकारों को स्थानीय मुद्दों पर स्वायत्तता दी गई, परंतु रक्षा आदि राष्ट्रीय मसलों पर कोई नियंत्रण नहीं दिया गया। उनकी योजना का जोर कार्यकारी शाखा पर था। उन्होंने तर्क दिया कि संसद में बहुमत वाले दल का प्रधानमंत्री और कैबिनेट भारत की विविधता के अनुरूप नहीं। अंबेडकर ने कहा, ‘‘ब्रिटिश प्रकार की कार्यपालिका भारत के अल्पसंख्यकों के जीवन, स्वतंत्रता और प्रसन्नता के प्रति खतरों से भरपूर होगी।’’ उनकी योजना ने कार्यकारी शाखा को इस प्रकार समायोजित किया कि यह बहुमत वाली पार्टी की समिति नहीं थी। ‘‘कार्यपालिका इस प्रकार गैर-संसदीय होनी चाहिए कि यह हटाई न जा सके’’, उन्होंने लिखा।

दुर्भाग्यवश, अंबेडकर और राव के दोनों दूरदर्शी प्रस्ताव नजरअंदाज कर दिए गए। राव का ‘‘संयुक्त राज्य भारत’’ जल्द ही इतिहास बन गया, जब 1946 में मुस्लिमों ने मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन और पाकिस्तान के निर्माण को बढ़-चढ़ कर मतदान किया। इसने अंबेडकर के प्रस्ताव के लिए भी कोई उम्मीद नहीं छोड़ी, क्योंकि हिंदू बहुमत अब भारत के अल्पसंख्यकों के साथ शक्ति बांटने का इच्छुक नहीं था। परंतु भारत अभी भी एकजुट होने के रास्ते तलाश रहा है। समय आ गया है कि अंबेडकर और राव के मूल प्रस्तावों को सही सम्मान दिया जाए और उन पर विचार हो।

भानु धमीजा

सीएमडी, दिव्य हिमाचल

अंग्रेजी में ‘द क्विंट’ में प्रकाशित

(14 अप्रैल, 2023)


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