प्लास्टिक और कागज की प्लेटों का विकल्प

दूसरी समस्या यह है कि पत्तों की पत्तल को एक-दो सप्ताह से ज्यादा रखना संभव नहीं होता है, इसमें फंगस लग जाती है। इसके लिए हाथ से संचालित छोटी मशीनें आ गई हैं जो गर्म डाई से प्रेस करके पत्तल को सुखा भी देती हंै और प्लास्टिक या कागज की प्लेटों की तरह थाली का आकार भी दे देती हैं। इससे पत्तों की पत्तल को ज्यादा समय तक रखना संभव होगा और दूर तक भेजना भी। शहरी इलाकों तक भी पत्तों की पत्तल को प्रचारित किया जा सकेगा, जिससे वनवासी निर्धन समुदायों को रोजगार के अवसर मिल सकेंगे। इसमें एक ही सावधानी रखना जरूरी है कि ये मशीनें हस्तचालित ही लगाने की इजाजत हो और जो लोग इस समय पत्तलें बनाने का काम कर रहे हैं, उन्हें ही पहले दी जाए। मांग पूरी न होने की सूरत में नए लाभार्थी भी निर्धन वर्ग से चुने जाएं। यानी यह व्यवसाय वनवासी निर्धन वर्ग के हाथ से समर्थवान वर्ग के हाथ में न चला जाए…

भारतवर्ष सामाजिक उत्सवों का देश है। यहां शादी, जन्मदिन, श्राद्ध, जगराते आदि सामाजिक तौर पर मनाए जाते हैं और सामाजिक सहभोजन उसका एक आवश्यक अंग है। भोजन के लिए थाली और दूसरे चीनी आदि की प्लेटों को बार-बार साफ करने के झंझट से बचने के लिए पुराने समय से ही पत्तों की बनी पत्तलों का चलन रहा है। दक्षिण में केले के पत्तों पर भोजन का चलन है। अन्य प्रदेशों में अपने अपने क्षेत्रों में होने वाले पेड़ों के पत्तों से पत्तलें बनाई जाती हैं। बंगाल में साल के पत्तों से, कहीं सागवान के पत्तों से, कहीं पलाश की पत्तलों का चलन है। हिमाचल और उत्तराखंड में टोर के पत्तों से पत्तलें बनाई जाती हैं। उत्तराखंड में इसे मालू या मालधन कहा जाता है।

देश में एक हजार की आबादी पर साल में औसत 3 शादियां होती हैं। इसके साथ अन्य सामाजिक उत्सव भी होते रहते हैं। मान लें कि अन्य उत्सव एक हजार आबादी पर पांच होते हैं, तो कुल 8 उत्सव हुए। हिमाचल जैसे छोटे राज्य के उदाहरण से इसके आर्थिक विस्तार को समझते हैं। हिमाचल की कुल आबादी केवल 70 लाख है। एक हजार पर 8 उत्सव प्रतिवर्ष के हिसाब से करीब 56 हजार उत्सव हुए। एक उत्सव में औसत आठ सौ लोग भोजन करें तो चार करोड़ पचास लाख पत्तलों की खपत साल में हुई। एक पत्तल डेढ़ रुपए के हिसाब से बिक रही है तो कुल 6 करोड़ 60 लाख रुपए की अर्थव्यवस्था पत्तल कारोबार से जुडी है। यह पैसा गांव के अति निर्धन लोगों की जेब में जाता था जो जंगल से पत्ता लाकर खास तरह की तीलियों से इन पत्तों को सिल कर पत्तल और दोने बनाते थे। किंतु आज परिस्थिति तेजी से बदल रही है। बाजार में प्लास्टिक की पत्तल आ गई है। जब प्लास्टिक की पत्तल पर हिमाचल सरकार ने स्वास्थ्य कारणों और कचरे की बहुतायत के चलते प्रतिबंध लगा दिया तो कागज की पत्तलें बाजार में आ गईं। कागज की पत्तलें भले ही प्लास्टिक की पत्तलों से कम हानिकारक हों किन्तु पूर्ण निरापद नहीं हैं। इन पर हाईड्रो फोबिक फिल्म चढ़ाई जाती है ताकि तरल पदार्थ पत्तल में टिका रहे। गर्म भोजन के संपर्क में आने से 15 मिनट में 25 हजार सूक्ष्म कण भोजन में मिल जाते हैं। इस तरह पत्तल का कारोबार उद्योगों के हाथ चले जाने से स्वास्थ्य के लिए खतरे के अलावा गरीब की रोटी छिन जाने का पक्ष भी विचारणीय है। पत्तों से बनी पत्तलें पर्यावरण की दृष्टि से और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी निरापद हैं। इनसे कचरे की समस्या भी नहीं है। आसानी से सड़-गल कर इससे अच्छी खाद बन जाती है।

किन्तु पत्तों की पत्तल को सब जगह पहुंचा कर एक पर्यावरण मित्र विकल्प प्रस्तुत करके और गांव के सबसे निर्धन लोगों को इज्जत की रोजी प्रदान करने के रास्ते में कुछ समस्याएं उभर रही हैं। एक तो अंग्रेजी शासन के डेढ़ सदी के वन प्रबन्धन ने इन स्थानीय लोगों की रोजी और जरूरतों को पूरा करने वाली वनस्पति प्रजातियों की अनदेखी की और व्यापारिक प्रजातियों चीड़, सफेदा आदि का इस तरह प्रचार-प्रसार किया कि अच्छा पत्ता देने वाली प्रजातियों की कमी आ गई। हिमाचल में भी चिपको आन्दोलन के दौर में टोर (मालू) के संरक्षण के प्रयास किये गए थे और इस प्रजाति को काट कर चीड़ लगाने का विरोध किया गया था और हिमाचल में इस तरह की स्थानीय जरूरतों और पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण प्रजातियों को संरक्षित करने के लिए आदेश जारी करवाए थे। इन जन उपयोगी प्रजातियों का कटान तो बंद हुआ किन्तु इनका रोपण शुरू नहीं हो सका है। यदि बड़े पैमाने पर टोर का रोपण किया जाए तो पूरे प्रदेश की पत्तल-दोने की जरूरत पूरा करने योग्य पत्तों का उत्पादन सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके साथ-साथ पलाश के वृक्षों का रोपण भी किया जाए तो पत्तल बनाने के लिए एक और प्रजाति उपलब्ध हो जाएगी। इससे प्रदेश की अर्थव्यवस्था को भी योगदान मिलेगा और सबसे जरूरतमंद लोगों को स्वरोजगार उपलब्ध हो सकेगा। दूसरी समस्या यह है कि पत्तों की पत्तल को एक-दो सप्ताह से ज्यादा रखना संभव नहीं होता है, इसमें फंगस लग जाती है।

इसके लिए हाथ से संचालित छोटी मशीनें आ गई हैं जो गर्म डाई से प्रेस करके पत्तल को सुखा भी देती हंै और प्लास्टिक या कागज की प्लेटों की तरह थाली का आकार भी दे देती हैं। इससे पत्तों की पत्तल को ज्यादा समय तक रखना संभव होगा और दूर तक भेजना भी। शहरी इलाकों तक भी पत्तों की पत्तल को प्रचारित किया जा सकेगा, जिससे वनवासी निर्धन समुदायों को रोजगार के अवसर मिल सकेंगे। इसमें एक ही सावधानी रखना जरूरी है कि ये मशीनें हस्तचालित ही लगाने की इजाजत हो और जो लोग इस समय पत्तलें बनाने का काम कर रहे हैं, उन्हें ही पहले दी जाए। मांग पूरी न होने की सूरत में नए लाभार्थी भी निर्धन वर्ग से चुने जाएं। यानी यह व्यवसाय वनवासी निर्धन वर्ग के हाथ से मशीनों के बल पर समर्थवान वर्ग के हाथ में न चला जाए, इस बात का ध्यान रखना होगा। पत्तलें बनाने के लिए काम आने वाले पत्तों के पेड़ों को बड़े पैमाने में रोपा जाना चाहिए।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद


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