कर्म की महत्ता

By: Jul 8th, 2023 12:15 am

बाबा हरदेव

गतांक से आगे..
चरित्र जीवन का आंतरिक विषय है जो व्यक्ति के व्यवहार, आचरण और जीवनशैली के द्वारा प्रकट होता है। मानव की परख उसके चरित्र से ही होती है। सचरित्रता, धर्म और नीति तीनों का गहरा संबंध है। यह ऐसे आभूषण हैं जिन्हें धारण करने से दिव्य गुण प्रकट होते हैं। ऐसा चरित्रवान महात्मा कत्र्तव्यनिष्ठ होता है। मनुष्य को कत्र्तव्य पथ पर लाने के लिए ही श्रीमद्भगवतगीता का अविभार्व हुआ। अपने अधिकारों को परख कर कत्र्तव्यों को पालन करने से चरित्र सुंदर बनता है।
कत्र्तव्यों से च्युत होने पर चरित्र की हानि होती है। इंद्रियों का संयम चरित्र निर्माण में सहायक होता है। असंयम से अनिष्टकारी कर्म होते हैं और चारित्रिक पतन होता है। गीता के तीसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कामना का त्याग कर के कर्म करने पर जोर दिया है, क्योंकि कामना का त्याग होगा तो कर्म का अभिमान नहीं होगा। अभिमान बंधन का कारण है। युगपुरुष बाबा अवतार सिंह जी से किसी ने पूछा कि यदि अच्छे-बुरे कर्म दोनों ही सोने-लोहे की बेड़ी हैं तो क्या अच्छे कर्म नहीं करने चाहिए? शहनशाह जी ने उत्तर दिया कि कर्मों का अभिमान बंधन का कारण होता है। अशुभ कर्मों का अभिमान नहीं होता अपितु ग्लानि होती है। शुभ कर्मों का अभिमान कर्ता भाव के कारण होता है। अभिमानी व्यक्ति किसी का सत्कार नहीं कर सकता। वह ऐसे कर्म करने लगता है जो उसके चारित्रिक पतन का कारण बनते हैं। चरित्रहीन व्यक्ति पशुवत हो जाता है।

चरित्रहीन व्यक्ति का न तो समाज में कोई सम्मान रहता है न परिवार में। जब कोई जिज्ञासु बनकर सद्गुरु की शरण में आ जाता है, तो सद्गुरु उस के दुष्कर्मों को क्षमा कर के उसका नाता निरंकार से जोड़ देते हैं। सत्य की जानकारी के बाद असत्य का संबंध ढीला पड़ जाता है। सत्संग में महात्माओं की संगति में अच्छे गुण सीखने से व्यक्ति में सद्गुणों का समावेश होता है और सचरित्रता आती है। चरित्र को सुंदर बनाए रखने के लिए संतों, ब्रह्मज्ञानियों की संगति करना, उनके श्रेष्ठ वचनों को सुन कर कर्म में लाना नितांत आवश्यक है। पावन गुरबाणी में भी कहा गया है रहणी रहे सोई सिख मेरा अर्थात गुरमत के अनुसार आचरण करने वाला संत ही मेरा शिष्य कहलाने का अधिकारी है। इससे स्पष्ट है कि पुरातन गुरु पीरों ने भी सचरित्रता को ही महत्ता दी है। जिस गुरसिख की कहणी- रहणी, बहणी पारदर्शिता हो, जिसकी दृष्टि मैली न हो, ऐसा गुरसिख सद्गुरु को अतिप्रिय हो जाता है। रामचरितमानस में यह प्रसंग आता है कि जब भगवान श्री राम ने बाली को छिपकर तीर मारा तो बाली कह उठा…
धर्म हेतु अवतरिहु गोसाई, मारिओ मोहि ब्याध की नाई।
मैं वैरी सुग्रीव पियारा, अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।
तब श्रीराम ने उत्तर दिया
अनुज बधु भगिनी सुत नारी।
सुन सठ कन्या सभ ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकति जोई।
ताहि बधे कछु पाय न होई।। राचरितमानस- 8 (4)
– क्रमश:


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