शव संवाद-4

By: Aug 7th, 2023 12:05 am

बुद्धिजीवी के अपने भ्रम थे और वह इन्हीं में जिंदगी जीता रहा कि देश में उसकी बुद्धि का भी योगदान है। जिंदगी भर इस बुद्धि के कारण उसने चर्चाएं कीं, लेकिन देश की बहस के विषयों को वह न संसद में समझ पाया और न ही मीडिया में सुन, पढ़ व देख पाया। कवि को शमशानघाट पटक कर उसने लगभग तय कर लिया कि वह अब कई कहानियां लिख सकता है। उसके आसपास के मजमून कहानियां सुना रहे थे। उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि वह कहानी कहां से शुरू करे और इसे कहां तक पहुंचाए। सामाजिक विषयों पर वह अपनी बुद्धि के कारण कहानी को असहाय मान रहा था, तो राजनीतिक पृष्ठभूमि में उसे सत्ता की कहानी का पता ही न चल रहा था। बुद्धिजीवी को भ्रम यह हो गया कि दिमाग के कारण वह कहानी लिख ही लेगा, जबकि वह स्वयं देश और समाज का कभी खरा पात्र साबित ही नहीं हुआ।

अंतत: उसके मन में आया कि किसी शव पर कहानी लिखी जाए। कहानी की तलाश उसे एक शव के पास ले गई। वह शव भी किसी कहानी की तरह लावारिस पड़ा मिला। उसके आसपास कुछ कहानी संग्रह और ढेरों रद्दी हो चुकी कहानियों के बीच वहां कहानीकार शव हो चुका था। उसके आसपास उसी की कहानियों के पात्र। कुछ नाच रहे थे, तो कुछ गमगीन। बुद्धिजीवी आंखों में आंसू लिए नाचते पात्रों के करीब पहुंचा, ‘क्यों नाच रहे हो?’ उधर से जवाब मिला, ‘यह कहानीकार न खुद जीया और न हमें जीने दिया। हर बार अपनी कहानी में हमें बंधुआ पात्र बनाता रहा। जब हम दुखी होते, तो कहता हंस के दिखाओ और जब खुद खुश होता, तो कहता रो के दिखाओ। इसलिए हमने फैसला किया कि कहानियों के सारे पात्र आज दिल खोलकर नाचेंगे और खूब रोएंगे, क्योंकि हमारा जीवन तो कहानीकार के संघर्ष में ही गुजर गया।’ बुद्धिजीवी ने सोचा कहानीकार मशहूर होकर मरा होगा, इसलिए सारे पात्र बिछुडऩे पर ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, लेकिन उसी की कहानियों ने कहानीकार को न घर का रहने दिया था और न ही घाट का। उसकी कहानियों के पात्र जोर लगाते रहे, लेकिन कहानीकार केवल अपने संग्रह ही छापता रहा। आश्चर्य तब हुआ जब कहानीकार ने चुरा-चुरा कर पात्रों को उन्हीं कहानियों में ठूंस दिया, जो पहले किसी और के नाम से छप चुकी थीं। एक बार तो बुद्धिजीवी को लगा कि वह भी इन्हीं पात्रों के सहारे कहानीकार बन जाए, लेकिन उनकी हालत देखकर लोभ लालच भूल गया। बुद्धिजीवी ने पहली बार किसी कहानी के बजाय कहानीकार के शव को कंधा दिया।

यह देखकर कहानीकार के पात्र खुश हुए कि उन्हें बुद्धिजीवी मुक्त करा देगा। सारे पात्र शमशानघाट की ओर इस आशा से रवाना हुए कि कहानीकार की अंतिम कहानी वहीं तय होगी। अब तक शव के रूप में कहानीकार को यह एहसास हो चुका था कि उसकी अंतिम यात्रा में कोई बुद्धिजीवी भी शरीक हुआ। जिज्ञासावश बुद्धिजीवी ने कहानीकार के शव को हिलाया, ‘कैसे और क्यों लिखते रहे इतनी कहानियां।’ किसी कहानी की तरह कहानीकार का शव भी भूमिका बांधने लगा, ‘देश और समाज के लिए मैंने लिखना शुरू किया। गहराई तक लिखा, आंसुओं में डूब कर लिखा। हर रूढि़ के खिलाफ, हर पीढ़ी के हिसाब से लिखा, लेकिन किसी ने पढ़ा नहीं। बाद में समझ आ गया कि कहानी को विवाद के सरोकारों, प्रकाशक के उपकारों, भाषा अकादमी के संस्कारों और समीक्षकों की कतारों में सफल होना होता है, इसलिए वह कहानीकार सफल है जो जुगाड़ से कहानीकार साबित भी हो।’ बुद्धिजीवी समझ गया कि कहानी लिखने के लिए बुद्धि का होना जरूरी नहीं, बल्कि प्रचारजीवी, जुगाडज़ीवी होना जरूरी है। कहानीकार का शव उठाना बुद्धिजीवी के लिए भी सम्मान की बात थी। वह कई कहानियों के पात्रों के साथ शमशानघाट पहुंचा था। कहानीकार और उसकी कहानियों को अमर बनाने के लिए उसने अधिकांश पात्रों को अपने साथ जोड़ लिया और कुछ को वापस लौटने की हिदायत दी। बुद्धिजीवी के रास्ते से अब कई पात्र लौट रहे थे। देखते ही देखते पात्र उससे दूर निकल गए और वह निपट अकेला उन कहानियों में खुद को ढूंढने लगा, जिनके कारण कहानीकार शव बन चुका था।

निर्मल असो

स्वतंत्र लेखक


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App