हमारा दर्द कितना समझ पाए गडकरी

मंत्री जी का आर्थिक मदद के लिए धन्यवाद करते हुए यह कहना जरूरी होगा कि यदि हिमालय में पर्वत विशिष्ट विकास मॉडल के अनुरूप निर्माण को जरूरी नहीं बनाया गया तो सारे प्रयास हिमालयी क्षेत्र में तबाही लाने वाले साबित हो सकते हैं…

जुलाई के दूसरे सप्ताह में ब्यास घाटी में आई भयानक बाढ़ ने पूरे प्रदेश को हिला दिया। हजारों करोड़ रुपए की आर्थिक हानि के साथ 100 से ज्यादा निरपराध लोग काल का ग्रास बन गए। आवागमन के साधनों के चौपट हो जाने और आसन्न खतरे की चिंताओं ने जन सामान्य के जीवन को सदमे जैसी स्थिति में ला खड़ा कर दिया। सैंकड़ों आशियाने ध्वस्त हो गए। इस विभीषिका को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग उठने लगी। इस बीच केन्द्रीय सडक़ एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जी हिमाचल में हुई तबाही का जायजा लेने ब्यास घाटी के दौरे पर आए। वह काफी शक्तिशाली मंत्री माने जाते हैं और हजारों करोड़ रुपए के बजट के वारे न्यारे करने की क्षमता रखते हैं। उनसे प्रदेश की जनता को बहुत उम्मीद थी कि वे अवश्य पूरी परिस्थिति का आकलन करने की दिशा में कोई सार्थक कदम उठाने की पहल करेंगे जिससे हिमालय क्षेत्र में सडक़ निर्माण में पर्यावरण मित्र समझ का समावेश हो सकेगा ताकि आगे चल कर हिमालयी क्षेत्रों में अवैज्ञानिक रूप से बनाई जा रही सडक़ों को उपयुक्त तकनीक से बनाने की दिशा में पहल हो सकेगी। सुना गया है कि गडकरी जी भूगर्भ विज्ञान की बुनियादी समझ भी रखते हैं, इसलिए यह अपेक्षा और भी बलवती हो गई थी। हिमालय की तासीर को पढऩा बिना भू वैज्ञानिक समझ के संभव ही नहीं है। किन्तु खेद है कि हमारी ये योजनाएं इंजीनियरिंग समझ से बनाई जाती हैं जो इस समझ पर कार्य करती है कि हमारे पास सभी निर्माण कार्यों में आने वाली समस्याओं के समाधान मौजूद हैं, किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है।

प्रकृति की अपनी चाल है और अपनी ताकत भी, जिसके सामने इन इंजीनियरों की गणनाएं ओछी पड़ जाती हैं। यह ब्यास घाटी की विभीषिका में उनकी बनाई फोरलेन की दुर्गति ने सिद्ध कर दिया। हमें सोचने पर मजबूर कर दिया कि यहां इंजीनियरिंग की समझ नाकाफी है और इसके अलावा भूगर्भ विज्ञान से जुड़े तत्व भी ध्यान देने योग्य हैं। यहां-वहां सडक़ निर्माण का मलबा किस तरह नदी तल के साथ ही खपाया गया, वह वैज्ञानिक सडक़ निर्माण जो हिमालय की जरूरतों के मुताबिक हो, इसकी बुनियादी समझ की भी अनदेखी करता प्रतीत होता है। अपनी गलतियों से सीखने के लिए पहले उनको मानना जरूरी होता है, किन्तु हम उसके लिए जरूरी नम्रता को शायद अपमान मानते हैं और इसलिए टाल मटोल करके निकल लेते हैं। ऐसे में आगे आने वाले समय में और भी बड़ी गलतियां करते जाने की संभावना बन जाती है। मंत्री जी चाहते तो इस विपरीतगामी प्रक्रिया को बदल सकते थे, किन्तु उन्होंने भी इंजीनियरिंग समझ से आगे जाने से इनकार कर दिया और जो सुझाव पेश किए उनका हिमालय की संवेदनशील परिस्थिति के प्रति जागरूक होने से कोई वास्ता दिखाई नहीं देता है। प्रेस वार्ता में हिमालय में गलत तरीके से संवेदनशील पहाडिय़ों से छेड़छाड़ का जिक्र तक नहीं किया गया। बल्कि नदी से सीधी लड़ाई मोल लेने का खतरनाक संकल्प उभरता दिखाई दिया।

पहाड़ी नदी के तटीकरण की बात तो कुछ हद तक समझ आती है, किन्तु उसे खोद कर गहरा करने की धारणा हिमालय के बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है। नदी का तल पत्थर, रोड़ी, बजरी, रेत की मोटी तह से ढका रहता है और नीचे की कच्ची मिट्टी को पानी की मार से बचा कर भूक्षरण को रोकता है। एक बार यदि नीचे की कच्ची मिट्टी सामने आ गई तो बाढ़ के पानी के कटान से गहरी होती जाएगी, जिससे नदी के किनारे लगे तट बंध भी गिर सकते हैं। नदी हमेशा घुमावदार होकर ही बहती है क्योंकि पानी कभी सीध में नहीं बहता है। उसको तटीकरण द्वारा यदि सीधा करने के प्रयास किये गए तो वह अपनी घुमावदार चाल को तट बांध तोड़ कर पुन: हासिल कर लेगा। इसके अतिरिक्त मुख्य प्रश्न यह भी है कि आखिर इतना मलबा नदी में आया कहां से। सडक़ निर्माण में अवैज्ञानिक डंपिंग के कारण ही यह मलबा आया। इस बात का जिक्र करने से क्यों बचा जा रहा है। इस गलती को समझे बिना हिमालय में जहां भी भारी निर्माण कार्य होंगे वहां इस तरह की तबाहियां होंगी। यह मानने के बाद ही हम बेहतर सडक़ निर्माण तकनीक जो हिमालय की नाजुक प्रकृति के अनुकूल होगी, उसके विकास की बात सोच सकेंगे। यही उम्मीद हमें गडकरी जी के आगमन से थी। तकनीकी विशेषज्ञों की कमेटी बना कर सुझाव लेने की बात तो कही गई है, किन्तु उनके लिए एजेंडा तो तय कर दिया गया है कि तटीकरण और खोलीकरण यानी दो-तीन मीटर खुदाई करके नदी को गहरा करना है। तो विशेषज्ञों का ध्यान तटीकरण और खोलीकरण को सफल बनाने की दिशा में रहेगा। कुछ नया सुझाव पर्वत विशिष्ट निर्माण के लिए निकल कर नहीं आ सकता। उसके लिए उन्हें स्वतंत्र सुझाव के लिए कहना पड़ेगा और वैसे विशेषज्ञ डालने पड़ेंगे। इंजीनियरिंग समझ से वैसे सुझाव आ ही नहीं सकते। मंत्री जी ने नुकसान की भरपाई के लिए मुक्त हस्त से सहायता देने के आशय की जो घोषणा की वह तो निश्चय ही स्वागत योग्य है किन्तु इस धन का प्रयोग हिमालय के अनुकूल तकनीक द्वारा किया जाना चाहिए। तभी टिकाऊ सडक़ निर्माण संभव होगा। हो सकता है कि इसके लिए कुछ अतिरिक्त धनराशि की आवश्यकता पड़े, जो दी जानी चाहिए, वरना साल दर साल तबाही से पीछा छूटने वाला नहीं है।

नदी किनारे भवन निर्माण और छोटी ग्रामीण सडकों द्वारा निर्माण के दौरान भी मलबा डंपिंग हर कहीं मनमाने तरीके से किया जा रहा है। इससे भी बड़ी तबाही हो रही है। थुनाग में हुई तबाही का यही कारण मुख्यत: सामने आया है। बांध प्रबन्धन में भी लापरवाही की अनदेखी नहीं की जा सकती है। निश्चय ही अचानक पानी छोडऩे के कारण बांध के नीचे के क्षेत्र में तबाही हुई। बाढ़ नियन्त्रण को प्रबन्धन की एक जिम्मेदारी बनाने की जरूरत है, जिसके लिए बांधों में बरसात से पहले बाढ़ के पानी को खपाने के लिए जगह खाली रखनी पड़ेगी। मंत्री जी का आर्थिक मदद के लिए धन्यवाद करते हुए यह कहना जरूरी होगा कि यदि हिमालय में पर्वत विशिष्ट विकास मॉडल के अनुरूप निर्माण को जरूरी नहीं बनाया गया तो सारे प्रयास हिमालयी क्षेत्र में तबाही लाने वाले साबित हो सकते हैं।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद


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