कनाडा की घरेलू राजनीति और भारत

सोवियत संघ के पतन के बाद ग्रामकी का यह सिद्धांत अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पुन: प्रकट होने लगा। लेकिन कल्चरल माक्र्सवाद के पैरोकारों को लगता है भारत इस क्रांति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। यह सनातन राष्ट्र हजारों सालों के झंझावातों को झेलता हुआ भी अपनी आत्मा या चिति को बचाए हुए है। यह गतिशील भी है और सनातन भी है। इसलिए जब तक भारत को विखंडित नहीं किया जाता, तब तक कल्चरल माक्र्सवाद का यह रथ दलदल से बाहर नहीं निकल सकेगा। शायद हमारे अपने उच्चतम न्यायालय में भी यह बहस शुरू हो गई है कि किसी के लिंग का निर्धारण करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं है। प्रोफेशनल आंदोलनकारियों की सहायता से भारत में अराजकता फैलाने का काम कुछ साल पहले अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में शुरू किया था। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार’ का नारा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से दिया गया था। सनातन को नष्ट करने का नारा उदयनिधि ने भीतर से लगाया है और भारत विरोधी ताकतों को हवा देने का काम ट्रूडो ने कनाडा के ओटावा से शुरू किया है। भारत को अब अवश्य ही जागना होगा…

पिछले दिनों कनाडा और भारत के संबंधों में तलखी आई है। वैसे विश्व राजनीति में कनाडा की कोई विशेष महत्ता नहीं है। लेकिन भारत और कनाडा के संबंध बहुत पुराने हैं, इसलिए यह तलखी चिन्ताजनक कही जा सकती है। कनाडा में इस समय लिबरल पार्टी ऑफ कनाडा (एलपीसी) की सरकार है। वहां के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो हैं। लेकिन लिबरल पार्टी के पास सरकार चलाने के लिए पूर्ण बहुमत नहीं है। उसे एक दूसरे राजनीतिक दल न्यू डैमोक्रेटिक पार्टी (एनडीपी) के समर्थन पर निर्भर रहना पड़ता है। एनडीपी के अध्यक्ष जगमीत सिंह हैं, जो कभी भारत से ही कनाडा गए थे और बाद में वहीं के नागरिक बन गए। एनडीपी के अतिरिक्त ट्रूडो की अपनी पार्टी एलपीसी में भी पंजाबी मूल के कुछ सदस्य हैं। भारत विरोधी शक्तियां पिछले कुछ सालों से पंजाबियों में से कुछ लोगों को भारत के विरोध में अपने लक्ष्य के लिए संगठित कर रही हैं।

कनाडा में भी ये प्रयास कुछ दशकों से चल रहे थे। कनाडा के कुछ राजनीतिक दल भी अपने स्थानीय राजनीतिक हितों के लिए इससे जुड़ गए। एलपीसी का नाम भी उन्हीं राजनीतिक दलों में आता है। कम से कम इस पार्टी पर नियंत्रण रखने वाले कुछ नेता तो जुड़ गए ही थे। इसके संकेत 1985 में एयर इंडिया जहाज को कनाडा के कुछ नागरिकों द्वारा बम से उड़ा दिए जाने के समय से ही मिलने शुरू हो गए थे। इसमें भारतीय मूल के कनाडा के सैकड़ों नागरिक मारे गए थे। लेकिन उस समय के कनाडाई प्रधानमंत्री पीअरे ट्रूडो जहाज को बम से उड़ाने वाले अपराधियों को सजा दिलवाने के बजाय उनको बचाने में ज्यादा रुचि ले रहे थे। यहां यह जानना रुचिकर होगा कि जस्टिन ट्रूडो उसी पीअरे ट्रूडो के पुत्र हैं। ट्रूडो परिवार ने कनाडा की राजनीति में उन दिनों से ही अपनी प्राथमिकताएं तय कर ली थीं। यदि ज्यादा गहराई से विचार किया जाए तो ट्रूडो की पार्टी का वैचारिक आधार कल्चरल माक्र्सवाद कहा जा सकता है। कल्चरल माक्र्सवाद स्थापित सामाजिक मूल्यों, संस्थाओं को समाप्त करना और अराजकता पैदा करना होता है। अराजकता से उत्पन्न शून्य में नए मूल्य रचना होता है। इटली के एक माक्र्सवादी चिन्तक एन्टोनी ग्रामकी ने यह सिद्धान्त अपने बन्दी काल में 1935 के आसपास स्थापित किया था।

ग्रामकी का कहना था कि कार्ल माक्र्स का यह सिद्धान्त कि दुनिया भर में मजदूर क्रांति करेंगे, ठीक नहीं है। यदि ऐसा होता तो रूस में 1917 की क्रान्ति के बाद दुनिया भर में क्रान्ति फैलनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ग्रामकी का मानना था कि रूस में भी क्रान्ति मजदूरों ने नहीं की थी। रूस में तो उस समय उद्योग नाम मात्र ही थे। वहां का समाज तो कृषि आधारित था। ग्रामकी की स्थापना थी कि रूस में लेनिन ने प्रोफेशनल क्रान्तिकारियों की सहायता से सत्ता परिवर्तन किया था जिसे मजदूरों की क्रान्ति कह कर प्रचारित कर दिया गया। यही कारण था कि क्रान्ति का यह रथ वहीं रुक गया था। ग्रामकी का कहना था कि क्रान्ति तो बुद्धिजीवी करते हैं। क्रान्ति के लिए पहले से स्थापित संस्कृति और जीवन मूल्यों को नष्ट करना होता है। यह इतना आसान नहीं होता। इसे विश्वविद्यालयों में बुद्धिजीवी ही कर सकते हैं। स्थापित संस्कृति और मूल्यों में परिवार सबसे पुरानी संस्था है। यदि परिवार समाप्त कर दिया जाए तो समाज में अराजकता फैल सकती है। लेकिन 2016 के बाद कल्चरल माक्र्सवाद के पैरोकार उससे भी आगे बढ़ गए।

उनका कहना है कि पिछड़ेपन की सबसे बड़ी निशानी लिंग या जैंडर है। मैं पुरुष हूं या स्त्री, इसका निर्धारण करने का अधिकार केवल मुझे है। यदि कोई दूसरा इसका निर्धारण करता है तो यह मेरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप है। अभी कुछ दिनों में कनाडा में बहुत बड़ा सम्मेलन होने वाला है जिसमें यह मांग की जा रही है कि माता-पिता जब अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाते हैं तो वे उसका लिंग निर्धारित नहीं कर सकते। इसलिए स्कूल में बच्चे को मेल या फीमेल न लिखा जाए। समझ आने पर बच्चा खुद यह निर्णय करेगा। ट्रूडो की पार्टी इस कल्चरल माक्र्सवाद की सबसे बड़ी समर्थक है। सोवियत संघ के समय तो ग्रामकी का यह सिद्धान्त हाशिए पर ही रहा। जर्मनी के फ्रांकफुरत स्कूल के माक्र्सवादियों ने इसे सैद्धान्तिक स्तर पर जरूर जिलाए रखा लेकिन जमीन पर यह पैर नहीं जमा सका। सोवियत संघ के पतन के बाद ग्रामकी का यह सिद्धान्त अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पुन: प्रकट होने लगा। लेकिन कल्चरल माक्र्सवाद के पैरोकारों को लगता है भारत इस क्रान्ति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। यह सनातन राष्ट्र हजारों सालों के झंझावातों को झेलता हुआ भी अपनी आत्मा या चिति को बचाए हुए है। यह गतिशील भी है और सनातन भी है। इसलिए जब तक भारत को विखंडित नहीं किया जाता, तब तक कल्चरल माक्र्सवाद का यह रथ दलदल से बाहर नहीं निकल सकेगा।

शायद हमारे अपने उच्चतम न्यायालय में भी यह बहस शुरू हो गई है कि किसी के लिंग का निर्धारण करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं है। प्रोफेशनल आन्दोलनकारियों की सहायता से भारत में अराजकता फैलाने का काम कुछ साल पहले अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली में शुरू किया था। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे हजार’ का नारा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से दिया गया था। सनातन को नष्ट करने का नारा उदयनिधि ने भीतर से लगाया है और भारत विरोधी ताकतों को हवा देने का काम ट्रूडो ने कनाडा के ओटावा से शुरू किया है। भारत को अवश्य ही जागना होगा। भारत सरकार ने कनाडा सरकार को कड़ा जवाब दिया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कनाडा अलग-थलग पड़ गया है। पश्चिमी देशों ने इस मामले में भारत का साथ दिया है और कनाडा को कड़ी फटकार लगाई है। यह भारतीय कूटनीति की बड़ी विजय है। इसी तरह हम भारत और सनातन विरोधी ताकतों को कड़ा सबक सिखा सकते हैं। भारतीयों को एकजुट होने की जरूरत है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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