आत्मा परमात्मा का अंश

By: Sep 23rd, 2023 12:14 am

श्रीराम शर्मा

आत्मा परमात्मा का अंश है। जिन भोगों से शरीर को आनंद मिलता है। उन्हीं से आत्मा को भी मिले आवश्यक नहीं। जिस क्षण से हम इस दुनिया में आते हैं, उससे लेकर मृत्यु तक आत्मा हमारे शरीर में उपस्थित है। शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों की क्षमता विशेषता एवं क्रियाकलाप के बारे में बहुत सी बातें जानते हैं और अधिक जानने का प्रयास करते हैं। लेकिन अपने ही अंदर छिपी आत्मा को जानने पहचानने समझने एवं विकसित करने की बात हम नहीं जानते। जीवन के समग्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह आवश्यक है कि हम शरीर एवं आत्मा दोनों के समन्वित विकास परिष्कार एवं तुष्टि पुष्टि का दृष्टिकोण बनाएं। एक को ही सिर्फ विकसित करें और एक को अपेक्षित करें ऐसा दृष्टिकोण अपनाने से सच्चा आनंद नहीं मिल सकता। सिर्फ आत्मा का ही परिष्कार एवं विकास करें और शरीर को उपेक्षित करें इससे भी अपना कल्याण नहीं हो सकता। उसी प्रकार जब आत्मा को कष्ट पहुंचता है तो मन दु:खी होकर शरीर को प्रभावित करता है। जिन्होंने अपनी आत्मा को दीन हीन स्थिति में रखा है और उसकी प्रचंड शक्ति से परिचित नहीं है वे मुर्दों जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर होते हैं।

वे शारीरिक सामथ्र्य रहते हुए भी बड़ी गई गुजरी स्थिति में रहते हैं और निराशा चिंता एवं निरर्थक जीवन बिताते रहते हैं। जबकि अपाहिज अपंग क्षीणकाय रुग्ण एवं दुर्बल व्यक्तियों ने भी अपने आत्मबल के द्वारा ऐसे कार्य संपादित किए हंै जिनसे वे इतिहास में अमर हो गए है। सैकड़ों लोगों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बने है। सच्चाई मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता है। इसके अभाव में जीवन हर ओर से कंटकाकीर्ण हो जाता है। क्या वैयक्तिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय। हर क्षेत्र में सच्चाई का बहुत अधिक महत्त्व है। व्यक्तिगत जीवन में मिथ्याचारी किसी प्रकार की आत्मिक उन्नति प्राप्त नहीं कर सकता, सामाजिक जीवन में अविश्वास एवं असम्मान का भागी बनता है और राष्ट्रीय जीवन में तो वह एक आपत्ति ही माना जाता है। संसार का एक अंग होने से मनुष्य का जीवन भी परिवर्तनशील है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा आदि का परिवर्तन। तृषा तृप्ति, काम, आराम, निद्रा, जागरण तथा जीवन-मरण के अनेक परिवर्तन मानव जीवन से जुड़े हुए हैं। इसी प्रकार सफलता-असफलता तथा सुख-दु:ख भी इसी परिवर्तनशील मानव जीवन का एक अभिन्न अंग हैं।

परिवर्तन जीवन का चिन्ह है। अपरिवर्तन जड़ता का लक्षण है। जो जीवित है, उसमें परिवर्तन आएगा ही। इस परिवर्तन में ही रुचि का भाव रहता है। एकरसता हर क्षेत्र में ऊब और अरुचि उत्पन्न कर देती है। बिना कठिनाइयों के मनुष्य का पुरुषार्थ नहीं खिलता, उसके आत्मबल का विकास नहीं होता उसके साहस और परिश्रम के पंख नहीं लगते उसकी कार्य क्षमता का विकास नहीं होता। यदि कठिनाइयां न आएं तो मनुष्य साधारण रूप से रेलगाड़ी के पहिये की तरह निरुत्साह के साथ ढुलकता चला जाए। उसकी अलौकिक शक्तियों, उसकी दिव्य क्षमताओं, उसकी अद्भुत बुद्धि और शक्तिशाली विवेक के चमत्कारों को देखने का अवसर ही न मिले। उसकी सारी विलक्षणताएं अद्भुत कलाएं और विस्मय कारक योग्यताएं धरती के गर्भ में पड़े रत्नों की तरह ही पड़ी-पड़ी निरुपयोगी हो जातीं।


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