जातियों का चुनावी सर्वे

By: Oct 4th, 2023 12:05 am

मंडल आयोग की सिफारिशों के 33 साल बाद ‘जातीय राजनीति’ का एक और दौर शुरू हुआ है। बिहार सरकार ने जातीय सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर ओबीसी और अति पिछड़ों के आरक्षण पर एक नई बहस छेड़ दी है। भारत सरकार ने 2021 की राष्ट्रीय जनगणना अभी तक नहीं कराई है। नतीजतन डाटा का जो ‘अधिकृत शून्य’ देश के सामने है, उसे राज्यों के ‘जातीय सर्वे’ नहीं भर सकते। बिहार के अलावा महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, ओडिशा और राजस्थान आदि राज्यों ने भी ऐसे सर्वे कराए हैं। ओडिशा ने पिछड़ी जातियों का आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण जारी भी कर दिया है। यदि जातीय सर्वे जारी ही नहीं किए गए और उनके मुताबिक पिछड़ी जातियों के विकास को न्याय नहीं दिया जा सका, तो फिर सर्वे बेमानी है। जातीय आरक्षण की अधिकतम सीमा निर्धारित है। आखिर सरकारें किन-किन जातियों को आरक्षण दे सकती हैं? नतीजतन ये कवायदें अराजकता के अलावा कुछ भी नहीं हैं। सर्वोच्च अदालत में बिहार के जातीय सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाएं अभी विचाराधीन हैं। संवैधानिक वैधता का फैसला आने से पहले ही सर्वे कराना और उसके नतीजों की घोषणा भी कर देना वाकई ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ है। सर्वोच्च अदालत ने इस सर्वे को ही खारिज कर दिया, तो बिहार के राजनीतिक दल ‘चुनावी प्रलाप’ के बजाय कुछ भी नहीं कर सकते। सर्वे में बिहार की आबादी 13 करोड़ से अधिक बताई गई है। राज्य में 53 जातियों की आबादी एक फीसदी से भी कम है। यानी सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि समुदायों का अस्तित्व ‘नगण्य’ है।

यादव 4 फीसदी से अधिक, दलित 5.5 फीसदी और मुसलमान 5 फीसदी से अधिक बढ़े हैं। सवर्ण जातियां 3 फीसदी से ज्यादा घटी हैं। बहरहाल इन निष्कर्षों के आधार पर खासकर बिहार सरकार क्या करेगी? इस सवाल का जवाब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भविष्य पर टाल दिया है। इस सर्वे को बिहार का सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक सर्वेक्षण भी नहीं माना जा सकता। बिहार देश के सबसे गरीब राज्यों में दूसरे स्थान पर है। लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री के तौर पर 15 साल बिहार में शासन किया है। आज भी उनके सुपुत्र तेजस्वी यादव राज्य के उपमुख्यमंत्री हैं। नीतीश कुमार करीब 18 सालों से मुख्यमंत्री हैं। पिछड़ी जातियों का विकास न तो याद रहा और न ही ऐसे सर्वे कराए गए। बिहार के पास आर्थिक संसाधन ही बेहद सीमित हैं। वंचित, दलित, महादलित, पिछड़ों, अति पिछड़ों और हाशिए पर पड़ी जातियों के लिए कब योजनाएं बनेंगी और उनकी भागीदारी आबादी के मुताबिक तय की जा सकेगी? दरअसल जातीय जनगणना या सर्वे का शिगूफा आजकल विपक्षी गठबंधन के दलों ने छेड़ रखा है। यह सर्वे भी चुनावी है। अति पिछड़े और ओबीसी के वोट बैंक मोदी कालखंड में भाजपा से जुड़े हैं। 2019 के आम चुनाव में करीब 44 फीसदी ओबीसी वोट भाजपा को मिले थे। विपक्ष इस वोट बैंक को छीनना चाहता है, लिहाजा यह प्रचार भी अभी से किया जा रहा है कि यदि 2024 में ‘इंडिया’ गठबंधन की सरकार बनी, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना कराई जाएगी।

बिहार का यह प्रयोग उन राज्यों में विपक्ष प्रचारित करेगा, जहां भाजपा-शासित सरकारे हैं और जातीय सर्वे नहीं कराए गए। बिहार में ओबीसी 63 फीसदी और अति पिछड़े 36 फीसदी बताए गए हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2007 में दलितों के अलावा ‘महादलित’ समुदाय भी प्रचारित किया था। सत्ता के इन 16 सालों में ‘महादलितों’ के लिए क्या किया गया, नीतीश कुमार इसका भी खुलासा करें। जातीय सर्वे का हश्र भी, कमोबेश 2024 के आम चुनाव के बाद, यही होना है, क्योंकि नीतीश-तेजस्वी सरकार बयानबाजी के अलावा कुछ और नहीं कर सकते। कमोबेश यही बता दें कि आरक्षण की जमात में करोड़ों लोग आते हैं। किस-किसको आरक्षण देगी सरकार? ऐसा नहीं है कि भाजपा जातियों की राजनीति नहीं करती, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में राम मंदिर और महिला आरक्षण के साथ-साथ विकास के मुद्दे पर ही वह चुनाव में उतरेगी। विपक्ष क्या पिछड़ों के विमर्श पर ही भाजपा के खिलाफ चुनाव लडऩा चाहेगा, यह आने वाले कुछ दिनों में बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा। अगर इस विषय पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचार देखे जाएं तो उन्होंने कहा है कि विपक्ष विकास विरोधी है जो जातियों के आधार पर देश में विभाजन पैदा कर रहा है।


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