हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा 29

By: Oct 28th, 2023 7:16 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-29

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
कहानीकार ने नरेन के कार्यालय के संदर्भ में यह उद्घाटित किया है कि आज के समय में एक ईमानदार कर्मचारी का अधिकारी शोषण करते हैं तथा जो अधिकारियों की चापलूसी करते हैं और रिश्वतखोरी में संलिप्त रहते हैं, वे भ्रष्ट अधिकारियों के कृपापात्र बने रहते हैं। वे सभी सुविधाओं का उपभोग करते हैं। कहानी में नरेन जैसे ईमानदार कर्मचारी और रमन जैसे चापलूस कर्मचारियों का चित्रण है। नरेन अनुभव करता है ‘जब से इस दफ्तर में आया है, काफी तकलीफ में है। उसे लगता है उसके साथ मानसिक बलात्कार किया जा रहा है।’ ‘रैक’ शीर्षक कहानी में पति-पत्नी और उनके बेटा और बेटी का परिवार है। पति-पत्नी के मध्य परस्पर सामंजस्य का अभाव है। यह संबंध ऋण की भांति निभाया जा रहा है। पत्नी का अहंकार और संतति की संस्कारहीनता के कारण पति उपेक्षा और अपमान का शिकार है। इसलिए परिवार में अपनी स्थिति के संबंध में वह सोचता है ‘उसे लगता है यह घर या दफ्तर की स्थापना शाखा जैसा है जहां प्रत्येक कर्मचारी अपना-अपना पक्ष हर समय तैयार रखता है। कई बार वह ऐसी स्थिति में स्वयं को बेकार समझने लगता है, अवांछित स्थल’। वह समझता है कि वह सब जगह सफल है परंतु अपने घर में उतना ही असफल है। परिवार में अपनी उपेक्षित स्थिति को अनुभव करके उसे लगने लगता है ‘वह घर एक छह भाई तीन के रैको से अटा पटा है और वह रोज अपने खांचे में बैठ जाता है।’ इस प्रकार प्रस्तुत संग्रह की कहानियां आधुनिक समय में दांपत्य संबंधों की दरकन और विघटन के कारणों की तलाश करती हैं। आधुनिकता की दौड़ और प्रदर्शन वृत्ति ने व्यक्ति को घोर स्वार्थ के घेरे में आबध किया है, इसलिए संबंधों में स्नेह, सम्मान और संस्कार के सूत्र क्षीण हुए हैं। कहानियां दाम्पत्य संबंधों के सूक्ष्म तंतुओं को परत दर परत उद्घाटित करती हैं और संबंधों के यथार्थ को सामने लाती हैं। बद्री सिंह भाटिया की ये कहानियां अनुभव क ताप से नि:सृत हंै। संरचना, स्वरूप और शिल्प स्तर पर परिपक्व और सृजनात्मकता की द्योतक हैं। कहानियों की भाषा सरल, सहज, पारदर्शी और पात्रानुकूल है।

उषा दीपा मेहता का प्रथम कहानी संग्रह ‘उसके हिस्से का धरातल तथा अन्य कहानियां’ (1992) शीर्षक से प्रकाशित है। इससे पूर्व उनकी कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। संदर्भित कहानी संग्रह में बारह कहानियां- घर का कुरुक्षेत्र, मुझे माफ कर दो दीदी, खामोश प्यार, रिश्ते, धरातल हीन, टूटते बंधन, सिसकते सपने, टूटी भाग्य रेखाएं, मैं लौटना चाहती हूं, उसके हिस्से का धरातल, परिवर्तन और ममता की सलीब संगृहीत हैं। ‘घर का कुरुक्षेत्र’ में एक दुव्र्यसनी मद्यपी पति के तानाशाही और नृशंस व्यवहार से उत्पीडि़त पत्नी और पांच बच्चों की दुर्दशा का चित्रण है। पत्नी जीवन भर मौन होकर उत्पीडऩ सहती है। परंतु जब वह पत्नी की विवाह की साड़ी को बेचकर नशे में घर आता है तो पत्नी में विद्रोह का स्वर प्रस्फुटित होता है और पति चूल्हे की लकड़ी से प्रहार करने को उद्यत होता है। बेटी और बेटा पिता का हाथ पकड़ कर विरोध में खड़े होते हैं जिसके परिणामस्वरूप समय के साथ उसका शंहशाही हुक्म और एहसानों के बोझ का वह रोबीला रोब-दाब कहीं खो जाता है।

कहानी के अंत में कहानीकार ने यह दिखाया है कि पिता की नृशंसता की भांति बाद में पुत्र भी पिता के ही कदमों पर चलने लगते हैं। परंतु नई पीढ़ी की बहुएं मां की भांति पति के अत्याचारों को मूक होकर सहन नहीं करती, वह उनका प्रतिकार करती है। कहानी के अंत में विद्रोह करने वाली साहसी बेटी का कथन है ‘पापा थके थके बुझे बुझे उसे अपने द्वारा शुरू किए महाभारत को चुपचाप देखते हैं और ठंडी आहें उगलते हैं। शायद अपने को इस धुएं में छुपने के लिए या अपने गिर्द भ्रम की दीवार खड़ी करने के लिए।’ कहानी में दादी, मां और बेटी का चरित्र आकर्षित करता है। ‘मुझे माफ कर दो, दीदी’ में भाई का पत्र अपनी उस बहन के प्रति है जिसने मां की बीमारी में मां की भांति उसे प्यार दिया था। उस बहन पर वह पापा को लेकर लांछन लगाकर अपराधग्रस्त होता है। अंतत: प्रायश्चित के रूप में घर छोड़ कर चली गई बहन के प्रति पत्र लिखता है। पत्रात्मक शैली में लिखी इस कहानी में बड़ी बहन के परिवार के लिए किए गए त्याग और कष्टों का उल्लेख है, यह एक मार्मिक कहानी है। ‘खामोश प्यार’ रोमांटिक रेशों से बुनी कहानी है। इसमें यह प्रतिपादित किया है कि वय: संधि काल का अव्यक्त प्रेम कई बार जीवन भर साये की भांति साथ रहता है। कहानी में शाम और राधा का ऐसा ही अव्यक्त प्रणय है। राधा विवाह के अनंतर भी अपने पति में शाम को तलाशती रहती है और शाम जीवन भर अविवाहित रहकर राधा को विस्मृत नहीं कर पाता। वह जीवन भर राधा से दूर रहकर भी उसकी स्मृतियों में एकाकी जीवन बसर करता है। ‘रिश्ते’ संबंधों पर केंद्रित कहानी है जिसमें मनीष, विशाल, शंकर, अनुपम, अंजना आदि चरित्र हैं। शंकर के माध्यम से नर पिशाच के घिनौने चरित्र को उभारा है जो पत्नी और घर में आमंत्रित वर्षों से परिचित युवती को दूध में नशे की गोली डालकर उससे बलात्कार करता है।

‘टूटते बंधन’ में कहानीकार ने मधु और मधुकर के प्रेम संबंध और अंतर्जातीय विवाह के द्वारा जाति और दहेज की दीवारों के बंधनों के टूटने का चित्रण है। ‘ममता की सलीब’ बहुआयामी कहानी है। इसमें अभावग्रस्त मजदूरों के शोषण, उत्पीडऩ और उनकी विवशताओं का चित्रण है। धन संपन्न दंपति अपने वंश को चलाने के लिए कुंवारी मजदूर युवती से देह संबंध स्थापित कर बेटे को जन्म देते हैं। पति बांझ पत्नी के परामर्श के अनुसार ऐसा करता है। पति मजदूर युवती को विवाह का झांसा भी देता है। परंतु पुत्र उत्पन्न होने पर युवती को अपने ही पुत्र से दूर रहने के लिए कहा जाता है। उसे यह भी कहते हैं कि वह किसी को यह नहीं बताएगी कि वह उसका पुत्र है। नारी शोषण के इस नए रूप में मां की ममता की हत्या का मार्मिक चित्रण है।

‘परिवर्तन’ में प्रतिपादित किया है कि भौतिकतावादी दृष्टिकोण के कारण पद, प्रतिष्ठा, धन, पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव आदि से शैशव काल से विकसित प्रेम और आत्मीयता के संबंध किस प्रकार अचानक परिवर्तित हो जाते हैं, इसे विदेश से लौटे शंकर और उसकी विदेशी पत्नी के संदर्भ में निरूपित किया है। ‘उसके हिस्से का धरातल’ में शिवानी के डॉ. उमेश से प्रेम संबंध का चित्रण है। उसे बाद में ज्ञात होता है कि उससे प्रेम करने वाला उमेश विवाहित होने के साथ एक बच्चे का पिता भी है। डॉ. उमेश के प्रेम में डूबने वाली युवती सोचती है ‘उसे क्या मालूम था कि डॉक्टर मैरिड है, वह क्यों भूल गई कि जिस धरा पर वह अपना हक समझने लगती है, वह किसी और की धरा है।’ उषा दीपा मेहता की ये कहानियां पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर मानवीय संबंधों के रंग रेशों से निर्मित कहानियां हैं। प्रेम, दांपत्य जीवन के अभाव, पति-पत्नी की टकराहटों और उनके मध्य उपजती कभी प्रेम तो कभी अलगाव की संवेदना मुखरित हुई है। कुछ कहानियां प्रेम के भावात्मक पक्ष को मार्मिकता से उभारती हैं, कुछ कहानियां पारिवारिक रिश्तों में आई स्वार्थ केंद्रिता को अनावृत करती हैं। इन संबंधों की तह में प्रवेश करके उनका मनोवैज्ञानिक चित्रण कहानीकार उषा दीपा मेहता ने जीवंतता से किया है।

नरेश पंडित का ‘मांस भात’ शीर्षक से पहला कहानी संग्रह सन् 1994 में प्रकाशित हुआ है। इसमें उनकी सोलह कहानियां- बोरी भर मछली, छुनकी, नीली घाटी में खुलती आंख, चट्टान, पहाड़ का दुख, झुनझुना, पूर्णमासी, ढाई आखर, नाग धार के जंगली फूल, इक्कीस तोले सोने का सत्य, काला नाग, कथा एक डुमणु की, बूढ़ा पीपल, हांडी मीट, घालू और मांस भात संगृहीत हैं। नरेश पंडित की इन कहानियों में सामाजिक व्यवस्था में अंतर्संबंधों की पड़ताल की गई है। उनकी कहानियों में एक ओर निम्न मध्य वर्ग के हाशिए के समाज के चरित्र हैं तो दूसरी ओर धन संपन्न वर्ग के चरित्र विद्यमान हैं। कहानियों की वस्तु इन्हीं चरित्रों के इर्द-गिर्द विन्यस्त है। शोषक और शोषित वर्ग के मध्य की टकराहट और द्वन्द्व इन कहानियों में उभरा है।

सामंतीय और पूंजीवादी मानसिकता के चरित्रों के शोषण और उत्पीडऩ को सहन करते हुए शोषित वर्ग के चरित्र उनके विरोध में खड़े होते हैं। ग्रामीण परिवेश से विन्यस्त इन कहानियों में अंधविश्वासों, बाह्याडंबरों में पिसते निरीह असहाय वर्ग की पीड़ा और शोषण के रूप इनमें मुखरित हुए हैं। नारी और दलित समाज की पीड़ा इन कहानियों में प्रमुख रूप में व्यंजित हुई है। संदर्भित संग्रह की ‘पूर्णमासी’, ‘चट्टान’, ‘बूढ़ा पीपल’, ‘नागधार के जंगली फूल’ में ग्रामीण समाज में व्याप्त अंधविश्वासों में पिसते समाज की पीड़ा की व्यंजना है। ‘पूर्णमासी’ कहानी में रुक्मणी अपनी मां के अंधविश्वासों के कारण एक मल्ल के बलात्कार की शिकार होती है। ‘चट्टान’ कहानी श्राद्धों में पूर्वजों को दिए जाने वाले अन्न भोजन आदि से जुड़ी अंधश्रद्धाओं और पुरोहित तंत्र की लोलुपता को अनावृत्त करती है। ‘बूढ़ा पीपल’ कहानी में रतनू और बंतो का दलित परिवार है। रतनू जंतर मंतर टुणे टोटके का बड़ा पाठी है। वह बूढ़े पीपल के पास अमावस्या की रात को उपस्थित होता है। लोगों का विश्वास है कि पीपल में बैठे भूत का उसे ही पता है। परंतु रतनू की पत्नी हमेशा कहती है कि ऐसे जादू टोने का क्या फायदा जो घर का चूल्हा न जला सके, रोटी तो आग पर पकती है, ऐसे जंतर मंतर से नहीं। प्रस्तुत कहानी में उनके पुश्तैनी व्यवसाय का चित्रण और वृद्धावस्था की ओर बढ़ती उम्र के परिणामस्वरूप घोर दारिद्रय और असहाय स्थिति का निरूपण है। रतनू और बंतो की कुंवारी बेटी के गर्भवती होने से उत्पन्न संकट, अपमान और उनके अंतर्मन के द्वंद्व को कहानीकार ने गहरी पैठ से उभारा है।

‘छुनकी’ शीर्षक कहानी में दलित कन्या के ब्राह्मणों के कुएं में गिरकर मर जाने से ब्राह्मण समाज के अहंकार और धर्म भ्रष्ट होने के तर्कों का चित्रण है। ‘नागधार के जंगली फूल’ में गांव में पंचायत के चुनाव में भ्रष्ट ठेकेदार और पुरोहित मिलकर चुनाव में लोगों को मांस भात की धाम देकर अपने पक्ष में करना चाहते हैं, परंतु पढ़ा लिखा युवक प्रधान पद का उम्मीदवार बनकर जीत हासिल कर लेता है। ‘हांडी मीट’ में एक ऐसे सामंतीय चरित्र की सृष्टि है जो प्रतिदिन हांडी में पके मीट का भक्षण करता है। उसका यह सामथ्र्य जन शोषण का परिणाम है। ‘मांस भात’ शीर्षक कहानी में ग्रामीण समाज के घोर दारिद्रय और बेकारी का चित्रण है। शंकर, रम्भो, दयाल मंगलू आदि शोषित वर्ग के चरित्र हैं जिन्हें दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए मजदूरी करने का भी काम नहीं मिलता। दयाल जैसे निर्धन युवक खून बेचने चले जाते हैं। शंकर मंत्री के गांव में आने पर अपनी व्यथा सुनाने और रोजगार के लिए प्रार्थना करने जाता है, परंतु मंत्री के लिए आयोजित मांस भात की धाम का वह भी आनंद लेता है और मंत्री उसके हालचाल के लिए पीठ थपथपता है तो वह उस सम्मोहन में भूल जाता है कि वह मंत्री के पास किस उद्देश्य से आया है।                                                                                                                -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : सुंदर कविताओं का गुलदस्ता

कृष्णा बंसल का काव्य संग्रह ‘छोटी दुनिया बड़ी दुनिया’ सुंदर कविताओं का गुलदस्ता है। इस संग्रह में 37 कविताएं संकलित हैं। रूपा पैकेजिंग इंडस्ट्रीज, अंबाला छावनी से प्रकाशित इस कविता संग्रह का मूल्य 350 रुपए है। इस संग्रह के बारे में कवयित्री स्वयं कहती हैं, ‘कहीं पढ़ा था, पद्य लिखने के लिए दिल, लेखों के लिए दिमाग और कथा-कहानी के लिए दोनों की आवश्यकता होती है। मेरी सभी कविताएं, दिल की गहराइयों से उपजी सौंदर्य भावना, प्रकृति प्रेम, समाज में विद्यमान कुरीतियों व विसंगतियों को दर्शाती और उनका समाधान बताती, वर्तमान में नारी की स्थिति का वर्णन करती नजर आती हैं। इसके अलावा आत्मानुभूति, करुणा, वेदना, अतृप्ति, संवेदना आदि सभी भावों को इन कविताओं में महसूस किया जा सकता है।

मैं कह सकती हूं, मेरी कविताएं किसी विशेष सूत्र में नहीं बांधी जा सकती। जो मन में विचार उठा, ज्यों का त्यों उन्हें शब्दों रूपी मोतियों की माला में पिरो दिया।’ कविता ‘छोटी दुनिया बड़ी दुनिया’ की पंक्तियां देखिए- ‘ये ईश्वर ने रचे/या उसका प्रतिरूप हैं/नहीं जानती/इतना तो जानने लगी हूं/दिखने वाली दुनिया/कितनी छोटी/सुनने व समझने वाली दुनिया/कितनी बड़ी/जिसका रास्ता वर्ण और/स्वर से होकर गुजरता है।’ आग नामक कविता में अग्नि की विकरालता देखिए- ‘आज सुबह उठते ही/पहली खबर मिली/बस स्टैंड के पास वाली/झुग्गी झोपडिय़ों में/कल रात आग लग गई/देखते ही देखते/वहां लोग एकत्र हो गए/दृश्य दहला देने वाला था/सब कुछ जलकर/स्वाह हो गया था।’ साडिय़ां नामक कविता में साड़ी की विशेषता देखिए- ‘शादी की साड़ी/सुर्ख लाल रंग की/गोटे किनारी वाली/सुच्चे मोती जड़ी/जिसे पहन कर मैं स्वयं ही/अपने रंग रूप पर/मोहित हो गई थी।’ इसी तरह ‘दो जून की रोटी’ में यह देखिए कि रोटी कमाने के लिए क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं, ‘दो जून की/रोटी के लिए/क्या क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं/हम सब जानते हैं/आप चाहे अमीर हों या गरीब/लगातार प्रयत्न करने पड़ते हैं।’ इस कविता संग्रह की अन्य कविताएं भी विभिन्न भावों को अभिव्यक्त करती हैं तथा पाठकों का दिल अपनी ओर आकर्षित करती हैं। आशा है यह संग्रह पाठकों को जरूर पसंद आएगा।                                                                            -फीचर डेस्क

मूल्यांकन : आज़ादी की जंग में ज़ब्ती साहित्य की गाथा

राजेंद्र राजन
मो.-8219158269

लखनऊ से प्रकाशित होने वाली ‘उत्तर प्रदेश’ पत्रिका का हाल ही मैं ज़ब्तशुदा साहित्य विशेषांक प्रकाशित हुआ है। 340 पृष्ठों के आर्ट पेपर पर बेहद खूबसूरत लेआऊट और डिज़ाइनिंग में तथा खोजपूर्ण सामग्री ने इस विशेषांक को यादगार व संग्रहणीय दस्तावेज बना दिया है। प्राय: सरकारी संस्थानों से छपने वाली पत्रिकाओं की चर्चा मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं में बिरले ही होती है। कारण, उन्हें सरकारी प्रचार-प्रसार के ‘टूल’ के रूप में ही देखा जाता है। इस मायने में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग उत्तर प्रदेश के तत्वावधान में छपने वाली मासिक पत्रिका ने देशभर के लेखकों व पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। खूब शोध व श्रम से जुटायी गयी सामग्री ऐतिहासिक दस्तावेज से कमतर नहीं है। बहरहाल विशेषांक के अतिथि संपादक विजय राय अपने संपादकीय में लिखते हैं, ‘लम्बी लड़ाई और तमाम कुर्बानियों के बाद जब भारतवासियों ने अंग्रेज़ों को यहां से खदेड़ा तो भागते वक्त उनके आलाकमानों को यह बात सता रही थी कि अपनी चीज़ों को वे कैसे और यहां के सभी दस्तावेजों को बटोर कर अपने साथ ले जायें? ब्रिटिश राज में तमाम जबत की गयीं पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें आदि वे अपने साथ ले गए। यह विशेषांक कई खंडों में विभाजित है। यानी ज़ब्त कहानियां, जब्त पुस्तकें, ज़ब्त कविताएं, जब्त पत्रिकाएं, ज़ब्त इतिहास, ज़ब्त उपन्यास, संस्मरण, आत्मकथा, व्यंग्य आदि कोई भी साहित्य, पत्रकारिता, कला अथवा लेखन की विधा ऐसी नहीं है जिस पर विशेषांक में श्रमसाध्य शोध के बाद सामग्री न जुटायी गयी हो।

सुधीर विद्यार्थी लिखते हैं, ‘चांद’ पत्रिका के फारसी अंक ने अंग्रेज़ी हुकूमत की ज़ड़ें हिला दी थीं। निश्चय ही स्वतंत्रता संग्राम के दौरान युद्ध और उसकी प्रेरक शक्तियों का यह ऐसा अनोखा दस्तावेज था जो भविष्य के संग्राम के दरवाजे खोलता था। राम रख सिंह सहगल ने ‘चांद’ का पहला अंक 18 मार्च 1929 को इलाहाबाद से प्रकाशित किया था। 3 दिन बाद ही सरकार ने इसकी प्रतियां ज़ब्त कर लीं। गांधी ने यंग इंडिया में इसे ‘दिन दहाड़े डाके’ की संज्ञा दी थी। ‘चांद’ पत्रिका के फांसी अंक का संपादन आचार्य चतुरसेन ने किया था। इसमें कुछ लेख भगत सिंह के भी थे। इसे भी ज़ब्त कर लिया गया था। अवनीश यादव ने अपने लेख में महारथी पत्रिका का जि़क्र किया है। इसके संपादक रामचन्द महारथी व अन्य थे। लाला लाजपत राय की हत्या के बाद 7 दिसम्बर 1928 में ‘खूने लाजपत’ अंक निकाला जो अंग्रेजों को ना$गवार गुजरा व उसे ज़ब्त कर लिया गया। लाला लाजपत राय पर केन्द्रित यह अंक ब्रिटिश हुकूमत की कार्यशैली के $िखलाफ भारतीयों के संघर्ष व स्वराज के स्वप्न का बहुमूल्य दस्तावेज था। लाजपत राय की शहादत से गांधी और नेहरू भी क्षुब्ध थे। उन्होंने महारथी अंक की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। ‘हिन्दू पंच’ पत्रिका का प्रकाशन 1926 में कलकत्ता से शुरू हुआ था। इसके संपादक ईश्वरी दत्त शर्मा थे। पहली जनवरी 1930 को इसका बलिदान अंक छपा। हुकूमत का मत था कि ‘हिन्दू पंच’ पत्रिका भारतीयों में त्याग, राजनीतिक समझ और बलिदान की भावना को प्रेरित करने में सही दिशा दे रही है। इसे ज़ब्त कर लिया गया। टैगोर जब 1930 में सोवियत संघ पहुंचे तो वे वहां की शिक्षा व्यवस्था, सामूहिक खेती एवं व्यक्तिगत प्रतिभा के विकास को देखकर दंग थे। यह संस्मरण जब ‘रूस की चिट्ठी’ नामक श्रृंखला से कलकत्ता की ‘मार्डन रिव्यू’ पत्रिका में बांगला अनूदित होकर अंग्रेज़ी में छपा तो अंग्रेजी हुकूमत में तिलमिलाहट पैदा हुई।

वे यह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे कि बीसवीं सदी का एक महान लेखक टैगोर साम्यवाद का प्रचार करे? 1934 में ‘मार्डन रिव्यू’ की सभी प्रतियां जब्त कर ली गयीं। फिर शचीन्द्र सान्याल की बन्दी जीवन पुस्तक, जो 1922 में प्रकाशित हुई थी, को भी नप्ट कर दिया गया। सन् 1860 में दीन बन्धु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ जो ढाका से छपा था, की परफारमेंस पर रोक लगा दी गयी। लेखक को एक माह का कारावास और अर्थ दण्ड भी दिया गया। वामपंथी विचारधारा की पत्रिका ‘न्यू इंडियन लिटरेचर’ पर भी गाज़ गिरी। प्रगतिशील लेखक संघ की पत्रिका ‘न्यू इंडियन लिटरेचर’ में मुन्शी प्रेमचन्द के अलावा अनेक प्रोगैसिव विचारधारा के लेखकों की कहानियां प्रकाशित हो रही थीं। इसमें कवि भी शामिल थे। इनमें टैगोर, इकबाल, सागर निज़ामी जां निसार अख़्तर, अशफाक उल्ला खां, अली सरदार जाफरी, राम प्रसाद बिस्मिल, सोहन लाल द्विवेदी शामिल थे। जोश मलीहाबादी और साहिर लुधियानवी की शायरी और कविताओं पर भी प्रतिबन्ध लगे। खूब चर्चित किस्सा मुन्शी प्रेमचन्द के कहानी संग्रह ‘सोज़े वतन’ का है। यह 1908 की घटना है जब इस संग्रह की छह उर्दू में लिखी कहानियों में से एक कहानी ‘यही मेरा वतन’ और दूसरी ‘शेख म$खमूर’ अंग्रेज़ों को ना$गवर गुजरी। प्रेमचन्द को कोर्ट में माफीनामा पेश करना पड़ा और सोज़े वतन की 400 प्रतियों को जलाना पड़ा। इस घटना के बाद प्रेमचन्द ने उर्दू से किनारा कस्सी कर ली और उर्दू में अपने लेखकीय नाम ‘नबाव राय’ को त्याग कर हिन्दी भाषा में लेखन को गले लगा लिया। मुन्शी प्रेमचन्द के नाम से। इस विशेषांक में शरत चन्द्र पर विष्णु प्रभाकर का भी लेख है। शरत के उपन्यास ‘पथेर-दावी’ को भी ज़ब्त कर लिया गया था। इसमें ब्रतानी सरकार की कटु आलोचना थी। क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये भारतीयों को उकसाया गया था। आमतौर पर शरत चन्द को पाठक उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘देवदास’ के लिये जानते हैं लेकिन 1926 में छपे ‘पथेर-दावी’ के बारे में पाठक अनभिज्ञ रहे हैं। बहरहाल, ज़ंगे आज़ादी में ऐसे लेखकों का भी वही स्थान है जो सत्याग्रह करने वालों, आंदोलनों में बढ़-चढक़र भाग लेने, जेल जाने और यातनाएं सहने वाले सेनानियों का रहा है। मगर हाशिए पर धकेल दिये गये लेखक समाज की सुध कौन लेगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

कविता : चार औरतें
महिला आयोग के दफ्तर
की सीढिय़ों पर
बैठी हैं चार औरतें
अपनी कांख में दबाए
पीड़ाओं की पोटली।
ये औरतें आपस में
सहेलियां नहीं हैं
इनमें रिश्तदारियां भी नहीं
फिर भी
इनके दु:ख एक से
आंसू एक से
उलझनें एक सी
कुछ डरी डरी सी
कुछ बिखरी बिखरी सी
इनके चेहरे बह गए हैं
वक्त के सैलाब में
वक्त कटी के लिए
सिर से सिर भिड़ाये
फुसफुसाते हुए आपस में
बांट रही हाड़बीतियां
दर्द की चादर में लिपटी
न्याय की आस की
डोर में बंधी
कर रही इंतजार
महिला आयोग के
दफ्तर खुलने का।
                                                                                                                                                                      -सरोज परमार


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