गुज्जर और गोजरी भाषा व मजहब का सवाल

दरअसल पाकिस्तान सरकार वहां की स्थानीय भाषाओं को समाप्त करने का प्रयास करती रहती है। वहां गोजरी की स्थिति ठीक नहीं है…

गुज्जर जिसे संस्कृत में गुर्जर कहा जाता है, जितना प्राचीन शब्द है, उतना ही प्राचीन इनका इतिहास है। गुजरात और राजस्थान से इनका इतिहास जुड़ा हुआ है। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, जम्मू और कश्मीर में जितने गुज्जर समुदाय के लोग हैं, वे सभी किसी न किसी समय राजस्थान से ही चल कर इन स्थानों पर पहुंचे थे। मोटे तौर पर गुज्जर पशुओं का पालन करते हैं। उनको लेकर निरन्तर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं। लेकिन इतने वर्षों में गुज्जर जन-समुदाय के कुछ लोगों ने घुमक्कड़ी का जीवन छोड़ कर स्थायी तौर पर भी रहना शुरू कर दिया है। स्थायी तौर पर रहने वाले गुज्जरों को मुकामी गुज्जर भी कहा जाता है। मुकामी गुज्जर जरूरी नहीं कि पशुपालन का धन्धा ही करते हों। वे अन्य व्यवसायों में भी चले गए हैं। जम्मू और कश्मीर में जो गुज्जर बकरियों का पालन करते हैं, उन्हें बकरवाल भी कहा जाता है। जो गुज्जर वनों में रहकर गाय-भैंस का पालन करते हैं, उन्हें वनगुज्जर या बनिहारा गुज्जर भी कहा जाता है। गुज्जर अपनी वंश परम्परा भगवान कृष्ण से जोड़ते हैं क्योंकि वे भी गोपालक कहे जाते हैं।

गुज्जरों के लोकगीतों में भी अनेक जगह इसका जिक्र आता है। जम्मू कश्मीर में गुज्जरों की जनसंख्या 1941 की जनगणना के अनुसार 381457 थी। 1951 में जम्मू कश्मीर में विपरीत परिस्थितियों के कारण जनगणना नहीं हो सकी। 1961 में जनगणना तो हुई लेकिन उसमें गुज्जरों को प्रदेश के अन्य मुसलमानों, जिनमें अशरफ और अलजाफ दोनों ही शामिल थे, में ही डाल कर, मुसलमानों की गणना की गई। गुज्जरों ने इसका विरोध भी किया और यह आरोप भी लगाया कि गुज्जरों की गणना मुसलमानों में कर, उनकी पहचान को समाप्त करने का परोक्ष षड्यन्त्र है। जनगणना विभाग की रपटों के अनुसार जम्मू कश्मीर में गुज्जर-बकरवालों की संख्या घटती जा रही है। जम्मू कश्मीर के अधिकांश बुद्धिजीवी यह मानते हैं कि गुज्जरों की संख्या कम होते जाने का कारण जनगणना का तरीका है। गणना, बोली जानी वाली भाषा के आधार पर की जाती है। अनेक बार मुकामी गुज्जर, जो अपनी बोलचाल की गोजरी भाषा को प्रयोग में नहीं लाते, वे अपनी बोलचाल की भाषा को ही मातृभाषा लिखवा देते हैं। इसलिए प्रदेश में गुज्जरों की सही संख्या जानने के लिए, उनकी गुज्जर के नाते गणना करनी पड़ेगी, मजहब के नाम पर नहीं। जम्मू कश्मीर में गुज्जर समुदाय की संख्या कम होने का एक दूसरा कारण पाकिस्तान है। पाकिस्तान ने जम्मू के कई स्थानों मसलन मीरपुर, कोटली, भिम्बर पर बलपूर्वक कब्जा किया हुआ है। इन क्षेत्रों में गुज्जरों की काफी बड़ी संख्या है। लेकिन पाकिस्तान में होने के कारण उनकी गिनती हो नहीं पाती। अशरफ समाज गुज्जरों को अलजाफ श्रेणी में रखता है, इसलिए भी बहुत से मुकाामी गुज्जर अपनी जनगणना में अपनी पहचान छिपा लेते हैं। जनसांख्यिकी में रुचि रखने वाले गुज्जरों की जनसंख्या प्रदेश की कुल आबादी का 10 फीसदी तक भी मानते हैं।

पंजाब, हरियाणा और हिमाचल में शासकीय स्तर पर गुज्जर जनजाति श्रेणी में नहीं माने जाते। देश में जम्मू कश्मीर एकमात्र ऐसा प्रदेश है जिसमें उन्हें जनजाति श्रेणी में माना जाता है और इसी श्रेणी में उनके लिए नौकरियों और विधानसभा में सीटों का आरक्षण दिया जाता है। इस विषय में एक रुचिकर किस्सा स्मरण में आता है। राजस्थान में भी गुज्जर जनजाति का दर्जा पाने के लिए संघर्ष व आन्दोलन करते रहते हैं। वहां दौसा क्षेत्र में गुज्जरों की काफी संख्या है। पुनर्सीमांकन में लोकसभा की दौसा सीट जनजाति समाज के लिए आरक्षित हो गई। इसलिए 2009 में होने वाले लोकसभा चुनाव में गुज्जर समाज के लिए संकट खड़ा हो गया। राजस्थान में मीणा समाज की गणना जनजाति में होती है। इसलिए अब दौसा से गुज्जर तो लोकसभा के चुनाव में प्रत्याशी हो ही नहीं सकता था। गुज्जर समाज उस प्रदेश की तलाश करने लगा, जहां गुज्जर को एसटी का दर्जा मिला हुआ हो। उनकी खोज जम्मू कश्मीर पर आकर खत्म हुई। उन्होंने राजौरी के एक गांव से मोहम्मद कुमर रब्बानी चेच्ची को तैयार किया और उसे दौसा से मैदान में उतार दिया। विरोधी प्रत्याशी ने इसका उपहास उड़ाया। दौसा में गुज्जर समुदाय का मजहब इस्लाम नहीं है। यहां के गुज्जर मुगलों के शासन में भी मतान्तरित नहीं हुए थे। अत: क्षेत्र में चर्चा होने लगी कि इस मुसलमान गुज्जर को कौन वोट देगा? लेकिन गुज्जर समुदाय की मजहब की पहचान गौण हो गई। गुज्जर की पहचान उभर आई। रैली में लोग नारा लगाते हैं भगवान देव नारायण की जय। देव नारायण गुज्जरों के देवता माने जाते हैं। चेची उनसे भी ऊंची जय बोलते हैं। चेची दौसा के गुज्जरों को बताते हैं कि जम्मू कश्मीर में गुज्जर भी बरसों पहले राजस्थान से ही गए थे। इसलिए हमारे रीति रिवाज आज भी एक जैसे ही हैं। चेची ठीक कह रहे थे। आज भी कश्मीर के गुज्जरों के रीति रिवाज कश्मीरियों से उतने नहीं मिलते जितने देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले गुज्जरों से। चेची चुनाव हारे या जीते यह प्रश्न नहीं है। उन्होंने एक बार फिर गुज्जर समुदाय की राष्ट्रीय पहचान स्थापित की। गुज्जर जन समुदाय की भाषा गोजरी है।

अधिकांश गुज्जर इसका प्रयोग भी करते हैं। लेकिन जो गुज्जर पंजाब में बस गए हैं, उन्होंने धीरे धीरे वहां की स्थानीय भाषा पंजाबी को अपना लिया है और वे आम बोलचाल में उसी भाषा का प्रयोग करते हैं। जो गुज्जर घुमक्कड़ वृत्ति छोड़ कर कहीं भी स्थायी रूप से बस गए हैं और खेतीबाड़ी करने लगे हैं, उन्होंने गोजरी छोड़ कर वहां की स्थानीय भाषा को ही स्वीकार कर लिया है। हिमाचल में चम्बा के गुज्जर आम बोलचाल में गोजरी भाषा का भी प्रयोग करते हैं। जम्मू कश्मीर राज्य सरकार ने गोजरी को प्रदेश की राज्य भाषाओं में शामिल किया हुआ है। गोजरी को अन्य भाषाओं के साथ राज भाषा का दर्जा देने वाला जम्मू कश्मीर शायद देश का पहला राज्य है। गोजरी भारोपीय परिवार की भाषा है जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। लेकिन जम्मू कश्मीर में, वहां के शासन ने कश्मीरी भाषा के साथ साथ गोजरी भाषा की लिपि भी अनिवार्य रूप से अरबी लिपि ही कर दी है। यही कारण है कि जम्मू कश्मीर स्कूल एजुकेशन बोर्ड गोजरी भाषा की किताबें अरबी लिपि में प्रकाशित करता है। जम्मू में कई गुज्जर संस्थाएं इसका विरोध भी कर रही हैं। स्थान के अनुसार गोजरी भाषा का स्वरूप भी थोड़ा बहुत बदलता रहता है। लारेंस, गोजरी भाषा को हिन्दकी कहता है। हिन्दकी खैबर पख्तूनखवा में भी बोली जाती है। ग्रियसन ने अपने भाषायी सर्वेक्षण में गोजरी को पहाड़ी ही लिखा है। लेकिन यह सही नहीं है। दरअसल गोजरी भाषा राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र की भाषा से अधिकांशत: मिलती जुलती है।

गोजरी को इसीलिए राजस्थानी भी कहा जाता है। जम्मू कश्मीर की जनगणना में गुज्जरों की भाषा को इसीलिए राजस्थानी कहा गया है। हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय देश का पहला विश्वविद्यालय है जिसने गोजरी भाषा में तथा गुज्जर इतिहास व संस्कृति में सर्टिफिकेट कोर्स प्रारम्भ किया है। लेकिन दुर्भाग्य से जम्मू कश्मीर के विश्वविद्यालयों में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। हिन्दकी गोजरी भाषा का ही दूसरा नाम है, लेकिन पोठोहारी की उन्नति और सार संभाल के लिए कुछ किया जाना लाजिमी है। पाकिस्तान में सरायकी भाषा को लेकर पिछले लम्बे अरसे से आन्दोलन चल रहा है। मुलतान और उसके आसपास का क्षेत्र सरायकी भाषा बोलता है। लेकिन पाकिस्तान सरकार सरायकी को भाषा के आधार पर मान्यता ही नहीं देती। दरअसल पाकिस्तान सरकार वहां की स्थानीय भाषाओं को समाप्त करने का प्रयास करती रहती है। क्योंकि भाषाएं पाकिस्तान के लोगों को याद दिलाती रहती हैं कि मूलत: उनकी सांस्कृतिक जडें़ एक ही हैं। विभाजन, मजहब की आड़ में अरब, तुर्क व मुगल मूल के विदेशी मुसलमानों की साजिश थी। यह साजिश पक्के तौर पर कभी सफल हो सकती है यदि वहां की भाषाओं को समाप्त किया जाए। सरायकी को इसीलिए खत्म करने की कोशिश की जा रही है। पाकिस्तान में यही स्थिति गोजरी की है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App