वैश्विक संदर्भ में अंबेडकर की प्रासंगिकता

मैरीलैंड में अंबेडकर की मूर्ति स्थापना का संकेत क्या है? भारत को भी उत्तरी अमेरिका में अफ्रीकी मूल के नागरिकों व इंडियन के अधिकारों के लिए अपनी आवाज विश्वमंचों पर उठानी चाहिए…

डा. भीमराव रामजी आम्बेडकर जी की सबसे ऊंची प्रतिमा यूएसए के मैरीलैंड प्रान्त में लग रही है। आम्बेडकर के चिन्तन को लेकर दूसरे द्वीपों में भी चर्चा शुरू हुई है, यह सचमुच प्रसन्नता की बात है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। आम्बेडकर के व्यक्तित्व के दो पक्ष हैं। चिन्तक का और दूसरा सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय नेतृत्व का। उन्होंने चिन्तक के रूप में भारतीय सामाजिक संरचना और व्यवस्था का गहरा अध्ययन किया। कालक्रम से उसमें घर कर गई विकृतियों की कारण मीमांसा की। यह कारण मीमांसा पश्चिमी समाजशास्त्रियों द्वारा भारतीय या हिन्दू समाज की विकृतियों के लिए स्थापित किए गए निष्कर्षों से मेल नहीं खाती। उसका कारण आम्बेडकर की भारतीय दृष्टि थी और वे अपने समाज के सभी पक्षों को गोरे समाजशास्त्रियों से बेहतर जानते थे। इसका उन्होंने एकाध बार संकेत भी किया है। लेकिन आम्बेडकर कारण मीमांसा के बाद चुप नहीं बैठे। वे उसके निराकरण के लिए धरातल पर सक्रिय हो गए। अपने इन आन्दोलनों में उन्हें कहीं सफलता मिली और कहीं असफलता, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। जब उन्हें विभाजन के बाद शेष भारत के लिए संविधान बनाने का अवसर मिला तो उन्होंने अनेक सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने के विधिक रास्ते तलाश किए। उसके कारण वर्तमान में भारतीय/हिन्दू समाज में बहुत परिवर्तन सहज ही दिखाई देता है। लेकिन दुनिया के दूसरे छोर पर भी सामाजिक व्यवस्थाओं में प्रजाति व रंग के आधार पर अमानवीय भेदभावपूर्ण व्यवहार का साम्राज्य व्याप्त है। अमानवीय व्यवहार का यह साम्राज्य उसी क्षेत्र में व्याप्त है जिसमें कभी ‘स्टैच्यू आफ लिबर्टी’ स्थापित कर स्वतंत्रता व समानता की घोषणा की गई थी। उसी क्षेत्र यानी उत्तरी अमेरिका में अब आम्बेडकर की सबसे बड़ी मूर्ति स्थापित की जा रही है। क्या यह उत्तरी अमेरिका में अफ्रीकी समुदाय और इंडियन समुदाय (उत्तरी अमेरिका में इंडियन वे हैं जिनके पूर्वज पन्द्रह बीस हजार साल पहले जम्बूद्वीप/एशिया से साइबेरिया होते हुए वहां पहुंचे थे) से गोरे लोगों द्वारा किए गए भेदभाव के खिलाफ एक नए संघर्ष की शुरुआत मानी जाए? इसकी शुरुआत आम्बेडकर के रास्ते पर चल कर होगी? आम्बेडकर के संघर्ष का वह रास्ता जो अन्तत: तथागत बुद्ध के रास्ते से जाकर मिल जाता है। इंडियन को उत्तरी अमेरिका यानी यूएसए व कनाडा में गए हुए बीस हजार साल हो गए हैं। उन्होंने इन प्रदेशों को आबाद किया। अपने कठिन परिश्रम से वहां बस्तियां आबाद की। जीवन मूल्यों के आधार पर परिवार व समाज की संरचना की। ऐसा समाज जो धरती को मां मानता था। लेकिन आज से पांच सौ साल पहले वहां स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस व पुर्तगाल इत्यादि से यूरोपीय लोग पहुंचे। इंडियन, जो अतिथि सत्कार को धर्म मानते थे, ने इनका हार्दिक स्वागत ही नहीं किया बल्कि उन्हें खाने के लिए अन्न, जल और आवास तक दिया। परन्तु इन गोरे लोगों ने जिनके जीवन मूल्य शोषण पर आधारित थे, इन इंडियन को गुलाम बनाया, उनका मतान्तरण किया, बहुत बड़ी संख्या में उनकी हत्या की और धीरे धीरे उन्हें उनके देश में ही दोयम दर्जे के नागरिक बना दिया। उन्हें ‘रिजर्व’ में ही सीमित कर दिया। आज उनका उत्तरी अमेरिका के देशों की सत्ता में कोई स्थान नहीं है। गोरे उन्हें हिकारत से देखते हैं। ऐसा ही एक दूसरा समुदाय अफ्रीकियों का है जिनका उत्तरी अमेरिका में आगमन बड़ी मुश्किल से दो तीन सौ साल पहले हुआ। लेकिन वे अपनी इच्छा से इंडियन की तरह साइबेरिया के रास्ते उत्तरी अमेरिका नहीं पहुंचे थे, बल्कि उन्हें अफ्रीकी देशों से गोरों की कम्पनियां धोखे से लेकर आई थीं। ये कम्पनियां इन अफ्रीकी लोगों की खरीद फरोख्त का काम अखबारों में विज्ञापन देकर करती थीं। इन अफ्रीकियों को बेचने के लिए उसी प्रकार बाजार लगता था, जैसे बकरी भेड़ बेचने के लिए बाजार सजता है। इस प्रकार बिके हुए अफ्रीकी पुरुष स्त्रियां अपने मालिकों की सम्पत्ति मानी जाती थी। इतना ही नहीं, इन गुलामों के बच्चे भी उसी मालिक के गुलाम माने जाते थे। यहां तक कि 1865 तक आते आते अफ्रीकियों को गुलाम बनाने के प्रश्न पर यूएसए ही टूट गया। कान्फेडरेट स्टेट्स आफ अमेरिका के नाम से एक हिस्सा टूट कर नया देश बन गया। यह लड़ाई लम्बी चली। अन्तत: कान्फेडरेट स्टेट्स आफ अमेरिका की पराजय हुई । कहा गया कि अफ्रीकियों को गुलाम बनाने की प्रथा कम से कम वैधानिक रूप से खत्म कर दी गयी। लेकिन अमेरिकी इस प्रथा के पक्ष में इस कदर थे कि उन्होंने अपने राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को, जिन पर शक था कि वे अफ्रीकियों को गुलाम बनाने के खिलाफ हैं, मार ही दिया। उनकी हत्या से गोरे लोगों की अन्तरात्मा जागेगी और वे अफ्रीकी मूल के नागरिकों को अपने बराबर अधिकार दे देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अफ्रीकी मूल के नागरिकों को वोट देने का अधिकार तब भी नहीं मिल पाया। इस अधिकार के लिए तो उन्हें और भी लम्बा संघर्ष करना पड़ा। लेकिन अफ्रीकी मूल की महिलाओं को तो वोट देने का मुकम्मल अधिकार 1965 के आसपास ही मिल पाया। जाहिर है सभ्य देशों में इससे अमेरिका की बदनामी होती। उसे धोने के लिए 1886 में उन्होंने बाकायदा ‘स्वतंत्रता की देवी’ भी स्थापित कर दी। लेकिन क्या इससे अफ्रीकी मूल के नागरिकों और ‘इंडियन’ को गोरे लोगों के अत्याचारों से स्वतंत्रता मिल गई? ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। इंडियन अब भी अपने लिए सरकार द्वारा निर्धारित ‘रिजर्व’ में ही रहने के लिए विवश हैं। इन रिजर्व में जाने के लिए सडक़ें तक नहीं हैं। वहां किसी प्रकार की अन्य सुविधाएं भी नहीं हैं। अफ्रीकी मूल के नागरिक शहरों के जिन हिस्सों में रहते हैं, वहां गोरे रहना तो दूर, नजदीक जाना भी पसन्द नहीं करते। उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता है। उत्तरी अमेरिका में कोलम्बस को यूरोप के गोरे लोगों के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इंडियन मानते हैं कि अमेरिका में कोलम्बस के आने से इंडियन की ग़ुलामी की शुरुआत हुई। गोरे अमेरिकी कोलम्बस को अपना राष्ट्रीय नायक मानते हैं। जिस दिन उसने अमेरिका की धरती पर पांव रखा था, उस दिन को यूएसए सरकार राष्ट्रीय दिवस के तौर पर मनाती है। लेकिन पिछले कुछ साल से ‘इंडियन’ इस दिन को ग़ुलामी के दिन के तौर पर मनाते हैं। इतना ही नहीं अब वे इस दिन सार्वजनिक स्थानों पर लगी कोलम्बस की मूर्तियों को तोड़ते हैं, उसका मुंह काला करते हैं। कुछ स्थानों पर तो व्हाइट हाऊस की सरकार ने कोलम्बस की मूर्तियों को उठा कर अजायब घर में रखवा दिया है। यूएसए और कनाडा में अभी भी अफ्रीकी मूल के नागरिक और इंडियन अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पिछली शताब्दी में महात्मा गान्धी ने दक्षिण अफ्रीका में ही गोरे लोगों द्वारा भारतीयों से किए जा रहे भेदभाव के खिलाफ अहिंसक संघर्ष किया था। अन्याय के खिलाफ संघर्ष का उनका अपना तरीका था। इसकी यूरोप में कुछ स्थानों पर चर्चा भी हुई। फ्रांस के रोम्यां रोलां ने तो इस पर विस्तार से लिखा भी। गान्धी जी ने तो अंग्रेजों के खिलाफ लम्बा संघर्ष भारत में भी किया। सामाजिक व्यवस्थाओं के खिलाफ गान्धी जी भी मैदान में थे। आम्बेडकर भी यही संघर्ष कर रहे थे। तरीका दोनों का अलग अलग था। ऊपर से दोनों अलग अलग रास्तों पर चल रहे थे। लेकिन जैसा कि हिन्दी के साहित्यकार मोहन राकेश ने कभी लिखा था, जो ऊपर से अलग दिखाई देते हैं, वे भीतर से कहीं न कहीं जुड़े होते हैं। आज हमारे बीच न गान्धी जी हैं और न ही आम्बेडकर हैं। लेकिन उनका रास्ता अभी भी है। यह भारत का रास्ता है। उत्तरी अमेरिका में इंडियन व अफ्रीकी मूल के नागरिक आज इक्कीसवीं सदी में भी भेदभाव का शिकार हो रहे हैं। इस मरहले पर मैरीलैंड में भीमराव रामजी आम्बेडकर की मूर्ति स्थापना का संकेत क्या है? भारत को भी उत्तरी अमेरिका में अफ्रीकी मूल के नागरिकों व इंडियन के अधिकारों के लिए अपनी आवाज विश्वमंचों पर उठानी चाहिए। आम्बेडकर के संघर्षों से अफ्रीकी व इंडियन प्रेरणा ले सकते हैं।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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