वाल्मीकि समाज का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

इसमें कोई शक ही नहीं कि जब पश्चिमोत्तर द्वार से भारत पर अरबों, तुर्कों, मुगल मंगोलों के आक्रमण हुए तो उसको चुनौती देने वालों में से वाल्मीकि समाज अग्रणी भूमिका में था। लेकिन उससे पहले हजारों वर्षों तक इस समाज ने देश में ज्ञान की ज्योति भी प्रज्ज्वलित करने में अपनी भूमिका निभाई। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने न तो इस दिशा में शोधकार्य किया, न ही वाल्मीकि समाज की संरचना और उसकी गोत्र प्रणाली को समझने की दिशा में कदम उठाया। ज्ञान और शौर्य के शिखर पर बैठा समुदाय धीरे-धीरे अधोगति की ओर कैसा चल पड़ा? समाजशास्त्रियों को इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने चाहिए थे, लेकिन वे एक रहस्यमय चुप्पी साधे रहे। यह ब्रिटिश चाल थी या स्वयं की निष्क्रियता थी, अंबेडकर ने उत्तर तलाशने की कोशिश की थी…

भारत के वाल्मीकि समाज का यहां के सप्त सिन्धु समाज से घनिष्ठ संबंध है। महर्षि वाल्मीकि जी का आश्रम पंजाब में अमृतसर के समीप स्थित है। यह आश्रम यहां के तीर्थ स्थानों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इस आश्रम की प्रसिद्धि के दो मुख्य कारण हैं। यहां बैठ कर महर्षि वाल्मीकि ने श्री रामचन्द्र जी के इतिहास को लिपिबद्ध किया था। अयोध्या नरेश दशरथ, उनके सुपुत्र श्री रामचन्द्र जी, राम वनवास, राम-वरण विवाद, राम द्वारा सामान्य जन का संगठन खड़ा करना और उसी संगठन के बलबूते महाशक्तिशाली रावण को पराजित करना, अयोध्या का शासन सम्भालना, सीता को लेकर लोकोपवाद, लोकतन्त्र लोकलाज से चलता है- सूत्र की घोषणा और सीता का त्याग, सीता जी का महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ग्रहण करना, वाल्मीकि द्वारा सीता के पुत्रों लव-कुश को एक साथ शस्त्र व शास्त्र की साधना में निपुण करना, इनमें से अनेक ऐतिहासिक प्रसंगों को उन्होंने लेखनीबद्ध किया और अनेक प्रसंग उनके आश्रम में ही घटित हुए। यह ठीक है कि रामचन्द्र जी के अनेक प्रसंग छिटपुट रूप से अनेक ग्रन्थों में मिल जाते थे, लेकिन यह महर्षि वाल्मीकि जी ही थे जिन्होंने इस पूरे इतिहास को समग्र रूप से एक साथ लिपिबद्ध करके भारतीय इतिहास और राजनीति के इस प्रारंभिक इतिहास को सुरक्षित रखने में अवश्य ही कालजयी भूमिका निभाई।

दरअसल रामचन्द्र जी के इतिहास से संबंधित अनेक पुरुष/स्त्री इसी सप्त सिन्धु क्षेत्र से ताल्लुक रखते थे। रामचन्द्र जी की माता कौशल्या जी पटियाला के समीप घड़ाम गांव से थीं। आजकल भी पटियाला के राजकीय चिकित्सालय का नाम माता कौशल्या के नाम पर ही है। कैकेयी भी कैकेय प्रदेश यानी गन्धार की थी। रामचन्द्र जी के बेटों लव-कुश ने पंजाब के दो प्रसिद्ध शहर लाहौर और कसूर की स्थापना की। वाल्मीकि जी के इस आश्रम की ख्याति चहुं ओर फैल रही थी। विश्वामित्र और वासिष्ठ जी के आश्रम भी चर्चित थे, लेकिन वाल्मीकि के आश्रम में भारत का इतिहास लिखा जा रहा था और दूसरी ओर भविष्य में सुरक्षा की सशक्त दीवार का निर्माण किया जा रहा था। लव-कुश के साथ ही हजारों युवा शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। यहां देश की सामाजिक व्यवस्था में भी एक नया प्रयोग कर रहा था। अभी तक की सामाजिक व्यवस्था में जो ज्ञान अर्जित करने में रुचि रखता था, उसे शस्त्रों के प्रशिक्षण की जरूरत नहीं समझी जाती थी। जो शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त करते थे, उनका ज्ञान साधना से कोई ताल्लुक नहीं होता था। लेकिन महर्षि वाल्मीकि भविष्य द्रष्टा थे। वे देश के भविष्य को देख रहे थे। हजारों वर्षों दूर के भविष्य को। यही कारण था कि उनके आश्रम में लव-कुश के साथ देश के हर हिस्से, विशेषकर सप्त सिन्धु क्षेत्र के युवा एक साथ ही शस्त्र और शास्त्र की साधना कर रहे थे। राम के इतिहास का पूर्वाद्र्ध इन्हीं आश्रमों से जुड़ा हुआ था, लेकिन वाल्मीकि महाराज के आश्रम की महत्ता इसलिए थी कि वे राम की सन्तान को प्रशिक्षित करके इस यात्रा के सनातन प्रवाह को आगे बढ़ा रहे थे। लेकिन अब वाल्मीकि जी से शस्त्र व शास्त्र की शिक्षा केवल लव-कुश ही नहीं ले रहे थे बल्कि सप्त सिन्धु क्षेत्र के लाखों युवा इस आश्रम की ओर खिंचे चले आ रहे थे। महर्षि वाल्मीकि के लिए वे सभी लव और कुश का रूप ही हो गए थे। भारत के कोने कोने से लोग वाल्मीकि आश्रम की ओर खिंचे चले आ रहे थे। ये लोग सभी जातियों, सभी वर्णों के थे।

आज जिनको जनजाति समुदाय भी कहा जाता है, उन समुदायों के लोग भी यहां थे। वाल्मीकि आश्रम सही अर्थों में, यदि आज की शब्दावली का प्रयोग करना हो तो समाजिक समरसता का राष्ट्रीय मंच बन गया था। लेकिन यकीनन इसमें सप्त सिन्धु क्षेत्र के लोग सर्वाधिक थे। पश्तून, बलोच, जाट, बलती, दरद, सप्त सिन्धु क्षेत्र का ऐसा कौनसा समुदाय था जो महर्षि वाल्मीकि आश्रम की ओर खिंचा नहीं चला आ रहा था। लेकिन इन सभी समुदायों की अलग अलग पहचान समाप्त होकर एक नई पहचान उभर रही थी। महर्षि वाल्मीकि के शिष्य होने के नाते ये सभी भी वाल्मीकि हो गए। लेकिन आखिर महर्षि वाल्मीकि जी ने सारे देश में से अमृतसर को ही अपने आश्रम के लिए क्यों चुना? सप्त सिन्धु/पश्चिमोत्तर भारत ही उनके इस नए प्रयोग की साधना स्थली क्यों बना? वाल्मीकि त्रिकालदर्शी थे। वे भविष्य को पढ़ ही नहीं, स्पष्ट देख रहे थे। इसी सप्त सिन्धु के दर्रा खैबर से हिन्दुस्तान पर विदेशी आक्रमणों की एक लम्बी श्रृंखला शुरू होने वाली थी। उसके लिए ऐसी समाज रचना की जरूरत थी जो उसका मुकाबला कर सके। वाल्मीकि जी उसी काम में लगे थे। लेकिन साथ ही रामचन्द्र की शासन व्यवस्था का विश्लेषण भी कर रहे थे ताकि आने वाले शासकों के लिए यह शासन व्यवस्था रोल मॉडल बन सके। यही वाल्मीकि का राम राज्य था, जिसे तुलसीदास ने हजारों साल बाद भी जन भाषा में सूत्रबद्ध करते हुए लिखा- दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज्य सपनेहुं न व्यापा। लेकिन महर्षि वाल्मीकि ने वाल्मीकि के नाम से यह जो सामाजिक समरसता के आसन पर नया समुदाय प्रशिक्षित किया था, क्या संकट काल आने पर उस कसौटी पर पूरा उतरा? इसमें कोई शक ही नहीं कि जब पश्चिमोत्तर द्वार से भारत पर अरबों, तुर्कों, मुगल मंगोलों के आक्रमण हुए तो उसको चुनौती देने वालों में से वाल्मीकि समाज अग्रणी भूमिका में था। लेकिन उससे पहले हजारों वर्षों तक इस समाज ने देश में ज्ञान की ज्योति भी प्रज्ज्वलित करने में अपनी भूमिका निभाई।

लेकिन दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने न तो इस दिशा में शोधकार्य किया, न ही वाल्मीकि समाज की संरचना और उसकी गोत्र प्रणाली को समझने की दिशा में कदम उठाया। ज्ञान और शौर्य के शिखर पर बैठा समुदाय धीरे धीरे अधोगति की ओर कैसा चल पड़ा? समाजशास्त्रियों को इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने चाहिए थे, लेकिन वे एक रहस्यमय चुप्पी साधे रहे। यह ब्रिटिश चाल थी या स्वयं की निष्क्रियता थी, बाबा साहिब आम्बेडकर ने अपनी दो पुस्तकों ‘शूद्र कौन थे’ और ‘अस्पृष्य कौन थे’ के माध्यम से इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश की थी लेकिन उनके देहान्त के बाद उनके इस काम को किसी ने नहीं पकड़ा। एक सहज अनुमान लगाया जा सकता है। तुर्कों व मुगल मंगोलों से टक्कर लेने में वाल्मीकि समाज अग्र पंक्तियों में था, लेकिन दुर्भाग्य से विदेशी हमलावर जीत गए थे। टक्कर लेने वालों की जितनी दुर्दशा ये विदेशी कर सकते थे, उन्होंने की। जो नई सत्ता के साथ चले गए, उनकी क्या बात की जाए, लेकिन जो राजसत्ता से टकरा गए, उनका इतिहास लिखा जाना तो बनता ही है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शायद इन दरारों को भरा जाए।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App