मोबाइल कहीं अभिशाप न बन जाए

मोबाइल क्रांति वरदान है, लेकिन इसका अत्यधिक प्रयोग अभिशाप है…

थोड़ी देर के लिए अपने आप को मोबाइल के बिना महसूस करें, मनोवैज्ञानिक रूप से ऐसा लगेगा जैसे जीवन नीरस, असहज, असुरक्षित और शक्तिहीन हो गया है। आज संचार तकनीक का यह बच्चा यानी मोबाइल अब जवान हो गया है। दुनिया भर के ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, सूचना, मनोरंजन की इस प्रतिमूर्ति ने दुनिया को मुठ्ठी में कर रखा है। यह उपकरण अब हर व्यक्ति की जेब में अपनी जगह बना चुका है। हर रोज घर से निकलते हुए हम माता-पिता, पत्नी, बच्चों को अभिवादन करना भूल जाएं, अपने इष्ट देव के समक्ष नतमस्तक न हों, परन्तु अपना मोबाइल तथा चार्जर लेना नहीं भूलते। कितने बेबस हो गए हैं हम? एयरटेल का व्यावसायिक एड ‘कर लो दुनिया मु_ी में’ कितना आकर्षक लगता था? लेकिन दुनिया को मुठ्ठी में कर लेने वाला व्यक्ति अब स्वयं ही मोबाइल की मु_ी में हो चुका है। सच में मोबाइल ने आज व्यक्ति को अपने बाहुपाश में लेकर अपना गुलाम बना दिया है।

आज बच्चे से लेकर हर बूढ़ा व्यक्ति मोबाइल के नशे में हो चुका है। मजदूर, दिहाड़ीदार, रेहड़ी-फड़ी, छोटा-मोटा काम-धंधा करने वाला व्यक्ति भी मोबाइल पर पूर्ण रूप से आश्रित है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मोबाइल आज के मनुष्य को अपना दास बना चुका है। मोबाइल का नशा अनेकों प्रकार के नशीले पदार्थों से भयंकर हो चुका है। आने वाले समय में शराब, धूम्रपान या अन्य नशीले पदार्थों को छुड़ाने के ‘डी एडिक्शन सेंटर्स’ की तरह एक सप्ताह या एक महीने में मोबाइल की लत छुड़ाने के लिए मनोवैज्ञानिक, सलाहकार या परामर्शदाता केन्द्र खुलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। हम स्वीकार करें य न करें, लेकिन सत्य यही है कि हम सभी इस मोबाइलेरिया से मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से परेशान हैं। संचार, तकनीक तथा मोबाइल क्रान्ति ने हमारा जीवन पूर्ण रूप से परिवर्तित कर दिया है। इस तकनीक ने ‘गूगल देवता’ के माध्यम से दुनिया भर का ज्ञान प्रत्येक व्यक्ति के पास प्रेषित एवं प्रस्तुत कर दिया है। यह ठीक है कि आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ज्ञान, विज्ञान, तकनीक, सूचना क्रांति के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

शिक्षा, स्वास्थ्य, वाणिज्य, संचार, तकनीक, विज्ञान, परिवहन, व्यवसाय, पुलिस, फौज, सुरक्षा, रेल, विमान, स्टॉक एवं शेयर मार्केट तथा बैंक में संचार संसाधनों का प्रयोग हो रहा है। विभिन्न क्षेत्रों की व्यवस्थाओं का प्रबंधन इंटरनेट तथा मोबाइल कनैक्टिविटी से हो रहा है। मोबाइल ने व्यावसायिक फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी, केलकुलेटर, रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टाइपिंग आदि के व्यवसाय भी लगभग बंद ही करवा दिए हैं। फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम, वाट्सऐप, मैसेंजर आदि एप्स का बोलबाला है। टेलीफोन भी लगभग समाप्त ही है। मोबाइल ने फिल्म उद्योग को भी बहुत प्रभावित किया है। एमाजोन, मिंत्रा, फ्लिपकार्ट आदि ने दुकानदारी तथा व्यवसाय को बहुत प्रभावित किया है। बैंक का लेनदेन, रेल, विमान तथा परिवहन, फिल्म टिकट तथा बुकिंग मोबाइल से होती है। अब पैसे के लेनदेन, बिजली-पानी के बिल भुगतान के लिए काउंटर पर नहीं जाना पड़ता। शिक्षा क्षेत्र में मोबाइल का प्रयोग हो रहा है। वैश्विक कोरोना महामारी के समय तो मोबाइल और भी सशक्त हो गया। अब तो युवा माताएं अपने बच्चों को खुश रखने के लिए कार्टून लगाकर मोबाइल देती हैं ताकि उनका लाड़ला मोबाइल पर मस्त रहे तथा परेशान न करे। यह सब होने के बावजूद वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति इस सुविधा का प्रयोग करते हुए बहुत परेशान है। सुबह उठते ही हाथ मोबाइल पर जाता है। सुप्रभात का सन्देश भेजना, किसी भी त्योहार, दिवस, जन्म दिन शुभ कामनाएं, शोक संदेश, नवीन समाचार, सांत्वना, दुनिया भर की सूचनाएं देखने तथा आदान-प्रदान करने से लेकर संगीत, फोन काल्स, मैसेज, चैटिंग क्या नहीं होता? शाम को सोने से पहले इस लाडले मोबाइल के साथ हम अपना कुछ समय अवश्य गुजारते हैं। माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, सगे सम्बन्धियों, दोस्तों, कार्यालय सहयोगियों के साथ बैठे हुए भी व्यक्तिगत तथा व्यावसायिक सम्बन्ध न निभाते हम मोबाइल पर व्यस्त रहते हैं।

पढऩे वाला बच्चा, माता-पिता, अध्यापक, कर्मचारी सभी अपने को सन्तुष्ट करने के लिए ‘यूज ऑफ टेक्नोलॉजी’ का बहाना लेते हैं। पूरी दुनिया इस टैक्नोलॉजी में व्यस्त और मस्त हो चुकी है। सूचनाओं की इस दुनिया में वास्तविक ज्ञान तथा अध्ययन के लिए किसी के पास समय नहीं है। पाठशालाओं, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में लगभग शत-प्रतिशत विद्यार्थियों के पास मोबाइल है। महाविद्यालयों में तो एक समय में लगभग सत्तर प्रतिशत विद्यार्थियों को मोबाइल पर देखा जा सकता है। विद्यार्थियों की सारी रचनात्मक गतिविधियों, लेखन, पुस्तकालय अध्ययन, खेलकूद, गीत-संगीत, समाज सेवा को ग्रहण लग चुका है। बहुत कम विद्यार्थियों में सकारात्मकता, रचनात्मकता तथा कुछ नवीन करने का जज्बा बचा है। कुछ ही बच्चे कुछ व्यावहारिक तथा सकारात्मक कार्य करने के लिए आत्म प्रेरित हैं। बच्चों की मानसिक, भावनात्मक तथा संवेगात्मक तथा संवेदनशीलता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। गरीब से गरीब परिवार से सम्बन्धित बच्चा भी अपने माता-पिता पर अच्छे से अच्छा मोबाइल खरीदने का दबाव बनाता है। अभिभावक परेशान हैं। मोबाइल न देने, कम प्रयोग करने के कारण अनेकों पढऩे वाले बच्चे आत्महत्या तक कर चुके हैं।

धड़ाधड़ रिचार्ज करवाया जाता है। सच्ची-झूठी सूचनाओं का इतना प्रवाह हो चुका है कि व्यक्तियों को अनेकों मानसिक बीमारियां, आंखों में जलन, चिड़चिड़ापन, क्रोध, मानसिक थकान, असंतोष तथा अशांति घेरने लगी है। प्रत्येक व्यक्ति में मानसिक, मनोवैज्ञानिक तथा वैचारिक प्रदूषण पनप रहा है। मोबाइल का अत्यधिक प्रयोग करने वाले व्यक्तियों को अकेले में ही रोते तथा हंसते हुए देखा गया है। एक अध्ययन के अनुसार मोबाइल से दस प्रतिशत बच्चों की आंखें टेढ़ी तथा अ_ारह प्रतिशत बच्चों की आंखों की दृष्टि कमजोर हो चुकी है। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में जाने वाले विद्यार्थी मोबाइल एडिक्शन का शिकार हो चुके हैं। अब इससे छुटकारा पाने के लिए डाक्टरों तथा मनोवैज्ञानिकों की कंसल्टेशन भी ली जा रही है। मोबाइल का किस तरह सकारात्मक, रचनात्मक तथा कम प्रयोग करें, इसके लिए शिक्षण संस्थानों में विशेष व्याख्यान आयोजित करवाए जा रहे हैं। सामान्य नागरिक, माता-पिता, अध्यापक-बुजुर्ग, मोबाइल के बढ़ते प्रयोग से प्रत्येक व्यक्ति परेशान है। मोबाइल क्रान्ति हमारे लिए वरदान है, लेकिन इसका अत्यधिक प्रयोग कहीं हमारे लिए अभिशाप न बन जाए, इसका ध्यान रखना होगा।

प्रो. सुरेश शर्मा

शिक्षाविद


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