गैंगस्टरों के बीच घिरा पंजाब

रूस के पतन के बाद अमेरिका को लगता था कि अब वह दुनिया की एकमात्र शक्ति बन कर रह गया है। लेकिन जल्दी उसे समझ आ गया कि दुनिया में एक सिविलाईजेशनल वार भी शुरू हो चुकी है, जिसमें इस्लाम के कट्टरपंथी ईसाइयत को ललकार रहे हैं। 9/11 के बाद यह लड़ाई और तेज हो गई। विश्व की सांस्कृतिक ताकतों में भारत का भी अपना स्थान है। दक्षिण पूर्व एशिया के बौद्ध देशों व जापान को मिला कर यह तीसरा सांस्कृतिक मंच बनता है। पिछले कुछ समय से यह मंच भी सक्रिय ही नहीं हुआ है, बल्कि विश्व गुरु की आवाज भी आनी शुरू हो गई है। चीन भी अमेरिका को चुनौती दे रहा है और रूस के टूटने से रिक्त हुए स्थान को भरने की कोशिश कर रहा है। इसलिए अमेरिका को ऐसा भारत चाहिए जो चीन का भौतिक लिहाज से तो मुकाबला कर सके, लेकिन सांस्कृतिक आधार पर अपनी पुरातन जडें़ मजबूत न कर सके। इसलिए हिंदू आतंकवाद की अवधारणा बनाई जा रही है…

पंजाब के सामाजिक ताने-बाने में गैंगस्टरों, जिसे हिन्दी या पंजाबी में गिरोह या बाहुबली कहा जा सकता है, की दखलअंदाजी नहीं थी। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में ये गिरोह यहां पनपने शुरू हुए और जल्दी उनका दुष्प्रभाव दिखाई भी देने लगा। इसमें तो कोई शक नहीं कि बिना राजनीतिक संरक्षण के ऐसे गिरोह पनप नहीं सकते। उत्तर प्रदेश और बिहार में इस प्रकार के गिरोहों या बाहुबलियों का इतिहास इस बात का साक्षी है। राजनीतिक दल गिरोहों को पनपने का अवसर देते हैं और तुरन्त बाद वे पुलिस का संरक्षण खुद ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा माना जाता है कि पंजाब में इस प्रकार के गिरोहों को पालने-पोसने में अकाली दल का हाथ रहा है। कम से कम लोक मान्यता यही है। लेकिन यह भी सच है कि इस प्रकार के गिरोह बड़े होने पर अपने ही संरक्षकों से स्वायत्तता की मांग करने लगते हैं। उनके संरक्षक इसके लिए तैयार नहीं होते। नतीजा यह कि गिरोह उनके संरक्षण से खुद को आजाद कर लेते हैं। उनको शायद यह भी लगता है कि अब वे बालिग हो गए हैं और उन्हें संरक्षण की जरूरत ही नहीं है। इस प्रकार के गिरोह अपनी रुचि और सुविधा के अनुसार अपने लिए अपना क्षेत्र स्वयं ही चुन लेते हैं। रंगदारी, फिरौती, नशे का कारोबार व मानव तस्करी इत्यादि इत्यादि। धीरे-धीरे ये गिरोह भाड़े पर उपलब्ध होने लगते हैं। यदि देश की सीमा किसी ऐसे देश के साथ लगती हो जो शत्रु देश की श्रेणी में आता हो तो इन गिरोहों को वह शत्रु देश भी अपने कामों के लिए भाड़े पर रख लेता है। इस प्रकार के गिरोहों के कार्यक्षेत्र सीमित ही होते हैं, इसलिए आपस में भी वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाती है। लेकिन इतना निश्चित है कि इन गिरोहों का काम करने का तरीका या तो भय से संचालित होता है या फिर राबिनहुड जैसे व्यवहार से। बहुत बार ऐसा भी देखा गया है कि इन्हीं गिरोहों के मुखिया लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ उठाकर राजनीति में भी छलांग लगा देते हैं। इस प्रकार की अराजकता किसी भी प्रदेश के विकास को अवरुद्ध ही नहीं करती बल्कि जीवन मूल्यों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाने लगती है। पंजाब पिछले कुछ दशकों से इस प्रकार की स्थिति का सामना करता दिखाई दे रहा है।

सिद्धु मूसेवाला की हत्या तो निंदनीय है ही, लेकिन सरकार के तमाम दावों के बावजूद यह सिलसिला थमा नहीं। एक गैंग के मुखिया ने तो जेल के अन्दर से ही मीडिया को लम्बा-चौड़ा इंट्रव्यू दे दिया। पंजाब के इन गिरोहों की एक दूसरी खासियत है कि इनके तार कनाडा में सक्रिय गिरोहों से जुड़े हुए लगते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि कनाडा और पंजाब में सक्रिय ये गिरोह एक-दूसरे का एक्सटेंशन ही हैं। पंजाब में कोई हत्या होती है तो कनाडा में बैठा कोई गिरोह उसका श्रेय सार्वजनिक घोषणा करके लेता है। कनाडा में कोई इस प्रकार की हत्या होती है तो पता चलता है उसका पंजाब कनैकशन है। पिछले दिनों कनाडा में एक पंजाबी को उसके ग्यारह साल के बेटे समेत दूसरे गैंग ने शरेआम गोलियों से भून दिया। पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा टूट जाने के बाद पाकिस्तान ने भी भारत में ऐसे गिरोहों की सहायता करनी शुरू की जो उसके राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए काम कर सकें। लेकिन देखने में यह भी आया है कि पंजाब से संबंधित अधिकांश गिरोह कनाडा से संचालित हो रहे हैं। ये गिरोह कनाडा की राजनीति में भी दखलअंदाजी रखते हैं। कुछ गिरोह यूएसए से भी संचालित हो रहे हैं। उत्तरी अमेरिका में सक्रिय इन भारत विरोधी गिरोहों को वहां रह रहे उन पाकिस्तानियों से भी सहायता मिलती है, जिनका नियंत्रण पाकिस्तान सरकार के हाथ में रहता है। प्रश्न पैदा होता है कि उत्तरी अमेरिका के देश यथा कनाडा और यूएसए इन गिरोहों को प्रश्रय क्यों देते हैं? क्या इन देशों के भी भारत में कोई राजनीतिक हित हैं। पाकिस्तान का हित तो समझ में आता है। उसकी बुनियाद ही भारत विरोध पर टिकी हुई है। भारत विरोध में उसकी पहचान है। यदि वह भारत का विरोध छोड़ देता है तो उसका अपना अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। यदि दोनों देश मित्रवत रह सकते हैं तो 1947 में भारत विभाजन का आधार ही खत्म हो जाएगा। लेकिन कनाडा और अमेरिका, भारत विरोधी गिरोहों को संरक्षण किस उद्देश्य के लिए दे रहे हैं। अमेरिका दरअसल समन्वित रूप में यूरोप की संस्कृति, उसकी मानसिकता का प्रतीक है। यह ठीक है कि यूरोप के विभिन्न देश आपस में लड़ते रहते हैं। इंग्लैंड, फ्रांस व जर्मनी की प्रतिद्वन्द्विता तो जगजाहिर है। लेकिन इस सबके बावजूद यूरोप की एक सांझी मानसिकता या मनोविज्ञान भी है। यूरोपीय यूनियन का जन्म केवल आर्थिक हितों के संवर्धन के लिए नहीं हुआ था। उसके भीतर यूरोप की सांझी सांस्कृतिक पहचान को आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप पुष्ट करना भी था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका इस यूरोपीय पहचान का नायक बन कर उभरा है।

बंगलादेश के जन्म के समय भारत ने अमेरिका की धौंस के समय जिस प्रकार उत्तर दिया था, उसी से उसे समझ आ गया था कि भारत विश्व राजनीति में अपना स्थान तलाश रहा है। रूस के पतन के बाद अमेरिका को लगता था कि अब वह दुनिया की एकमात्र शक्ति बन कर रह गया है। लेकिन जल्दी उसे समझ आ गया कि दुनिया में एक सिविलाईजेशनल वार भी शुरू हो चुकी है, जिसमें इस्लाम के कट्टरपंथी ईसाइयत को ललकार रहे हैं। 9/11 के बाद यह लड़ाई और तेज हो गई। विश्व की सांस्कृतिक ताकतों में भारत का भी अपना स्थान है। दक्षिण पूर्व एशिया के बौद्ध देशों व जापान को मिला कर यह तीसरा सांस्कृतिक मंच बनता है। पिछले कुछ समय से यह मंच भी सक्रिय ही नहीं हुआ है, बल्कि विश्व गुरु की आवाज भी आनी शुरू हो गई है। चीन भी अमेरिका को चुनौती दे रहा है और रूस के टूटने से रिक्त हुए स्थान को भरने की कोशिश कर रहा है। इसलिए अमेरिका को ऐसा भारत चाहिए जो चीन का भौतिक लिहाज से तो मुकाबला कर सके, लेकिन सांस्कृतिक आधार पर अपनी पुरातन जडें़ मजबूत न कर सके। इसलिए इस्लामी आतंकवाद के साथ हिन्दु आतंकवाद की अवधारणा को स्थापित किया जा रहा है। कनाडा तो महज मुखौटा है। असली सूत्रधार तो अमेरिका है। अमेरिका व कनाडा द्वारा पंजाब के गिरोहों को संरक्षण देने के पीछे यही रणनीति काम कर रही है। इन गिरोहों को जल्द से जल्द नेस्तनाबूद करना होगा। तभी पंजाब में शांति रहेगी और भारत समृद्धि की ओर बढ़ेगा।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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