मुक्ति के लिए व्याकुल

By: Dec 23rd, 2023 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

काशीपुर के उद्यान भवन के एक कक्ष में रामकृष्ण रोग शैय्या पर लेटे हैं। सभी शिष्य उनके पास खड़े हैं। उस कमरे में और कोई भी नहीं था। आज नरेंद्र नाथ पूरे संकल्प से आए थे कि जिस उपाय से भी हो, निर्विकल्प समाधि लेकर ही रहेंगे। चिरकाल, पुरुषकार के उपासक आज दया की शिक्षा मांगने आए हैं। लेकिन भय से, विस्मय से, सभ्रम से उनकी आवाज नहीं निकली। अंतर्यामी पुरुष शिष्य की मर्जी को समझ गए कि वो क्या चाहता है। श्री रामकृष्ण सस्नेह दृष्टि से उनकी तरफ ताकते हुए बोले, नरेंद्र तू क्या चाहता है। सही मौका पाकर नरेंद्र ने जवाब दिया, मैं शुकदेव की तरह निर्विकल्प समाधि के जरिए सदा सच्चिदानंद सागर में डूबे रहना चाहता हूं। श्रीरामकृष्ण के नेत्रों से किंचित अधीरता प्रकट हुई। उन्होंने कहा, बार-बार यही बात कहते हुए तुझे लज्जा नहीं आती। समय आने पर कहां आज अपनी ही मुक्ति के लिए व्याकुल हो उठा? क्षुद्र आदर्श है तेरा। नरेंद्र की आंखों में आंसू आ गए वो अभिमान के साथ कहने लगे, निर्विकल्प समाधि न होने पर मेरा मन किसी भी तरह शांत नहीं होगा और अगर मन शांत न हुआ, तो मैं वह सब कुछ भी न कर सकूंगा। तो क्या तू अपनी इच्छा से करेगा। जगदंबा तेरी गर्दन पकडक़र करा लेगी, तू न कर, तेरी हड्डियां करेंगी।

नरेंद्र की कातर प्रार्थना की उपेक्षा करने में असमर्थ होकर श्रीरामकृष्ण ने आखिर में कहा, अच्छा अब तू जा, निर्विकल्प कहानी होगी। शाम के समय एक दिन ध्यान करते-करते नरेंद्र अप्रत्याशित रूप से निर्विकल्प समाधि में डूब गए। उनकी समाधि काफी देर बाद भंग हुई। उन्होंने महसूस किया कि उनका मन उस स्थिति में संपूर्ण रूप से कामना शून्य होने पर भी, एक अलौकिक शक्ति उन्हें मर्जी के खिलाफ पंचेंद्रिय गाह्य बाह्य जगत में उतारकर ला रही है। बहुजन हिताय, बहुतन सुखाय कर्म करूंगा मैं और उपरोक्षानुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूंगा। समाधि में बैठने के बाद नरेंद्र ने यह शब्द कहे थे। सन् 1886 ई. जुलाई का अंतिम सिरा था। श्रीरामकृष्ण के गले में उसी रोग ने फिर दोबारा भयंकर रूप ले लिया था। वह बहुत ही धीमे-धीमे किसी से एक दो बात कर पाते थे। उनके पीने के लिए सिर्फ जौ का पानी ही दिया जाता था। वह भी निगलने में उन्हें काफी कठिनाई होती थी, लेकिन फिर भी इस महामानव की कृपा की कोई हद नहीं थी। हमेशा ही वह अपने भक्तों को उपदेश देते रहते थे। नरेंद्र को अपने पास बुलाकर कभी-कभी कहते नरेंद्र मेरे शिष्यों में तू सबसे ज्यादा बुद्धिमान व शक्तिशाली है, उनकी रक्षा और उन्हें सच्चाई के मार्ग पर चलाना अब तुम्हारा कर्तव्य है। क्योंकि अब मेरे पास ज्यादा समय नहीं है। एक बार रात के समय नरेंद्र की तरफ आंखों में आंसू भरकर देखते हुए बोले, पुत्र आज मैंने तुझे अपना सब कुछ दे दिया और मैं भिखारी बन गया। नरेंद्र थोड़ा ज्ञात होने लगा कि अब श्री रामकृष्ण की जीवन लीला समाप्त होने वाली है, इसीलिए वह बच्चों की तरह उनके सामने रोने लगा। उनके बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं था। यही बात नरेंद्र के मन को अंदर से खाए जा रही थी और वह व्याकुल हो उठता था। जब अपने को काबू करने में वह असमर्थ रहा तो कमरे से बाहर निकल गया। यह घटना श्री रामकृष्ण देव की महासमाधि के दो दिन पहले की है। – क्रमश:


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