सियासी रंगमंच का गोबर

By: Dec 23rd, 2023 12:05 am

पहले गोबर, फिर दूध और आगे न जाने क्या-क्या उठाकर भाजपा विधानसभा परिसर को सियासी रंगमंच बनाती रहेगी। गारंटियों के राजनीतिक बाजार में यह हिसाब नया नहीं है, लेकिन इस बार विपक्ष का स्वांग मनभावन है और यह साबित करता है कि नेताओं में अभिनय का कौशल किसी भी हद तक जा सकता है। अभिनय की राजनीति अगर केंद्र में मिमिक्री करने पर उतारू है, तो हिमाचल में विपक्ष की इस अदायगी का कुछ तो संदेश होगा। भाजपा वर्तमान सरकार की तमाम गारंटियों के आश्वासन और भाषण की याद दिलाती हुई गोशाला से फिलहाल एक हाथ में दूध तो दूसरे में गोबर उठाकर ले आई है। अब सवाल उस आवारा गऊ का है, जिसे न तो गोशाला मिली और न ही राजनीति या गारंटी का सहारा। कांग्रेस तो देर सबेर गोबर खरीद लेगी या दूध के जरिए बेरोजगार को अधिक कीमत का भुगतान करके आत्मनिर्भर बना देगी, लेकिन लावारिस- आवारा गाय को न छत और न ही ठिकाना मिल रहा है। जरा उसी किसान की व्यथा पूछ लेना जिसके समर्थन में भाजपा गोबर उठा कर घूम रही है। किसानों ने खेती से अपना संबंध तोड़ दिया क्योंकि आवारा पशुओं ने उसकी फसल को कब्रिस्तान बनाना शुरू कर दिया है। आवारा पशुओं की लत में जंगली जानवर भी मुंह उठा कर उसी खेत की बर्बादी को अंतिम पैगाम देते हैं। हिमाचल में वन संरक्षण अधिनियम की खाट पर बैठा बंदर हर दिन खेत नहीं उखाड़ता, बल्कि किसान की छाती पर मूंग दलता है। यही वजह है कि कांगड़ा, हमीरपुर, मंडी, चंबा और कई अन्य क्षेत्रों के किसानों ने खेतों से किनारा कर लिया है। यह ठीक है कि विपक्ष को कांग्रेस से उसकी गारंटियों के बाबत पूछना चाहिए, लेकिन खेती बचाए बिना किसान का क्या वजूद। किसान के खेत में फसल होगी, तो गोबर से निकली खाद अमृत होगी, वरना कहां हिमाचल अपनी गायों का दूध पी रहा है।

हम नहीं जानते भाजपा के विरोध की गगरिया में किसी हिमाचली गाय का दूध था या बाहरी प्रदेश की थैलियों में आयातित दूध से विपक्षी दल अपने विरोध की गंगा पैदा कर रहा है। आज तक वादों के अनुरूप हमें हिमाचल में पलती गाय-भैंस का प्रचुर मात्रा में दूध उपलब्ध हो जाना चाहिए था, लेकिन प्रदेश की सुबह को हर दिन इंतजार रहता है कि बाहरी प्रदेशों के ब्रांडिड दूध की गाड़ी हमें तृप्त करेगी। हमारे पास पूरा एक विभाग और दर्जनों प्रोत्साहनों की शृंखलाएं मौजूद हैं, लेकिन थैलियां बताती हैं कि हिमाचल के दुधारू पशु सिर्फ गोबर फैलाने के लायक बचे हैं। क्या हिमाचल में कृषि बची है या गाय के दूध पर आधारित व्यवसाय बचा है। अगर भाजपा गोबर उठा रही है, तो संबंधित विभागों और विश्वविद्यालय का गोबर भी उठाए ताकि मालूम हो कि प्रदेश अपनी प्रगति में कितना गौण है। दूसरी ओर कांग्रेस सरकार भी अपनी गारंटियों के मकडज़ाल में पर्वतीय राज्य की आर्थिकी और आत्मनिर्भरता के सपने को गुमराह कर रही है। आखिर हमारे और अन्य मैदानी इलाकों में कुछ तो अंतर है। हमारी आर्थिकी पर उस वक्त भी बुरा असर पड़ा था, जब पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने डेढ़ सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त कर दी थी और अब जबकि कांग्रेस की गारंटी तीन सौ यूनिट मुफ्त में गंवा कर शेखी बघारना चाहती है, तो इस क्रांतिकारी फैसले से खजाना कांप रहा है।

दरअसल हर गारंटी का वास्ता आर्थिक सेहत से है और ये पूरी तसल्ली से आर्थिक बोझ को उधार की खेती तक ले जाएंगी। हम भाजपा को नित नई मुद्रा में कांग्रेस की गारंटियों की याद दिलाते देख सकते हैं, लेकिन कब यह दौर प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर गौर फरमाएगा। सत्ता और विपक्ष के बीच कितनी भी दूरियां-मजबूरियां गिनी जाएं, लेकिन प्रदेश की आर्थिक कमजोरियों का एहसास जिंदा रखना होगा। सवाल यह नहीं कि मैंने या तुमने किस स्तर तक चादर से बाहर पांव पसारे, लेकिन यह जरूर है कि हिमाचल के पंक्चर पहियों पर भी हम फिजूलखर्ची का बोझ बढ़ा रहे हैं। प्रदेश को अपने संसाधनों की किफायत में जीने के कुछ उसूल चाहिए, जो न तो विपक्षी विरोध और न ही सत्ता की उदारता में दिखाई दे रहे हैं। हर बार हिमाचल का आर्थिक खेत पछताता है, लेकिन हर बार कुछ नई चिडिय़ां इसे चुग कर अगले चुनाव की प्रतीक्षा करती रहती हैं।


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