सत्र से शीतकालीन प्रवास तक

By: Dec 26th, 2023 12:05 am

तपोवन महज एक परिसर नहीं, हिमाचल को सियासी रूप से साधने की परिकल्पना है। साल के इंतजार में शीतकालीन सत्र के आलोक और राज्य की अभिव्यक्ति को परिभाषित करतीं तमाम दिशाओं ने अपना संगम स्थल यहां खोजा है। बेशक शिमला में विधानसभा का एक स्थायी चरित्र मौजूद है और वहां राजधानी होने का गुरूर भी, लेकिन तपोवन में आकर प्रदेश अपने सुर ऊंचे करता है। आंदोलन- आंदोलित होकर प्रदेश बहुत कुछ ऐसा भी यहां कहता है, जो शिमला में संभव नहीं। दरअसल सरकार के आईने यहां साफ हो जाते हैं, वरना हुकूमत का नशा शिमला है। इसी नशे के निवारण को लेकर राजनीतिक प्रयोग हुए, ताकि चुनावों की वकालत में सारा हिमाचल लिखा जा सके। दुर्भाग्यवश या विडंबना यह रही कि सरकार बदलते ही औलिया बदल गए, राजपाठ के तौर तरीके और नकाब बदल गए। कमोबेश हर सरकार के आगमन से हिमाचल का केंद्र और केंद्रीय भूमिका म प्रदेश बदल जाता है। यहीं से उत्पन्न होती हैं क्षेत्रवाद की सरहदें और सत्ता की फरमाइशें। इसीलिए हर मुख्यमंत्री ने अपने संबोधन और तरीके बदले ताकि राजनीति का सबसे अहम व वजनदार पक्ष खुशामद करे। वजन पूर्व में डा. वाईएस परमार, वीरभद्र सिंह, शांता कुमार, प्रेम कुमार धूमल और जयराम ठाकुर का यहां देखा गया, तो एक साल की सरकार का ताज पहने सुखविंदर सिंह सुक्खू को इस बार देखा गया। मंत्रिमंडल की रिक्तियों से विरक्त दीवारें लांघ कर सियासत के तजुर्बे, इस बार भी सरकारों के बीच अतीत के बंटवारे और भविष्य के रखवाले के रूप में मुख्यमंत्री के संतुलन को देख रहे हैं। सत्ता के बंटवारे से गैरहाजिर रहे वरिष्ठ विधायक एवं पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा व सुजानपुर के विधायक राजिंद्र राणा के इर्द-गिर्द संभावनाओं के दरवाजों पर लगी कीलें भीतरी रिसाव को रोक पाएंगी या इन्हें मुजरिम बना कर लोकसभा चुनाव की नई इबारत कांग्रेस लिख पाएगी।

दरअसल हिमाचल की सत्ता अपनी ही सत्ता की इबारत को न पढऩे में मशगूल रहकर राजनीति की नई फारसी पढ़वाना चाहती है। अगर इस हिसाब से एक साल की मीडिया रिपोर्ट, राजनीतिक कयास या भौगोलिक अपेक्षाओं के मुआयने देखे जाएं, तो मालूम हो जाएगा कि कसरतों में कहीं सरकार की मांसपेशियों का खिंचाव है। हिमाचल में राजनीतिक दुरुहता को साधना मुश्किल रहा है। सियासत के सारे पहाड़ कांगड़ा में तब से गिने जा रहे हैं, जब से यह क्षेत्र पंजाब पुनर्गठन के बाद भाषाई आधार पर हिमाचल में मिला। भले ही इसी क्षेत्र से शांता कुमार, प्रेम कुमार धूमल व सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन यहां अखाड़े कम नहीं हुए। हम यहां शांता कुमार से लेकर सुक्खू सरकार तक कई असंतुलन व टकराव देख सकते हैं, फिर भी छह बार के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह की राजनीतिक संरचना को उपहार मान सकते हैं। वीरभद्र सिंह ने शीतकालीन प्रवास को शीतकालीन सत्र तक और क्षेत्रीय कार्यालयों को शीतकालीन राजधानी तक पहुंचाया, लेकिन इस मॉडल को कभी कांगड़ा विभाजन से चीरने या मंत्रिमंडल के गठन में कमजोर करके देखा गया। ऐसे में पुन: सुखविंदर सिंह सरकार में शीतकालीन सत्र में मंत्रिमंडल की रिक्तियां, पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा की उदासियों व सत्ता के उदासीन माहौल में देखी गर्इं, तो आवश्यकता की अनिवार्यता में शीतकालीन सत्र से आगे शीतकालीन प्रवास के कदम देखे गए। जनता का हुजूम या मुद्दों की मुखरता अगर तपोवन में यज्ञ करती हैं, तो इसी के साथ शीतकालीन प्रवास की परंपरा में सत्ता के कोने बुलंद होते रहे हैं। राजनीति के इतिहास में दर्ज पन्नों को भले ही खारिज कर दिया जाए, लेकिन जब किसी परंपरा को बेवजह खारिज करेंगे तो असंतुलन संघर्ष की वजह बन सकता है। शीतकालीन प्रवास की स्थापित पंरपरा के भले ही मानक बदल दें, लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री को इस सतह का स्पर्श करना ही पड़ेगा। आगामी लोकसभा चुनावों के दृष्टिगत धरती मापने का सबसे बड़ा शगुन शीतकालीन प्रवास होगा और यह जन संवाद की दौलत बनकर मुख्यमंत्री की आभा का प्रचार भी बन सकता है।


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