कांग्रेस के लिए ताजा चुनावों के संकेत

चुनाव परिणाम आने के बाद ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू यादव, स्टालिन, अखिलेश यादव इत्यादि सभी ने इस बैठक में आने से इंकार कर दिया तो कांग्रेस को अपनी इंडी की यह बैठक ही स्थगित करनी पड़ी…

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलांगना और मिजोरम समेत पांचों राज्यों की विधानसभाओं के लिए हुए चुनावों के नतीजे दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में आ गए थे। ये चुनाव 2023 में होने वाले चुनावों के अंतिम चुनाव कहे जा सकते हैं। इसके कुछ महीने बाद ही 2024 में देश की लोकसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं। इसलिए देश की राजनीति में इनकी महत्ता ही नहीं बढ़ गई थी, बल्कि सभी राजनीतिक दलों का पारा भी जरूरत से ज्यादा चढ़ गया था। जहां तक इन चुनावों के नतीजों का सवाल है, भाजपा ने तीनों हिन्दी प्रदेशों यानी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत हासिल कर ली है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उसने कांग्रेस से सरकार छीनी है और मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बरकरार रखी है। मध्य प्रदेश विधानसभा की 230 सीटों में से भाजपा ने 163 पर जीत हासिल की। कांग्रेस के हिस्से केवल 66 सीटें आईं। राजस्थान विधानसभा की कुल 200 सीटों में से भाजपा ने 115 पर जीत हासिल की और कांग्रेस को 69 सीटें ही मिलीं। छत्तीसगढ़ विधानसभा की 90 सीटों में से भाजपा को 54 और कांग्रेस को 35 सीटें मिलीं। तेलंगाना विधानसभा में कुल 119 सीटें हैं। वहां अभी तक भारत राष्ट्र समिति की सरकार थी। कांग्रेस ने वह सरकार उससे छीन ली है। भाजपा ने 8 सीटें जीती हैं। ओवैसी का हैदराबाद और उसके आसपास थोड़ा असर लम्बे अरसे से है। उसने 7 सीटें जीती हैं। वैसे वह लम्बे अरसे से सात सीटें ही जीतता रहा है।

दक्षिण के छह राज्यों तमिलनाडु, पुदुच्चेरी, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश और तेलंगाना में भाजपा का प्रभाव नहीं है, ऐसा प्राय: माना जाता है। यह किसी सीमा तक सच भी कहा जा सकता है। उत्तर, पूर्व और पश्चिम में तो भाजपा मुख्य पार्टी है, लेकिन पूर्वोत्तर व दक्षिण में उसकी पैठ नहीं है। लेकिन धीरे धीरे भाजपा दक्षिण में भी आगे बढ़ रही है, इसके पुख्ता सबूत इस चुनाव ने भी दिए हैं। कर्नाटक में तो भाजपा मुख्य पार्टी है ही। वहां अब मोटे तौर पर भाजपा व कांग्रेस ही मुख्य दल हैं। कभी सरकार भाजपा की बनती है और कभी कांग्रेस की। यही राजनीतिक पंडित मानते हैं कि कर्नाटक भाजपा के लिए दक्षिण का सिंहद्वार बनाया है। पुदुच्चेरी में भी भाजपा सरकार में भागीदार है। पिछले चुनावों में भाजपा की महिला प्रत्याशी ने वहां के जाने माने अभिनेता कमल हासन को पराजित कर सभी को चौंका दिया था। भाजपा ने अपने बलबूते पहली बार वहां चार सीटों पर जीत हासिल की थी। अब सभी का ध्यान तेलंगाना की ओर लगा हुआ था। तेलंगाना में पिछले दस साल से एक क्षेत्रीय पार्टी भारत राष्ट्र समिति की सरकार थी। इन चुनावों में दो प्रश्न थे। क्या तेलंगाना भी तमिलनाडु और आन्ध्रप्रदेश की तरह क्षेत्रीय राजनीति का केन्द्र बन जाएगा और राष्ट्रीय दल हाशिए पर चले जाएंगे? तेलंगाना के मुख्यमंत्री इसी प्रयास में लगे थे। लेकिन तेलंगाना के लोगों ने इसे नकार दिया। कांग्रेस ने वहां इस क्षेत्रीय दल को पराजित कर जरूरत से तीन सीटें ज्यादा हासिल कर सरकार उससे छीन ली। लेकिन भाजपा के लिए तो यहां इससे भी बड़ा सवाल था। क्या भाजपा की यह दक्षिण यात्रा जारी रहेगी या फिर तेलंगाना इसको रोक देगा? 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा यहां केवल एक सीट जीत पाई थी। उसके बाद हुए दो उपचुनावों में भाजपा ने दो सीटें और जीत लीं। पिछले साल ही मीडिया में यह चर्चा भी होने लगी थी कि भाजपा तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति को पराजित करने की हालत में पहुंच गई है।

लेकिन यह शायद अतिशयोक्ति ही थी। भाजपा ने आठ सीटें और चौदह प्रतिशत वोट लेकर स्थापित कर दिया है कि उसने दक्षिण के इस राज्य में भी हाशिए से बाहर निकल कर स्वयं को प्रदेश की राजनीति के केन्द्र में स्थापित कर लिया है। कांग्रेस की सबसे बड़ी चिन्ता यही है कि पूर्व, पश्चिम और उत्तर के बाद अब भाजपा ने दक्षिण की ओर भी बढऩा शुरू कर दिया है। अब प्रश्न मिजोरम का। मिजोरम ईसाई प्रदेश है। इसकी जनसंख्या मात्र ग्यारह लाख है जिसमें से चार लाख लोग इसकी राजधानी आईजोल में ही रहते हैं। प्रदेश में मतदाताओं की संख्या 4078681 है। मिजोरम की विधानसभा में चालीस सीटें हैं। इनमें से चौदह सीटें आईजोल में ही हैं। पिछले लम्बे अरसे से वहां मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) नाम के क्षेत्रीय दल की सरकार थी। लेकिन इस बार जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जैडपीएम) नाम के दल ने उससे सत्ता छीन ली है। एमएनएफ को दस सीटें मिलीं जबकि जैडपीएम 27 सीटें ले गया। भाजपा को दो और कांग्रेस को एक सीट मिली। मिजोरम विधानसभा की दो सीटें ऐसी हैं जहां चकमा ही जीतते हैं। इनमें से एक सीट भाजपा ने लगभग छह सौ वोट के अन्तर से गंवा दी। पिछली बार विधानसभा में कांग्रेस के पास पांच सीटें थीं और भाजपा के पास एक सीट थी। मिजो समुदाय और कूकी समुदाय को एक ही माना जाता है। इसलिए मणिपुर की स्थिति के कारण ऐसा माना जा रहा था कि मिजोरम में इस बार भाजपा को लोग नजदीक नहीं फटकने देंगे, बल्कि कांग्रेस जीत जाएगी। यही कारण था कि मिजोरम की ईसाई पहचान को देख कर सोनिया गान्धी ने वहां के वोटरों से विशेष अपील भी की थी। लेकिन कांग्रेस इस लड़ाई में साफ ही हो गई। सबसे बुरी दशा आम आदमी पार्टी की हुई। लगभग एक दशक पहले केजरीवाल का आकलन था कि भ्रष्टाचार के कारण कांग्रेस का पतन शुरू हो चुका है। कांग्रेस के पतन से जो शून्य उत्पन्न होगा, उसकी भरपाई भाजपा करेगी। केजरीवाल के देशी विदेशी समर्थकों को भाजपा से डर लगता था। उन्हें क्षेत्रीय दलों से कोई डर नहीं था। उसके वैचारिक कारण थे। इसलिए कांग्रेस के पतन से उत्पन्न शून्य को केजरीवाल भरें, इस योजना के अन्तर्गत अन्ना हजारे को मोहरे के तौर पर इस्तेमाल करते हुए आम आदमी के नाम से केजरीवाल को मैदान में उतारा गया।

इन शक्तियों को आंशिक सफलता तब मिली जब केजरीवाल की पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव जीत गई। केजरीवाल का कट्टर ईमानदार का मुलम्मा तो तभी उतर गया जब उसके तीन-तीन मंत्री जेल चले गए और उन्हें जमानत तक नहीं मिली। लेकिन उसे लगता था नरेन्द्र मोदी को गाली देने मात्र से लड़ाई मोदी बनाम केजरीवाल बन जाएगी। यह गलतफहमी पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से और बढ़ गई। इससे उन्हें एक लाभ और हुआ। पंजाब के मुख्यमंत्री को साथ लेकर देश भर में घूमने के लिए उन्हें पंजाब सरकार का हेलीकाप्टर जरूर मुफ्त में मिल गया। इन चुनावों में केजरीवाल ने सभी राज्यों में अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए और प्रत्याशियों की संख्या के हिसाब से ही मोदी के प्रति अपशब्दों की संख्या भी बढ़ा दी। किसी भी राज्य में केजरीवाल को एक प्रतिशत वोट भी नहीं मिल पाए। एक आध को छोडक़र बाकी सभी प्रत्याशियों की जमानतें भी जब्त हो गईं। लगभग सभी राज्यों में केजरीवाल की पार्टी को नोटा से भी कम वोट मिले। अच्छी बात यह रही कि भाजपा ने चुनाव अभियान में भी आम आदमी पार्टी को मुंह नहीं लगाया। भाजपा को शायद लगता था कि केजरीवाल की किसी बात का जवाब देना भी केजरीवाल की अहमियत बढ़ाना होगा। लगभग तीस ज्ञात-अज्ञात पार्टियों से मिल कर जो इंडी एलायंस बनाया था, जिसमें कांग्रेस ने स्वयं ही अपने आपको इंडी एलायंस की धुरी मान कर व्यवहार करना शुरू कर दिया था, उसकी हवा इन चुनाव परिणामों ने निकाल दी है। कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने इंडी एलायंस के सभी घटकों की बैठक छह दिसम्बर को बुलाई थी। लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, लालू यादव, स्टालिन, अखिलेश यादव इत्यादि सभी ने इस बैठक में आने से इंकार कर दिया तो कांग्रेस को अपनी इंडी की यह बैठक ही स्थगित करनी पड़ी। इस तरह ये चुनाव कांग्रेस के लिए संकेत हैं कि वह कुछ नया करे।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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