कब बनेगा जदरांगल परिसर
‘गुस्से को भी चाहिए कुछ कद्रदानों की तालियां, हुजूम में चल सकते हैं सिर्फ बिके हुए लोग।’ गुस्से का घर बनाना अब देश को चलाना है और इसीलिए राजनीति को आक्रोश पसंद है। यही आक्रोश हिमाचल में भाजपा के मुखर अंदाज की वकालत में धर्मशाला पहुंचा, तो जिक्र कांगड़ा के इनसाफ तक पहुंच गया। आश्चर्य यह कि सत्ता का पेंडुलम चाहे कांग्रेस की ओर झुके या भाजपा का साथ दे, कांगड़ा के प्रति बहस का नजरिया हमेशा विपक्ष की सहानुभूति पर आकर टिक जाता है। इस बार भाजपा के लिए कांग्रेस का मंत्रिमंडल कांगड़ा की रणभूमि में इसलिए कमजोर है क्योंकि सरकार की गोटियों में एक साल बाद भी दो नेताओं को ही स्थान मिला। तर्क भाजपा के पक्ष में मजबूती से इसलिए खड़ा है क्योंकि जयराम सरकार में यही आंकड़ा इससे कहीं आगे खड़ा था। यह दीगर है कि वहां दो जमा दो की दौड़ में कांगड़ा के मंत्रियों को पद छोडऩे पड़े थे और वरिष्ठता के आधार पर किशन कपूर को दिल्ली, विपिन सिंह परमार को विधानसभा अध्यक्ष और रमेश धवाला को योजना बोर्ड का रास्ता देखना पड़ा था। बहरहाल भाजपा कांगड़ा की संवेदनाओं में फिर से हामी भरती हुई यह साबित कर रही है कि सुक्खू सरकार की पारी में यह सियासी पटल हार रहा है। सबसे बड़ा मुद्दा केंद्रीय विश्वविद्यालय के जदरांगल परिसर निर्माण को लेकर चिन्हित हुआ है। तमाम अड़चनों, राजनीतिक व्याख्याओं, वनापत्तियों और भूगर्भीय पैमाइशों के अंतहीन सिलसिले से निकल कर बरी हुआ जदरांगल परिसर आखिर कांग्रेस की पैमाइश में क्यों लटक गया। आक्रोश रैली ने सीधे पूछा ही नहीं, यह हिसाब भी मांगा कि कब केंद्रीय विश्वविद्याल के जदरांगल परिसर पर काम शुरू होगा और इसके निर्माण को आबंटित हुए ढाई सौ करोड़ खर्च होंगे। भाजपा के किशन कपूर और शांता कुमार पहले ही केंद्रीय विश्वविद्यालय के निर्माण को लेकर सुक्खू सरकार पर क्षेत्रीय भेदभाव का आरोप दर्ज करा चुके हैं। आश्चर्य व्यक्त करती हुई भाजपा पूछ रही है कि जब सारी अनुमतियां मिल चुकी हैं, तो सरकार वन विभाग को तीस करोड़ की राशि अदा न करके बहाने बना रही है। धर्मशाला परिसर के निर्माण में ढील को लेकर बुद्धिजीवी वर्ग खासा आक्रोशित है और एक बड़े आंदोलन का ऐलान कर चुका है। ऐसे में विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान विपक्ष के लिए अनेक मुद्दों के साथ केंद्रीय विश्वविद्यालय भी शिरकत करेगा। भाजपा ने ऐन शीतकालीन सत्र से पूर्व यह बता दिया कि विपक्ष की भूमिका में इस बार कांगड़ा की हिमायत वह करेगी।
यह प्रदेश की राजनीति का कुरुक्षेत्र है जो हमेशा तपोवन विधानसभा परिसर पर आकर अपना पता बताता है। तपोवन में विधानसभा का होना इसी कांगड़ा की सियासी मिट्टी का मक्का है, वरना सत्ता को हमेशा अपना शिखर शिमला में दिखाई देता है। वीरभद्र सिंह ने यह जान लिया था कि सत्ता की किश्तियां ब्यास के पानी से ही गुजरेंगी और यही ताकत इस बार फिर आजमाइश में है। वर्तमान मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू को इसी ब्यास ने सरकार की किश्ती सौंपी है और यह वजह भी है कि वह कांगड़ा को खुद से और खुद को कांगड़ा से जोड़ते हैं। वह कांगड़ा को हिमाचल की पर्यटन राजधानी बनाना चाहते हैं, इसलिए सदी की सबसे बड़ी परियोजना के तहत गगल एयरपोर्ट को अंतरराष्ट्रीय मानकों के तहत विस्तारित शक्ल देना चाहते हैं। यह दीगर है कि उनकी राजनीतिक कसौटियों में कांगड़ा की टीम बदल रही है, लेकिन इसमें कांगड़ा के राजनीतिक चरित्र का पिछलग्गू पक्ष यथावत है। सत्ता कैसी भी हो, किसी की भी हो, कांगड़ा की जनता हमेशा से सरकार के गठन में प्रमुखता से भागीदारी निभाती है। इस बार कुल दस विधायक देने वाले कांगड़ा के हिस्से भले ही दो मंत्री आए, लेकिन नेताओं का पिछलग्गूपन जारी है। दोष शिमला की सत्ता का कम, कांगड़ा के नेताओं का कहीं अधिक है। भाजपा की सरकार में भी रमेश धवाला, किशन कपूर व विपिन सिंह की क्षमता को ग्रहण लगा था, इस बार चपेट में सुधीर शर्मा आ गए तो जाहिर है उनके क्षेत्र के हिस्से में आया केंद्रीय विश्वविद्यालय का जदरांगल परिसर चीख रहा है। यह आवाज पिछलग्गू नेताओं को शायद न सुनाई दे, लेकिन विपक्ष के लिए यह मुद्दा सरकार की मंशा को टटोलने तथा कांगड़ा की संवेदना को बटोरने का रहेगा। शायद कांग्रेस सरकार ऐसे विरोध के जवाब में खुद को कांगड़ा हितैषी साबित करते हुए इसकी जोरदार घोषणा ही कर दे।
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