अंधे कुओं की विरासत

By: Jan 4th, 2024 12:05 am

इतना वक्त गुजर गया, उन्हें कुछ पता ही नहीं चला। कल तक जो अपने आपको नवांकुर कह कर उनके गमलों में रोपित हो जाना चाहते थे, आज वह अचानक बरगद बन कर उन्हें अपने साये से महरूम कर देना चाहते हैं। कल तक जो उन्हें क्रांतिकारी कह उन पर आलोक आरोपित कर उसकी विरासत का ध्वज जो जाना चाहते थे, आज उन्हें बीते जमाने की अंधेरी परछाई कह उससे यूं अलग हुए कि जैसे चिहुंक कर कहते हो, छाया मत छूना मन। हो जाएगा दुख दूना मन। वे लाख उन्हें गलत कह दें सच सच चिल्ला दें, बस्ता ढोने से कहीं बेहतर है, अपना ग्रंथ आप रचने का दावा करना। आजकल जल्दी समझ आ जाती है, किसी ज्योति स्तंभ से आलोकित होने की बजाय उसके समानान्तर अपना ज्योति स्तंभ स्थापित कर देने का शुबहा पैदा कर देना। यह सच है जो आज उनके आंगन में झूठ था, वह हमारे आंगन में सच का शृृंगार बनेगा, तभी तो हमारी मौलिकता, हमारे अलगाव की ताजपोशी होगी। ऐसा उन्होंने सब को बता दिया। इसीलिए तो आज सहज स्वीकार से अधिक सार्थक आक्रामक नकार हो गया है। हर बदलाव के आंदोलन का सामना करने का एक ही तरीका है, पहली जितनी देर हो सके, उसके सुगबुगाते हुए बजूद की अवहेलना कर दो, फिर अपनी मूर्तिभंजक भूमिका से किसी ऐसे दरकिनार कर दिए गए तर्क के ढांचे को शिरोधार्य कर वाचाल स्वर में उसका प्रतिस्थापन कर दो। बदलाव की पहली आवाज़ खुद ही शर्मिंदा हो कर गूंगी हो जाएगी। आपका विकल्प के रूप में उत्पन्न झूठा सच ही बदलाव की बयार बन जाएगा। पुरोधा को नकार कर ही भविष्य पुत्र पैदा होते हैं। समय हमेशा आने वाले कल को आशीर्वाद देता है, बीते कल के लिए तो आजकल कोई विदागान भी नहीं गाता।

यह वक्तव्य अपनी दाड़ी खुजाते एक भविष्य जीवी नागरिक अपने समकक्ष दूसरे सत्य की पैरवी करते हुए समकालीन जुझारुओं के लिए कहा था कि जिनकी समकालीनता छीन उन्हें पिटा हुआ बोसीदा सच कह उन्हें पटरी से उतार देने में ही जैसे अपना क्रांतिबोध मारक बना रहे थे। लीजिए एक क्रांति संभाषण से बड़ा बन कर दूसरा संभाषण उससे टकराया। टकरा कर ये सब संभाषण तो अपनी सफलता की मंजिलें तय करते चल गए, नीचे धरती तल पर रह गए, वे करोड़ों लोग, जिन्हें अपने कंधों पर बैठाकर इन भाषणबाजों ने उड़ान भरनी थी। उड़ान तो उनकी जारी है, परंतु इस उडऩखटोले पर सवार हैं उनके नाती-पोते, जो कभी उनके अपने आदमी थे, वही बन गए वंशज, जिनके पत्तों पर तकिया वही अब उन्हें हवा देता कह कर इधर-उधर बिखरा दिए गए। प्रगति के रास्ते पर सत्ता की दलाली के इतने टीले खड़े हो गए कि परिवर्तन की पुकार नासमझी लगने लगी है। और हर क्रांति की हुंकार बड़ी हवेलियों के द्वार से अपनी प्राण वायु के लिए कतार लगाती दिखने लगी है। अब कोरोना की वापसी का नया वायरस कम खतरनाक होने की घोषणा करते हुए लोगों से हाथ मिला रहा है। अजी, धन जन की सत्ता के सिंह पुत्रों का कारोबार दहशत के इन पंखों से ही उड़ान भरता है।

निवेश के आकाशचारियों ने तरक्की के नए आसमान छू लिए, जो धनपति थे और परिवर्तन के नाम पर मरते निवेश को जिंदगी दे देने का दावा कर रहे थे, वे तो दुगनी तरक्की कर गए और उनकी कतार से बहिष्कृत लोगों की रोज़ी-रोटी भी गई। उखड़े हुए लोगों के भाग्य में तो उखडऩा ही लिखा होता है। उनका बेकार युवा बल गांवों से उखड़ता है तो शहरों की ओर धंधा पाने का रुख करता है। अंधे कुओं की यह कैसी विरासत है, जो कानून बदलाव की क्रांति को एक शुबहे में बदल देती है। यह परिवर्तन युद्ध संशय के किन बादलों में भटक रहा है कि लाखों दुआओं के बाद महामारी के उपचार के टीके निकले तो उन्हें भी प्रभावहीनता के संशय से ढंका जा रहा है। हां, एक नए स्वच्छ, स्वस्थ और समतावादी लोकतंत्र का निर्माण करना है। परिवर्तन के अग्रदूत आज भी कहते हैं, लेकिन उनके हर कदम पर संशय के मेघदूत क्यों बरसने लगते हैं? इन प्रश्नों के इस सलीब का जवाब तलाशने हम कहां जाएं।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com


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