असहमति का विपक्षी गठबंधन

By: Jan 14th, 2024 7:54 pm

अब विपक्षी ताकत की राजनीतिक मीमांसा का समय आ गया है। चुनावों की घोषणा 15 मार्च के करीब की जा सकती है। राजनीतिक दलों की लामबंदी, रणनीति, संगठन, गठबंधन का यह सबसे नाजुक दौर है। उसके बाद चुनाव प्रचार के अंधड़ आरंभ हो जाएंगे, तो फिर कुछ भी विचार करना असंभव होगा। हमारा फोकस विपक्षी गठबंधन पर इसलिए है, क्योंकि वह ही बुनियादी लोकतांत्रिक चुनौती है। रणनीति तय करने और उसे लागू करने में भाजपा का कोई सानी नहीं है। अयोध्या राम मंदिर का ‘चुनावी लाभ’ उसे हर हाल में मिलेगा, यह खुद भाजपा कबूल कर रही है। धार्मिक आस्थाएं चकाचौंध कर देती हैं, लिहाजा विवेक और विचार की आंखें मुंदने लगती हैं। बेशक बेरोजगारी, महंगाई, अर्थव्यवस्था, जातीय गणना, सत्ता के एकाधिकार, महिला उत्पीडऩ और आर्थिक विषमताएं आदि बेहद गंभीर और ज्वलंत मुद्दे हैं, लेकिन विडंबना है कि भारतीय लोकतंत्र में इन मुद्दों पर चुनावी जनादेश तय नहीं होते। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में विपक्षी एकजुटता की जरूरत ज्यादा बढ़ जाती है, लेकिन दुर्भाग्य है कि विपक्ष को अभी तक एहसास नहीं हो पाया है। ‘इंडिया’ गठबंधन की 5वीं बैठक वर्चुअल तौर पर शनिवार को हुई, जिसमें 10 दलों के नेता ही शामिल हुए। गठबंधन में 28 घटक दलों का दावा किया जाता रहा है। ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे सरीखे बड़े दलों के बड़े नेता ‘ऑनलाइन’ बातचीत करने का भी वक्त नहीं निकाल पाए अथवा वे किसी मुद्दे-विशेष को लेकर नाखुश, असंतुष्ट हैं, यह सवालिया स्थिति ही बनी रही। न जाने किन मुगालतों में ये नेता जी रहे हैं? जो नेता बैठक में मौजूद भी रहे, उनमें सीटों के बंटवारे पर चर्चा तक नहीं हुई, तो फिर गठबंधन के मायने क्या हैं? हालांकि टुकड़ों-टुकड़ों में सीटों पर बातचीत होती रही है, लेकिन वे बेनतीजा ही रही हैं, क्योंकि असहमतियों का दबाव ज्यादा है।

‘इंडिया’ के गठन को छह माह से अधिक का समय गुजर चुका है, लेकिन संयोजक, सचिवालय, साझा जनसभाएं, साझा न्यूनतम कार्यक्रम और झंडा, नारा आदि बुनियादी मुद्दे ही अनसुलझे हैं। मजबूरी में मल्लिकार्जुन खडग़े को ‘इंडिया’ का अध्यक्ष तय किया गया है, जिस पर आधिकारिक फैसला अभी होना है। खडग़े प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उन्हें आम चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस की अपनी रणनीति, 350 से ज्यादा उम्मीदवार, संसाधन, प्रचार के व्यापक तौर-तरीके भी तय करने हैं। वह राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ से भी तटस्थ नहीं रह सकते। यह यात्रा कांग्रेस की चुनावी रणनीति की ही यात्रा है। एक 81 वर्षीय व्यक्ति से क्या-क्या अपेक्षाएं की जा सकती हैं? नीतीश कुमार असंतुष्ट और अनमने हैं, लिहाजा उन्होंने ‘संयोजक’ पद की पेशकश ही अस्वीकार कर दी है, लेकिन सीटों के बंटवारे पर उन्होंने अपनी चिंताएं जरूर जाहिर की हैं। उन्होंने कहा है कि काफी देर हो रही है। कायदे की चुनावी तैयारी के लिहाज से यह देरी मुनासिब नहीं है। देशहित और आम लोगों के हित में अधिक से अधिक गैर-भाजपा पार्टियां एकजुट हों, एक साथ मिलकर मुकाबला करें, इसी सोच के तहत कवायद की गई थी, लेकिन वक्त फिसल रहा है। दरअसल विरोधाभास यह भी है कि गठबंधन के ताकतवर घटक अपने-अपने दावे पर अड़े रहे हैं। मसलन-सपा अध्यक्ष की धमकी-सी है कि यदि बसपा को ‘इंडिया’ का हिस्सा बनाया गया, तो सपा गठबंधन से अलग हो जाएगी। इसके बावजूद कांग्रेस की एक समिति चुपचाप बसपा अध्यक्ष मायावती के संपर्क में है। महाराष्ट्र में उद्धव शिवसेना की जिद है कि वह 23 सीटों पर ही चुनाव लड़ेगी। यह स्थिति तब भी, जब शिवसेना संगठित पार्टी थी। आज तो वह विभाजित पार्टी है और असली शिवसेना एकनाथ शिंदे के पास है। उद्धव अपनी जिद को क्यों नहीं पिघलाते? पंजाब में आप और कांग्रेस में स्पष्ट विभाजन है। बंगाल और बिहार में कांग्रेस एक चुकी हुई पार्टी है, लेकिन उसकी सीटों की मांग बहुत ज्यादा है। केरल में कांग्रेस और वामपंथी दल एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं और जमकर कोस रहे हैं।


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