जन-समानता के ट्रैक पर कब दौड़ेगी रेल

By: Jan 3rd, 2024 12:05 am

समानता का अमृत एक बूंद ही पहुंचे, सबको मिलना ही चाहिए, सरकारों को देना ही होगा। राशन की तरह जरूरी…

भारत बहुत विशाल देश है। विभाजन के बाद भी कन्याकुमारी से लेकर पंजाब में अटारी तक, उत्तर-पूर्व से लेकर पश्चिम तक, हिमाचल की चोटियों से लेकर सागरों के संगम तक विशाल भूभाग में फैला भारत देश है। अपने देश के सभी भागों में बसे भारतीयों को जोडऩे के लिए, व्यापार एवं उद्योग के लिए भारतीय रेल का बहुत बड़ा महत्व है। यह ठीक है कि सामान ढोने के लिए ट्रकों तथा यात्रियों को गंतव्य तक पहुंचाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी बसें भी महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। हमारे पर्यटक हजारों मीलों की दूरी बसों द्वारा ही तय करते, तीर्थ यात्रा करते, पर्यटन का आनंद लेते हैं। पहाड़ों के शिखरों, लद्दाख, किन्नौर आदि से लेकर सिक्किम के उच्च शिखरों तक और फिर राजस्थान के दुनिया के सबसे बड़े रेगिस्तानों तक रेल और बस से ही पहुंचते हैं, लेकिन यह सत्य है कि हमारे देश के लोग अधिकतर रेल यात्रा ही पसंद करते हैं और यात्रा के लिए रेलगाडिय़ों का ही सबसे बड़ा सहारा है और यही यातायात के साधन हैं। भारतीय रेलवे के स्वामित्व में, भारतीय रेलवे में 12147 लोकोमोटिव, 74003 यात्री कोच और 289185 वैगन हैं और 8702 यात्री ट्रेनों के साथ प्रतिदिन कुल 13523 ट्रेनें चलती हैं। भारतीय रेलवे में 300 रेलवे यार्ड, 2300 माल ढुलाई और 700 मरम्मत केंद्र हैं। यह दुनिया की चौथी सबसे बड़ी रेलवे सेवा है। यह भी सच है कि भारत के सवा दो करोड़ से ज्यादा लोग प्रतिदिन रेलयात्रा करते हैं।

कटड़ा-वैष्णो देवी से लेकर कन्याकुमारी तक यात्रा करवाने वाली रेलगाडिय़ां अब देश में हैं। एक समय ऐसा भी था जब न बैठने के लिए सीटें आरामदायक थीं और न ही तेज गति की गाडिय़ां। अब भारत की जनता को सरकारों के सतत प्रयास से पिछले 75 वर्षों की साधना के साथ आज सुखद तेज गति वाली गाडिय़ां उपलब्ध हैं। पिछले एक दशक में तो रेल यात्रा में क्रांतिकारी सुधार हुए हैं। शताब्दी, जन शताब्दी, वंदेमातरम, उससे पहले गरीबरथ, जन शताब्दी जैसी गाडिय़ां भारत की जनता की सेवा में हैं। यह भी सच है कि अगर ये मालवाहक गाडिय़ां न होतीं तो शीघ्र गति से देश के एक भाग से दूसरे भाग में आवश्यक वस्तुएं भी न पहुंच पातीं। कौन नहीं जानता कि दो-चार दिन ही कोयला न मिले तो कोयले से चलने वाले सभी बिजली उत्पादक प्लांट ठप हो जाएं और लोग अंधेरों में रहने को विवश हो जाएंगे। इसलिए हर सरकार की यह कोशिश रहती है कि कोयला जहां से भी उपलब्ध है, वह शीघ्रातिशीघ्र अपने प्रांत में पहुंचाया जाए। कौन नहीं जानता कि पंजाब सरकार ने इसके लिए अब बहुत ही प्रशंसनीय प्रयास किए हैं। एक सवाल फिर सुरसा के मुंंह की तरह। शायद सुरसा का मुंह उससे छोटा है, जो सवा दो करोड़ लोग प्रतिदिन रेल यात्रा करते हैं, उनमें से बहुत बड़ा वर्ग उन लोगों का है जो आर्थिक दृष्टि से सरकार की किताब में बहुत गरीब हैंं, मुफ्त राशन लेने वाले हैं। उज्ज्वला योजना की सुविधा भी प्राप्त कर रहे हैं। अंत्योदय समाज भी है। वैसे लोग भी हैं जो केवल दो-चार सौ रुपया रोज भी कमाने के लिए उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर तक इन गाडिय़ों का ही सहारा लेते हैं। इन लोगों की यात्रा सुविधाजनक बनाने के लिए रेल यात्रा में समानता तो दूर, घोर असमानता है।

एक तरफ तो कुछ रेल गाडिय़ां ऐसी हैं जिनके डिब्बों में न धूल पहुंचती है, न बाहर स्टेशन पर खड़े लोग अंदर की गद्देदार सीटें कभी छू भी सकते हैं और एसी की हवा का आनंद तो ले ही नहीं सकते। रेलवे स्टेशन पर प्रवेश करते ही आर्थिक असमानता का मुंह बोलता कहिए या विषम दर्शन कहिए, हो जाता है। जैसे ही प्लेटफार्म पर हम यात्री लोग सामान सिर से उठाकर या उठवाकर रखते हैं तो पहला प्रयास होता है किसी प्रतीक्षालय को पाने का। मैं कभी नहीं भूल सकती कि जिन दिनों तीसरे दर्जे की टिकट लेकर, अब उसका नाम दूसरा दर्जा हो गया है, स्टेशन पर जाते थे तो फिर प्रतीक्षालय के बाहर लगा बोर्ड और सामने खड़ी कर्मचारी यह याद करवा देती थी कि यह प्रतीक्षालय उच्च श्रेणी की टिकट के साथ ही आरक्षण पाए यात्रियों के लिए है। किसी शारीरिक आवश्यकता के लिए उस प्रतीक्षालय के अंदर दो पल जाने के लिए लंबे समय तक कर्मचारी को हाथ जोडक़र यह समझाना पड़ता था कि अत्यंत आवश्यक है, कृपया आज्ञा दे दीजिए। अब भी इसी सप्ताह प्रतीक्षालयों के बाहर लगे वही सूचनापट्ट देखे। उच्च श्रेणी के आरक्षित टिकट वाले यात्रियों के लिए प्रतीक्षालय। सारे स्टेशन के केवल एक प्लेटफार्म पर यह सुविधा रहती है और वे यात्री जो इतने आर्थिक साधन नहीं रखते, उनके लिए खुले में ही प्रतीक्षालय हैं। परिवार के छोटे-बड़े सदस्यों के साथ बच्चे और महिलाएं किसी बेंच पर या जमीन पर एक साधारण सा कपड़ा बिछाकर सोते हैं, बैठते हैं, खाते हैं। सबसे करुणामय दृश्य तब हो जाता है जब रेलगाड़ी के स्टेशन पर पहुंचते ही कोई सिर पर बच्चों को उठाकर, कोई सामान की गठरी पीठ पर लटकाकर, ट्रंक सिर पर लिए दौड़ते हैं, शिक्षा का अभाव भी वहां काफी रहता है। बहुत देर तक यह जान ही नहीं पाते कि जिस रेल के डिब्बे में उनको चढऩा है वे आगे हंै या पीछे, और दौड़ लगी रहती है।

कई बार पुलिस कर्मचारियों द्वारा मैले कपड़े वालों को बार-बार जांच के लिए रोकना गाड़ी छूटने का कारण भी बनता है। मैं सीधी बात कह रही हूं संत कबीर की तरह, उन्होंने कहा था : तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी। यह आंखों देखा है जो आज से पचास वर्ष पूर्व देखा वही आज से दो दिन पूर्व भी देखा और फिर कोई मेला आ जाए जैसे सबसे बड़ा मेला बिहार के लिए छठ का, तब जो दुर्गति होती है वह तो उन लोगों के चुने हुए सांसद और विधायक भी देखने को तैयार नहीं, जिनके वोटों से वह एसी, प्रथम श्रेणी में पहुंच गए या आकाश में उडऩे लग गए। क्या भारत सरकार और रेल मंत्रालय यह विचार नहीं करेगा कि जो मानवीय शारीरिक आवश्यकताएं हैं उनके लिए तो प्रबंध करे। बार-बार हम सुनते हैं और देखा भी है कि इंदौर देश का सबसे स्वच्छ नगर है। वह स्वच्छ इसलिए है क्योंकि सरकार ने उसके लिए प्रबंध किए हैं। हर चौक-चौराहे में सुलभ शौचालय हैं, जिससे गंदगी सडक़ पर फैलाने के लिए कोई नहीं जाता। खुले में शौच करना मजबूरी हो सकती है, इच्छा नहीं। इसी तरह अगर रेलवे स्टेशनों पर भी हमारी सरकारें गरीब यात्रियों के लिए मुफ्त राशन लेने वालों का ध्यान करके ही रोटी-रोजी के लिए मजदूरी करने एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश जाने वालों के लिए सरकार प्रबंध करे तो देश का कोई भी नागरिक जानबूझकर गंदगी नहीं फैलाएगा। इसी प्रकार रेलवे स्टेशन पर भी सर्दी, गर्मी से बचने के लिए सभी यात्रियों के लिए प्रबंध होना चाहिए तथा कुछ ऐसे गाइड भी वहां नियुक्त रहने चाहिएं जो इन यात्रियों को दिशा निर्देश देकर सही ठिकाने पर पहुंचा दें, पर सरकारें क्या यह नहीं जानतीं कि आर्थिक घोर असमानता के कारण एक व्यक्ति तो गर्मी-सर्दी में मौसम की मार से सुरक्षित यात्रा करता है और दूसरा गर्मी-सर्दी का कोप सहता है।

शौचालय के बाहर नहीं, अंदर भी पूरा दिन काटने को विवश है। सीट के ऊपर की तो बात ही क्या, सीट के नीचे भी जगह नहीं मिलती। मनुष्य पशुओं से भी बुरी हालत में इन रेलों में यात्रा करता है। कौन देखेगा? कब विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था का थोड़ा सा अंश मूलभूत सुविधाओं के नाम पर इन तक पहुंचेगा। कब रेल मंत्री और सांसद रेलवे स्टेशनों पर पहुंचकर आम लोगों के साथ बैठेंगे। आम लोगों की तरह यात्रा करेंगे। कितनी बड़ी विडंबना कि जिन जनता के पैसों से सांसद, मंत्री, विधायक और उच्चाधिकारी सुखद यात्राएं करते हैं, वे बेचारे सुखद क्या होता है, देख ही नहीं पाते, वहां पहुंचना तो बहुत कठिन है। भारत सरकार को, रेल मंत्रालय को, सांसदों, विधायकों को यह तो करना ही पड़ेगा। अब केवल सोचने और भाषणों का समय नहीं। जनता को मानवीय जीवन की प्राकृतिक आवश्यकताएं पूरा करने के लिए भी अमानवीय व्यवहार सहना पड़े, भारत की स्वतंत्रा के अमृत महोत्सव में अब यह नहीं चलना चाहिए। समानता का अमृत एक बूंद ही पहुंचे, सबको मिलना ही चाहिए, सरकारों को देना ही होगा। यह भी राशन की तरह ही जरूरी है।

लक्ष्मीकांता चावला

स्वतंत्र लेखिका


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