जीवन का सारा दायित्व

By: Feb 10th, 2024 12:20 am

श्रीराम शर्मा

उन्नति के मार्ग किसी के लिए प्रतिबंधित नहीं हैं। वे सबके लिए समान रूप से खुले हैं। परमात्मा के विधान में अन्याय अथवा पक्षपात की कोई गुंजाइश नहीं है। जो व्यक्ति अपने अंदर जितने अधिक गुण, जितनी अधिक क्षमता और जितनी अधिक योग्यता विकसित कर लेगा, उसी अनुपात में उतनी ही अधिक विभूतियों का अधिकारी बन जाएगा। असंख्यों बार यह परीक्षण हो चुके हैं कि दुष्टता किसी के लिए भी लाभदायक सिद्ध नहीं हुई। जिसने भी उसे अपनाया वह घाटे में रहा और वातावरण दूषित बना। अब यह परीक्षण आगे भी चलते रहने से कोई लाभ नहीं। हम अपना जीवन इसी पिसे को पीसने में, परखे को परखने में न गंवाएं तो ही ठीक है। अनीति को अपनाकर सुख की आकांक्षा पूर्ण करना किसी के लिए भी संभव नहीं हो सकता, तो हमारे लिए ही अनहोनी बात संभव कैसे होगी? इस संसार में अच्छाइयों की कमी नहीं। श्रेष्ठ और सज्जन व्यक्ति भी सर्वत्र भरे पड़े हैं, फिर हर व्यक्ति में कुछ अच्छाई तो होती ही है। यदि छिद्रान्वेषण छोडक़र हम गुण अन्वेषण करने का अपना स्वभाव बना लें, तो घृणा और द्वेष के स्थान पर हमें प्रसन्नता प्राप्त करने लायक भी बहुत कुछ इस संसार में मिल जाएगा। जो अपना सर्वस्व पूर्ण रूप से परमात्मा को सौंपकर उसके उद्देश्य में नियोजित हो जाता है,पूरी तरह से उसका बन जाता है, परमात्मा उसके जीवन का सारा दायित्व खुशी-खुशी अपने ऊपर ले लेता है और कभी भी विश्वासघात नहीं करता। ऐसा विचार मत करो कि उसका भाग्य उसे जहां-तहां भटका रहा है और इस रहस्यमय भाग्य के सामने उसका क्या बस चल सकता है। उसको मन से निकाल देने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी तरह के भाग्य से मनुष्य बड़ा है और बाहर की किसी भी शक्ति की अपेक्षा प्रचंड शक्ति उसके भीतर मौजूद है, इस बात को जब तक वह नहीं समझ लेगा, तब तक उसका कदापि कल्याण नहीं हो सकता।

ऐसा कोई नियम नहीं है कि आप सफलता की आशा रखे बिना, अभिलाषा किए बिना, उसके लिए दृढ़ प्रयत्न किए बिना ही सफलता प्राप्त कर सकें। प्रत्येक ऊंची सफलता के लिए पहले मजबूत, दृढ़, आत्म श्रद्धा का होना अनिवार्य है। इसके बिना सफलता कभी मिल नहीं सकती। भगवान के इस नियमबद्ध और श्रेष्ठ व्यवस्थायुक्त जगत में भाग्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। जिसने अनीति के मार्ग पर चलकर धन कमाया, उनकी वह कमाई चोरी, बीमारी, विलासिता, मुकदमा, नशा, रिश्वत, व्यभिचार आदि बुरे मार्गों में खर्च होती देखी गई है। जैसे आई थी, वैसे ही चली जाती है। पश्चाताप, पाप और निंदा का ऐसा उपहार अंतत: वह छोड़ जाती है, जिसे देखकर वह कुमार्गगामी अपनी नासमझी पर दु:ख ही अनुभव करता रहता है। परस्पर प्रोत्साहन न देना हमारे व्यक्तिगत सामाजिक जीवन की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। किसी को प्रोत्साहन भरे दो शब्द कहने के बजाय लोग उसे खरी-खोटी असफलता की बातें कर निरुत्साहित करते हैं, हिम्मत तोड़ते हैं, जिससे दूसरों को निराशा, असंभावनाओं का निर्देश मिलता है और हमारे सामाजिक विकास में गतिरोध पैदा हो जाता है। दूसरों को सुधारने से पहले हमें अपने सुधार की बात सोचनी चाहिए। बुराइयों को दूर करना एक प्रशंसनीय प्रवृत्ति है।


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