‘अंतरात्मा’ की चुनावी परंपरा

By: Feb 29th, 2024 12:05 am

स्वतंत्र भारत के इतिहास में पालाबदल और क्रॉस वोटिंग का सबसे सनसनीखेज और विवादास्पद उदाहरण 1969 का राष्ट्रपति चुनाव था। 16 अगस्त, 1969 को पांचवें राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। लोकसभा के पूर्व स्पीकर नीलम संजीवा रेड्डी कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार थे, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनकी उम्मीदवारी से सहमत नहीं थीं, लिहाजा उन्होंने पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ, अपने उम्मीदवार के तौर पर, लोकप्रिय मजदूर यूनियन नेता वीवी गिरि को चुनाव मैदान में उतार दिया। गिरि ने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा। तब स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और विपक्ष के अन्य दलों ने सीडी देशमुख को अपना साझा उम्मीदवार बनाया। वह पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार में वित्त मंत्री रह चुके थे। उस दौर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘अंतरात्मा’ के आधार पर मतदान करने का आह्वान किया था। नतीजा यह हुआ कि वीवी गिरि को 4,20,077 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीवा रेड्डी को 4,05,427 वोट हासिल हुए। वीवी गिरि राष्ट्रपति चुनाव जीत गए। इस स्तर का वह एकमात्र चुनाव रहा, क्योंकि उसके बाद ‘अंतरात्मा’ की आवाज पर राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ा गया, लेकिन पालाबदल, पलटुओं, क्रॉस वोटिंग के चुनावों की लंबी परंपरा हमारे देश में रही है। इसे स्वतंत्र बौद्धिक, वैचारिक मतदान का नाम दिया गया अथवा घोड़ों की तरह विधायक खरीदे-बेचे गए या राजनीतिक दल के दायरे और उनकी निष्ठाएं बदलती रहीं। यह मुद्दा प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के दौर में भी उठा, जब गुप्त मतदान के बजाय खुले मतदान की पैरवी की गई। अंतत: 2001 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कानून मंत्री अरुण जेतली ने ‘खुले मतदान’ पर विधेयक संसद में पेश किया और वह कानून बना।

समस्या जस की तस रही और अब 2024 के राज्यसभा चुनाव में उप्र, हिमाचल, कर्नाटक आदि राज्यों में विधायकों ने खुल कर ‘क्रॉस वोटिंग’ की। बयान दिए जाते रहे कि उन्होंने ‘अंतरात्मा’ की आवाज पर, जिसे योग्य समझा, उसके पक्ष में वोट किया। दरअसल इसके साथ दलबदल की समस्या भी जुड़ी है। उसे रोकने पर भी कानून है, लेकिन क्रॉस वोटिंग के साथ-साथ विधायकों के दलबदल भी सामने आए हैं। उनके खिलाफ संसदीय अथवा विधानसभा के स्तर पर कार्रवाई बहुत लंबी चलती है, देरी भी होती है या आगामी चुनाव का समय भी करीब आ जाता है। फिर कानून के फायदे क्या हैं? महाराष्ट्र का उदाहरण सबसे ताजा है। उप्र में समाजवादी पार्टी के 7 विधायकों ने भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में क्रॉस वोटिंग ही नहीं की, बल्कि पार्टी भी बदल ली। उनमें विधानसभा में सपा के मुख्य सचेतक मनोज पांडेय भी एक हैं। इसका असर अमेठी, रायबरेली, अयोध्या समेत 7 लोकसभा सीटों पर पडऩा निश्चित है। यही नहीं, गुजरात से छह बार के सांसद एवं पूर्व रेल राज्यमंत्री नारायण राठवा अपने बेटे समेत कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हो गए हैं। महाराष्ट्र कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष वासवराज पाटिल ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। बिहार में कांग्रेस के 2 विधायक मुरारी गौतम और सिद्धार्थ सौरभ और राजद की विधायक संगीता कुमारी ने भी दलबदल कर भाजपा का पाला चुना है। चर्चा है कि भाजपा ने कांग्रेस नेताओं को लोकसभा चुनाव लड़वाने का आश्वासन दिया है। दलबदल या क्रॉस वोटिंग नैतिकता या किसी ईमान का सवाल नहीं है और न ही जनता के साथ धोखा है। जनता अगले चुनाव में अपना जनादेश देकर उन्हें सही ठिकाने लगा सकती है, लेकिन इनसे सरकारें अस्थिर होती हैं और अंतत: प्रभाव जनता पर ही पड़ता है। अब अहम सवाल यह है कि क्या ऐसा कानून बनेगा कि एक दल से जीतने के बाद पाला न बदला जा सके।


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