ये घाटे के शहर

By: Feb 26th, 2024 12:05 am

स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत विकसित हो रहे हिमाचल के दो शहरों के बजट की दास्तान यह समझाने में असमर्थ है कि भविष्य की तिजोरी में क्या छिपा है। घाटे के शहरों पर लादे गए प्रशासनिक व आर्थिक सपने केवल सियासी ताजपोशी के मंसूबे बनकर रह गए हैं। आखिर नागरिक भागीदारी में धर्मशाला और शिमला जैसे शहरों का भविष्य पढ़ा कहां जाए। सिर्फ आंकड़ों के लाग-लपेट में शहरीकरण की यह तस्वीर धुंधली है। कम से कम राष्ट्रीय स्वच्छता के मानदंडों व सर्वेक्षणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शिमला जैसे शहर की तहजीब भी अब इस काबिल नहीं कि मध्यप्रदेश के इंदौर जैसे शहर की ओर स्वच्छता की दृष्टि से आंख उठाकर देखा जा सके। क्या आने वाले वर्ष में गंदगी और कूड़ा-कर्कट प्रबंधन के दाग मिट जाएंगे। क्या ऐसे प्रयास या दावे शिमला व धर्मशाला के बजटों में हो रहे हैं। विडंबना यह है कि शहरी बजट की तासीर में ऊंचे सपने हैं ही नहीं और न ही हाल ही में आया सुक्खू सरकार का बजट बता रहा है कि प्रदेश के नगरों में नागरिक जीवन में सुधार आएगा कैसे। शिमला-धर्मशाला की स्थिति बेहतर हो सकती थी, लेकिन स्मार्ट सिटी परियोजना का कार्यान्वयन धोखा दे रहा और तालमेल की कमी ने इस वसंत को भी उजाड़ दिया। अगर हम शहरी आर्थिकी के हिसाब से हिमाचल के नगर निकायों की परवरिश करते, तो एक अलग मुकाम पर इसके जरिए रोजगार व व्यापार खड़ा होता। धर्मशाला जैसे नए नगर निगम को अपने अस्तित्व के आठ साल गुजारने के बाद भी मालूम नहीं है कि नई प्रबंधकीय व्यवस्था से ऐसा क्या अंतर आ गया। शहरों का कद जिन ग्रामीण इलाकों में फैल रहा है, वहां शहरी एहसास को पेश करने के लिए सरकार की ओर से विशेष पैकेज होने चाहिएं, ताकि मज्र्ड एरिया का नियमन तीव्रता से हो। शहरों के बीच कर ढांचे की दीवारें खड़ी कर देने से नए नगर निगमों के उद्देश्य ही खंडित होंगे।

हिमाचल में शहरीकरण दो जमा दो चार नहीं हो सकता और न ही यह मैदानी इलाकों की तरह का गणित है। जो प्रदेश कुछ समय पहले तक नब्बे फीसदी से भी अधिक भाग को ग्रामीण मानकर चल रहा था, वहां यथार्थ में अब यह घटकर सत्तर प्रतिशत से भी कम है, लेकिन किसी भी सरकार ने आज तक शहरी आबादी का गणित बजट में नहीं किया। आज भी राजनीतिक नेतृत्व टीसीपी के दायरे से क्षेत्रों को हटाने की वकालत करता देखा जाता है। उदाहरण के लिए धर्मशाला के साथ लगते योल छावनी क्षेत्र का प्रबंधन दशकों से एक खास सैन्य व नागरिक शहर के रूप में होता रहा, लेकिन अब इसे ग्रामीण मानकर राजनीति भले ही प्रसन्न हो जाए, वहां की व्यवस्था व गंदगी का आलम नरक में धकेल रहा है। इस क्षेत्र को धर्मशाला नगर निगम के सुपुर्द किया जाता, तो शहरी प्रबंधन की आदत से सराबोर क्षेत्र अपनी मिलकीयत में दाग लगाने से बच जाता। शहरों को अगर ढंग से चिन्हित करें, तो विकास के मील पत्थर और आर्थिक वृद्धि की अधोसंरचना का विकास होगा। शहर अपनी कमाई का जरिया ढूंढ रहे हैं, लेकिन पार्षदों का टोला हाथ आई सियासत को मुफ्त में खोना नहीं चाहते। नगर निगमों की संख्या में विस्तार का औचित्य पूरा करना है, तो उन्हें आगे बढऩे का रास्ता भी दिखाना होगा।

यह इसलिए कि शिमला के खाते में ग्रीन टैक्स दस करोड़ ला सकता है, तो इसी तर्ज पर धर्मशाला नगर निगम को भी ऐसी मेहनत करनी चाहिए। विडंबना यह है कि शहर अपनी भूमि, अपनी संपत्ति, अपनी संभावना, अपनी क्षमता और अपनी दृष्टि का नुकसान कर रहे हैं और यह इसलिए हो रहा है क्योंकि शहर की काबिलीयत बढ़ाने के लिए जनता अभी पार्षदों की पृष्ठभूमि नहीं बदल रही। स्थानीय स्वशासन की महक में रचने बसने के लिए इन निकायों के बजट को आत्मनिर्भरता के आंगन में सजाना पड़ेगा। हर बड़े शहर को अगली सदी के मानचित्र में रंग भरने के लिए महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं, निजी निवेश के रास्ते पर चलते हुए अपनी संभावनाओं को रेखांकित करने के लिए भूमि बैंक बनाकर काम करना होगा। शहरी विकास के ढांचे में हिमाचल सरकार को भी विशेष प्रयास करने पड़ेंगे ताकि पर्यटन, मनोरंजन, इवेंट तथा व्यापार के क्षेत्र में नया रोजगार विकसित हो।


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