न्यायिक व्यवस्था की सक्रियता व आम जनमानस

By: Mar 18th, 2024 12:05 am

यह देश के स्वायत्त संस्थानों के असंवेदनशील व्यवहार के प्रति देश की सर्वोच्च अदालत का असाधारण आदेश है। सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश लोकतांत्रिक व्यवस्था के अधीनस्थ संस्थाओं की निरंकुशता व असंवैधानिक कृत्यों पर रोक लगाने में कारगर साबित होगा…

देश व प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था एक ऐसा संवैधानिक संस्थान है, जो देश के आम नागरिकों के लोकतान्त्रिक, सामाजिक एवं मानवीय अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करता है या इन सभी कारकों की रक्षा एवं सुरक्षा के प्रहरी के रूप में कार्य करता है। देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्वतंत्रता और समानता की पक्षधर है। सतही स्तर पर वर्तमान में देश व प्रदेश में जिन घटनाक्रमों का पटाक्षेप हो रहा है, उनकी विवेचना पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान राजनीति, राजनीतिज्ञ, प्रशासन एवं प्रशासनिक अधिकारी लोकतंत्र की इस मूल धारणा के विपरीत अराजकता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, रिश्वतखोरी आदि अनुचित कार्यों में लिप्त हैं। इन कृत्यों पर अंकुश लगाने की दिशा में देश की न्यायिक व्यवस्था निरंतर प्रयासरत है। न्यायिक निर्णय, तर्क-वितर्क एवं तथ्यों की शुचिता पर आधारित होते हैं जिसके आधार पर ही माननीय न्यायाधीश अपने न्यायिक निर्णय का निर्धारण करते हैं। यह सर्वविदित है कि देश व प्रदेश के अधीनस्थ न्यायालयों में अधिकांश मुकदमें दो पक्षकारों के मध्य छोटे-छोटे झगड़ों, आपसी मतभेद या अहंकार, भूमि विवाद से सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार के मुकद्दमों को गुण-दोष के आधार पर निर्धारित तय समय सीमा में निर्णय होना चाहिए, जिससे आम जनमानस, साधारण न्याय प्राप्त करने में, मानसिक एवं आर्थिक रूप से अत्यधिक प्रताडि़त हो रहा है। अपने व्यक्तिगत विकास की गति में अवरोध उत्पन्न कर रहा है।

वर्तमान असमानता पूर्ण, भ्रष्टाचार युक्त व्यवस्था में, तथ्यों एवं तर्क -वितर्क को भी वादी-प्रतिवादी अपनी सुविधानुसार न्यायालय में प्रस्तुत कर सकता है जिसके परिणामस्वरूप उस न्यायिक निर्णय में न्याय-अन्याय के चरित्र में कोई भी भेद नहीं रह जाता है। कालांतर से ही यह सत्यापित है कि न्याय एवं मानव निर्मित कानून दीन एवं दुर्बल अपराधी को ही दंडित करता है, जबकि समर्थ व प्रभावी अपराधी अपने धन बल, छल एवं प्रभाव से सर्वथा दोष मुक्त रहता है। इससे यह प्रतीत होता है कि वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में भी आम नागरिकों मुख्यत: निर्धन, दलित एवं महिला वर्ग के लिए न्याय प्राप्त करना एक कल्पित वस्तु है। अथक मेहनत और प्रयास से जो न्याय मिलता भी है, निश्चित रूप से थका देने वाला होता है। न्याय के सिद्धांत के संदर्भ में एक कहावत प्रचलित है कि न्याय प्राप्ति में विलम्ब भी पीडि़त पक्ष के साथ अन्याय ही माना जाता है। प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा प्रदेश पुलिस महा निदेशक एवं जि़ला कांगड़ा के व्यवसायी के मध्य विवाद की निष्पक्ष जांच के निष्पक्षता हेतु प्रदेश पुलिस महा निदेशक व जि़ला कांगड़ा के पुलिस अधीक्षक को उनके पद से विमुक्त करने का आदेश, प्रदेश उच्च न्यायालय का एक साहसिक एवं ऐतिहासिक निर्णय था। इसके उपरान्त के घटनाक्रम में प्रदेश पुलिस महा निदेशक द्वारा देश की सर्वोच्च अदालत में अपने पक्ष को प्रस्तुत करते हुए, इस निर्णय को लेकर स्थगन आदेश प्राप्त करना, देश व प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था में याचककर्ता की सजगता व धन बल की प्रासंगिकता या उसके महत्व को इंगित करता है। अब प्रश्न न्याय-अन्याय का नहीं है, अपितु न्यायिक व्यवस्था में भी किस प्रकार से तत्परता के साथ अपने अधिकारों की सुरक्षा की जा सकती है, उसको प्रमाणित करता है।

इसके विपरीत यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या देश का आम नागरिक जिसमें महिला, दलित, आर्थिक रूप से अक्षम व्यक्ति सम्मिलित हैं, इस प्रकार से त्वरित न्याय प्राप्ति की दिशा में ऐसा प्रयास कर, न्याय प्राप्त कर सकता है? इसका स्पष्ट सा उत्तर है, कदापि नहीं, क्योंकि जिस प्रकार देश व प्रदेश की न्यायिक व्यवस्था का वर्तमान चरित्र है, उस संदर्भ में माननीय उच्चतम न्यायालय की पीठ द्वारा देश की न्यायिक प्रक्रिया को सजा बताना, देश की वर्तमान न्यायिक प्रणाली की दशा को बयान करता है। देश का लचर न्यायिक ढांचा, देश व प्रदेश के न्यायालयों में लम्बित मुक़द्दमों का अत्यधिक दबाव एवं अधिवक्ताओं का आपसी गठजोड़, देश के न्यायालयों में विचाराधीन मुक़द्दमों के त्वरित निर्णय एवं समाधान में सबसे प्रमुख बाधा हैं। अपितु दोषमुक्त न्यायिक प्रक्रिया में न्यायिक मानकों एवं मापदंडों की पूर्ति में अप्रतिक्षित चुनौतियां एवं रुकावटें वादी-प्रतिवादी के समक्ष होती हैं। इन चुनौतियों के उपरान्त भी अनिर्णय व उचित समाधान न होने से, कोई भी मुक़द्दमा वादी-प्रतिवादी के लिए एक दिशाहीन लड़ाई के रूप में परिवर्तित हो जाता है, जोकि न्याय प्राप्ति के मूल मंतव्य के विपरीत है। केन्द्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ के महापौर पद के चुनाव के दौरान सम्बन्धित पीठासीन अधिकारी द्वारा जिस प्रकार से लोकतान्त्रिक एवं संवैधानिक अधिकारों के विपरीत कार्य किया गया, इस संदेहास्पद स्थिति पर माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा संज्ञान लेने के उपरान्त त्वरित कार्यवाही करना देश की न्यायिक एवं लोकतान्त्रिक व्यवस्था के प्रति आम जनमानस की आस्था व दृष्टिकोण को सशक्त करता है,अन्यथा इस प्रकार के असंवैधानिक एवं अलोकतान्त्रिक कृत्यों में सम्मिलित नेताओं एवं अधिकारियों की निरंकुशता लोकतान्त्रिक व्यवस्था को ध्वस्त करने की दिशा में अग्रसर रहती है।

इस प्रकरण से यह प्रमाणित होता है कि संवैधानिक संस्थाओं में प्रभावशाली व्यक्तियों के अविवेकी, असंतुलित, पूर्वाग्रह ग्रस्त निर्णय इन संस्थाओं के संवैधानिक एवं लोकतान्त्रिक आधारों की नींव को खंडित करने की दिशा में प्रयासरत रहते हैं।
माननीय उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा भारतीय स्टेट बैंक चुनावी बाण्ड के दाताओं के विवरण को सार्वजनिक करने व विवरण को 15 मार्च तक उपलब्ध करवाने का कठोर आदेश पारित करना भी उल्लेखनीय है। यह देश के स्वायत्त संस्थानों के माननीय न्यायालय व कानून के प्रति असंवेदनशील व्यवहार के प्रति देश की सर्वोच्च अदालत का असाधारण आदेश है। सर्वोच्च न्यायालय का यह आदेश लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अधीनस्थ संस्थाओं की निरंकुशता व असंवैधानिक कृत्यों पर रोक लगाने में कारगर साबित होगा।

किशन बुशैहरी

स्वतंत्र लेखक


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