जहां तक कानून ने देखा

By: Mar 23rd, 2024 12:05 am

पर्यटन की महफिल में मुसीबतों के पहाड़ का अंदाजा लगाना मुश्किल है, फिर भी अदालती संज्ञान की वजह से हम देख पाते हैं कि कितना काम बाकी और सरकार की हर एजेंसी को इस दिशा में कैसे सोचना होगा। माननीय उच्च न्यायालय ने फोरलेन के किनारे पर मलबे के टीले देखते हुए इन्हें तुरंत प्रभाव से हटाने के निर्देश दिए हैं। यह कालका-शिमला फोरलेन मार्ग का परिदृश्य है जिसे कानून ने देखा तो खामियां संबोधित हो गईं, वरना इन मंजिलों से रोजाना व्यवस्था लांघ कर भी अनजान है। कालका-शिमला फोरलेन को हाई कोर्ट ने जिस तरह परखा, उस पड़ताल के सबूत हर छोटे-बड़े मार्ग पर डराते हुए मिल जाएंगे। रास्ते की चौड़ाई पर मलबों के ढेर लगे हैं, हकीकत में चारों ओर यही हाल है। माननीय अदालत ने कीरतपुर-मनाली फोरलेन के किनारे आराम से बसे हुए अवैध निर्माण को हटाने के भी निर्देश दिए हैं। आश्चर्य यह कि ऐसे विषय प्रशासन की छाती पर तने हैं, फिर भी कानून को ही हर बार बताना और बुलाना पड़ता है। अवैध कब्जाधारी इतने सशक्त और निर्भय हैं कि सामान्य परिस्थितियों में ऐसा कसूर भी बेकसूर है। हमारी नीतियां, शासन पद्धति की बारीकियां और कार्य संस्कृति इस कद्र की जुगलबंदी में शरीक हैं कि अतिक्रमणकारी अब विशेषाधिकारी हो चुके हैं। सरकारी विकास के मार्ग पर अतिक्रमण के पंजे इतने भारी हैं कि हर परियोजना के विरोध में एक दुकानदारी चली है।

हिमाचल में विशेष आर्थिक जोन की हर वकालत के विरोध के पीछे अतिक्रमणकारी शक्तियां रही हैं और ये व्यवस्थागत व सियासी शरण में सुरक्षित हैं। हर स्थानीय निकाय के जुर्म में उन्हीं के सदस्य अपना बचाव करते हुए जमीन से संपत्तियों तक कब्जा करते रहे। धर्मशाला के कचहरी अड्डे के करीब स्मार्ट रोड की हर लंबाई और चौड़ाई पर एक दुकान खड़ी है, लेकिन शहर को फुर्सत नहीं कि इस अतिक्रमण की विरासत का विरोध करे। प्रदेश के धार्मिक पर्यटन तथा प्रशासनिक शहरों के ऊपर अतिक्रमण के पांव चल रहे हैं, लेकिन नागरिक समाज इससे प्रेरित होकर खुद भी अवसर ढूंढ रहा है। विकास का संघर्ष नागरिक समाज से भी कहीं अधिक अतिक्रमण से है। कांगड़ा एयरपोर्ट विस्तार के मामले में भी यही तथ्य सामने आया, तो सरकार ने पहली बार अवैध निर्माण के गले में भी मुआवजे का हार डाल दिया। अतिक्रमण के घूमते फिरते दैत्य अब वाहन बने हैं। आप सडक़ें चौड़ी करते जाइए, लेकिन गांव से शहर तक वाहनों के कब्जे में सारी व्यवस्था ध्वस्त है, इसलिए अगर हाई कोर्ट डीसी कुल्लू को पार्किंग व्यवस्था पर निर्देश दे रहा है, तो यह हुक्म हर शहर की योजना में झांक रहा है। वास्तव में हम यानी नागरिक समाज महज खिलौना है, जो यदा कदा अदालती निर्देशों में अपनी किस्मत के चिराग ढूंढता है। प्रदेश ने आज तक पार्किंग के लिए कोई नीति नहीं बनाई। प्रदेश में पंजीकृत 22 लाख वाहनों के अलावा इतने ही अगर बाहरी राज्यों से जुड़ रहे हैं, तो इसका अर्थ पार्किंग को दीन हीन बनाने से तभी रोक सकता है, यदि सरकार त्वरित विचार करे।

हर शहर की चारों दिशाओं में चार मैदान बनाकर, नालों का चैनलाइजेशन करते हुए इनके ऊपर पार्किंग स्थल बना कर या मलबे को दूरगामी परियोजना के तहत आकार देते हुए समाधान ढूंढा जा सकता है। अगर वाहन पंजीकरण के साथ एकमुश्त पार्किंग शुल्क लगाया जाए तो बाईस लाख वाहनों से मात्र हजार-हजार रुपया वसूल कर भी हम सवा दो सौ करोड़ की पार्किंग परियोजनाओं को अमलीजामा पहना सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदेश में दर्जन भर ट्रांसपोर्ट नगर बसा कर तथा हर शहर में महापार्किंग परिसर विकसित करके निजात पा सकते हैं। माननीय अदालत की चिंताओं में पर्यटक सहूलियतों का जिक्र व प्रदेश की छवि का गंभीर प्रश्र उभरता है। कहने को हम पांच करोड़ पर्यटकों की राह देख रहे हैं, लेकिन क्या हम इस आवाजाही में वाहनों की कतार व रफ्तार का अंदाजा लगा रहे हैं। भागसूनाथ में पंजाब से आए पर्यटक की मौत के कारण समझे बिना हम पर्यटन की नगरियां नहीं बना सकते। आज हिमाचल की कानून व्यवस्था की सबसे अधिक चुनौतियां पर्यटन मार्ग से ही आ रही हैं और ये मलबे के ढेर से ट्रैफिक जाम तक, पार्किंग की अफरातफरी से पर्यटक की सुरक्षा तक और नशे से व्यभिचार तक फैल रही हैं।


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