शिक्षा शर्मिंदा है

By: Mar 29th, 2024 12:05 am

तीनों हुए बदनाम, गुरु, शिष्य और शिक्षण परिसर। केंद्रीय विश्वविद्यालय के शाहपुर परिसर की अस्थायी हुकूमत में एक प्रोफेसर ने अपने चरित्र की चाबुक से बहुत कुछ घायल कर दिया। अध्ययन व अनुसंधान के बीच छात्रा से हुए दुष्कर्म की परिभाषा में सारा माहौल आक्रोशित है, तो निलंबन की कार्रवाई से अनुशासन की गवाही दी जा रही है। आज भी बिखरा है तेरे अध्ययन का मिजाज, तूने इमारतों में केवल अस्त व्यस्तता भर ली। क्या पीएचडी के नए फार्मूले से ईजाज हो रही हैं शरारतें या केंद्रीय विश्वविद्यालय की अमानत पर आचरण की डोली उठ गई। जो भी हो, यह अवांछित निर्लज्जता का अति अशोभनीय उदाहरण है, जिसका जवाब बहुत सख्त व आत्मचिंतन से भरा है। अध्ययन व अनुसंधान की ऐसी परिपाटी क्यों बनीं, जहां शिक्षा परिसर गुनाहगार और शिक्षक अभियुक्त बन गया। चीखीं होंगी शिक्षण संस्थान की ऊंची दीवारें तथा शर्मिंदा होने के सिवा और क्या बचा होगा विश्वविद्यालय के प्रशासन के पास। कुछ दोष हैं, जिनकी विश्वविद्यालय प्रशासन अनदेखी कर गया। कुछ तो शिकायतें पहले भी रही होंगी, जिनपर गौर नहीं किया गया। कुछ तो गलियां बदनाम थीं, कुछ हमने पांव दलदल में धर दिया। अब किसके आंसू पोंछें, जिसकी शिक्षण परिसर में रक्षा नहीं हुई या जिन अभिभावकों ने ‘गुरुवंदना’ के स्वरूप में विश्वास किया। उस चयन की आलोचना करें जहां उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे चरित्र विद्यमान हो रहे हैं या अब मान लें कि इस विश्वविद्यालय की बुनियाद में खोट है।

अगर केंद्रीय विश्वविद्यालय के इतिहास को देखें, तो इस कुकर्म पर भी आंखें मूंद कर खुद अपराध बच जाएगा। क्या केंद्रीय विश्वविद्यालय कांगड़ा या हिमाचल का अपराधी नहीं या सियासत की जोर आजमाइश में हम भूल गए कि इस स्तर के संस्थान को पारंगत करने के लिए कितनी ईमानदारी चाहिए। हैरानी है कि एक दशक से इस विश्वविद्यालय परिसर के लिए भ्रष्टतम सियासत हुई। जिस विश्वविद्यालय ने हिमाचल को राजनीति का खिलौना बना दिया, उसमें खिलौने का टूटना हादसा ही नहीं, लक्ष्यों का टूटना भी है। अगर शोध की शाखा में दुष्कर्म की गुंडई चल रही है, तो इस घुटन की आहों को कहां तक सुनें। क्या केंद्रीय विश्वविद्यालय अपनी आवारगी के बीच देहरा, शाहपुर या धर्मशाला परिसर में सुरक्षित है। क्या हम देख पाए कि एक राष्ट्रीय संस्थान की पैरवी में कितना अनुचित मोल भाव हुआ। शाहपुर की घटना का पश्चाताप करते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन सौ तरह की वाणी बोल रहा है, मगर उस एहसास का क्या करें जहां अनुसंधान के खाके में प्रोफेसर साहिबों की एक टोली तरह-तरह की घूस टटोल रहे हैं। जरूरी नहीं किसी ने शरीर पर डाका डाला, लेकिन यह अब पूरी अनुसंधान प्रक्रिया पर प्रश्रचिन्ह भी लगा रहा है। सवाल तो विश्वविद्यालय की नियमावली तक उठेंगे और यह भी पूछा जाएगा कि ऐसी प्रणाली की परीक्षा क्यों नहीं, जहां अब एक प्राध्यापक लांछित है।

यह अनियमितताओं की ओर इशारा नहीं, बल्कि पड़ताल की दुहाई देती वारदात है। बेशक विश्वविद्यालय ने ‘पाने’ की चर्चाओं में खुद को प्रतिष्ठित व मान्यता के आलोक में पहुंचाने की हर संभव सफल कोशिश की है, लेकिन शाहपुर परिसर में उभरा सुराख अब अनियमितताओं के सुराग ढूंढने की हिदायत देता है। पहले तो इसे अध्ययन-अनुसंधान के अनुशीलन की नई परिपाटी से जोडऩा होगा। विश्वविद्यालय को तुरंत प्रभाव से शिक्षा की आत्मा और ज्ञान की असली लौ को टटोलना होगा। नियुक्तियों के परिधान ने एक वहशी प्रोफेसर क्यों छुपा लिया और क्या यह अंतिम जालिम था, इस पर विचार करने के लिए कुछ तो हलचल हो। यह मुद्दा जदरांगल परिसर के लिए वांछित तीस करोड़ न आने से भी बड़ा इसलिए है, क्योंकि इमारतों के भीतर चारित्रिक इमारत बुरी तरह टूटी हुई दिखाई दे रही है।


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