डर कर काम करता है सरकारी तंत्र

By: Mar 16th, 2024 12:05 am

सीबीआई की तरह एसबीआई की चुनावी फंड के मामले में हुई किरकिरी से साबित हो गया है कि पिंजरे का तोता सिर्फ एक ही विभाग नहीं है। सरकारी विभाग सत्तारूढ़ दलों की कठपुतलियों की तरह काम करते हैं। सत्ता बदलते ही दूसरे दलों की भाषा बोलने लगते हैं। पारदर्शिता को लेकर सरकारी मशीनरी की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए…

सरकारी मशीनरी डंडे के जोर से काम करती है। इसका उदाहरण चुनावी बांड के खुलासे से हो गया। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (एसबीआई) ने इस मामले को टरकाने के प्रयास किए, किन्तु सुप्रीम कोर्ट के सामने दाल नहीं गल सकी। बांड के जरिए चुनावी चंदा देने वाले उद्योगपतियों के नाम और राशि छिपाने के एसबीआई के सारे प्रयासों पर सुप्रीम कोर्ट ने पानी फेर दिया। एसबीआई की मंशा थी कि इस चंदे के मामले का खुलासा जून महीने के बाद किया जाए ताकि लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद इस मामले को आने वाली केंद्र सरकार संभाल सके। एसबीआई ने इस बांड खुलासे की अवधि को लंबा खींचने के लिए कई तरह के बहाने बनाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में साफ कह दिया कि यदि निर्धारित तारीख तक इसकी जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी गई और चंदे का ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया गया तो सख्त कार्रवाई की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भारतीय चुनाव आयोग ने 14 मार्च को चुनावी बॉन्ड से जुड़े डेटा को जारी किया था। चुनावी बॉन्ड यानी इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा डेटा वही डेटा है जिसे चुनाव आयोग के साथ 12 मार्च को एसबाआई ने शेयर किया था। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर 2 लिस्ट जारी किए गए हैं। इसमें कुल 763 पन्ने हैं जिनमें चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियों और लोगों के नाम शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के सामने एसबीआई ने घुटने टेक दिए। जिस विवरण को जुटाने के लिए जून माह तक समय मांगा जा रहा था, उसे एसबीआई ने चंद दिनों में ही पूरा कर दिखाया। इससे जाहिर है कि कार्रवाई के भय से सरकारी तंत्र तूफान की गति से काम कर सकता है। सरकारी मशीनरी में लगी जंग तभी हटती है, सुप्रीम कोर्ट जैसे आदेशों की पालना करनी होती है। गौरतलब है कि यह पहला मौका नहीं है जब किसी सरकारी विभाग ने कोर्ट के भय के मारे घोड़े की गति से काम किया है।

कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट के मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो इसका दूसरा बड़ा उदाहरण है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कानून मंत्री और पीएमओ की दखलअंदाजी को लेकर नाराजगी जाहिर की थी। नाराजगी जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख शब्दों में कहा था कि सीबीआई के कई मास्टर हैं और जांच एजेंसी पिंजड़े में कैद तोते जैसी है। सरकार को फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जब सीबीआई स्वतंत्र ही नहीं है तो वो निष्पक्ष जांच कैसे कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीबीआई वो तोता है जो पिंजरे में कैद है जबकि सीबीआई एक स्वायत्त संस्था है और उसे अपनी स्वायत्तता बरकरार रखनी चाहिए। सीबीआई को एक तोते की तरह अपने मास्टर की बातें नहीं दोहरानी चाहिए। एसबीआई ने भी सीबीआई की तरह व्यवहार किया है। इस पर सुप्रीम कोर्ट को सख्ती दिखाने पर विवश होना पड़ा। एसबीआई फिर भी होशियारी दिखा रही है। अदालत ने बैंक से पूछा है कि बॉन्ड नंबरों का खुलासा क्यों नहीं किया। बैंक ने अल्फा न्यूमिरिक नंबर क्यों नहीं बताया। अदालत ने एसबीआई को बॉन्ड नंबर का खुलासा करने का आदेश दिया है। अदालत का आदेश है कि सील कवर में रखा गया डेटा चुनाव आयोग को दिया जाए, क्योंकि उनको इसे अपलोड करना है। अदालत ने कहा कि बॉन्ड खरीदने और भुनाने की तारीख बतानी चाहिए थी। दरअसल यूनिक आईडी हर एक बॉन्ड का यूनिक नंबर होता है। इसके जरिए आसानी से यह पता लगाया जा सकेगा कि आखिर किस कंपनी या व्यक्ति ने किस पार्टी को चंदा दिया है। चंदा देने वाले और चंदा पाने वालों की सभी जानकारी एक ही स्थान पर उपलब्ध रहेगी। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि बॉन्ड नंबरों से पता चल सकेगा कि किस दानदाता ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया है। केंद्र सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम शुरू से ही विवादों में घिरी रही है। इस स्कीम के तहत जनवरी 2018 और जनवरी 2024 के बीच 16518 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए थे और इसमें से ज्यादातर राशि राजनीतिक दलों को चुनावी फंडिंग के तौर पर दी गई थी। इस राशि का सबसे बड़ा हिस्सा केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को मिला था।

इन बॉन्ड्स पर पारदर्शिता को लेकर कई सवाल उठ रहे थे और ये आरोप लग रहा था कि ये योजना मनी लॉन्डरिंग या काले धन को सफेद करने के लिए इस्तेमाल हो रही थी। इलेक्टोरल बॉन्ड्स की वैधता पर सवाल उठाते हुए एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर), कॉमन कॉज और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत पांच याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। एडीआर के संस्थापक और ट्रस्टी प्रोफेसर जगदीप छोकर ने कहा कि यह फैसला काबिले-तारीफ है। इसका असर यह होगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स स्कीम बंद हो जाएगी और जो कॉरपोरेट्स की तरफ से राजनीतिक दलों को पैसा दिया जाता था जिसके बारे में आम जनता को कुछ भी पता नहीं होता था, वो बंद हो जाएगा। इस मामले में जो पारदर्शिता इलेक्टोरल बॉन्ड्स स्कीम ने खत्म की थी वो वापस आ जाएगी। इस मामले से बतौर याचिकाकर्ता जुड़े रहे माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी कहते हैं कि यह स्कीम असंवैधानिक थी और लेवल प्लेइंग फील्ड (समान अवसर) को खत्म करती थी। येचुरी ने कहा कि शुरू से ही उनकी और उनकी पार्टी की राय यह थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक भ्रष्टाचार को वैध बनाने का साधन है। सीताराम येचुरी कहते हैं कि सही तो यही होगा कि पैसा वापस किया जाए क्योंकि यह स्कीम ही असंवैधानिक है। लेकिन हम चाहते हैं कि जिन कंपनियों ने यह पैसा राजनीतिक दलों को दान किया, यह उन्हें वापस न जाए। ये पैसा सरकारी खाते में जमा होना चाहिए और चुनावों के स्टेट फंडिंग की योजना को शुरू किया जाना चाहिए। बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि ये निर्णय एक बहुत ही प्रामाणिक उद्देश्य के लिए लाया गया था। चुनाव में पारदर्शिता हो फंडिंग में, इसके लिए लाया गया था। चुनाव में कैश का प्रभाव कम हो उसके लिए भी लाया गया था। इस बात को समझना बहुत जरूरी है। हमारे जितने चंदा देने वाले लोग हैं उनकी अपेक्षा थी कि उचित होगा कि हमारे लिए भी एक गोपनीयता रखी जाए। उन्होंने कहा कि कोई सरकार हार गई और उनके विरोधी दूसरी जगह आए तो वो चंदा देने वालों के खिलाफ हो जाते हैं।

इसलिए कोई ईमानदारी से बिजनेस कर रहे हैं तो वो अपना काम करें। इलेक्टोरल बॉन्ड खत्म होने से चुनाव की फंडिंग पर बहुत कम फर्क पड़ता है क्योंकि चुनावी फंडिंग का ज्यादातर हिस्सा नकदी में आता है। यह फैसला केवल फंडिंग की पारदर्शिता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सत्तारूढ़ दल को धन मिलता रहेगा जबकि विपक्ष के धन का स्रोत कम हो जाएगा। न्यायालय ने बार-बार सरकार के साथ सीधे टकराव से दूर रहने का विकल्प चुना है, खासकर सरकार की प्रमुख प्राथमिकताओं या अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर। चूंकि य फैसला सर्वसम्मति से लिया गया है तो यह बताता है कि न्यायाधीशों ने दृढ़ता से महसूस किया कि बॉन्ड योजना संवैधानिक रूप से अस्थिर थी। सीबीआई की तरह एसबीआई की चुनावी फंड के मामले में हुई किरकिरी से साबित हो गया है कि पिंजरे का तोता सिर्फ एक ही विभाग नहीं है। सरकारी विभाग सत्तारूढ़ दलों की कठपुतलियों की तरह काम करते हैं। सत्ता बदलते ही दूसरे दलों की भाषा बोलने लगते हैं। दरअसल जब तक कामकाज और पारदर्शिता को लेकर कानूनी तौर पर सरकारी मशीनरी की जिम्मेदारी तय नहीं होगी, तब तक अदालतों के आदेशों की मार नौकरशाही पर पड़ती रहेगी।

योगेंद्र योगी

स्वतंत्र लेखक


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