हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Mar 3rd, 2024 12:05 am

डा. हेमराज कौशिक

अतिथि संपादक

मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-४5

-(पिछले अंक का शेष भाग)

दरवाजे, अशेष और अंधकूप वृद्धों के जीवन पर केंद्रित कहानियां हैं, परंतु तीनों कहानियों में संवेदना भूमि के भिन्न-भिन्न धरातल हैं। ‘दरवाजे’ असंवेदनशीलता का करुण आख्यान है। वृद्ध मां का बेटा दफ्तर चला जाता है। पूरा दिन वृद्धा बंद घर में एकाकी अतीत की स्मृतियों में घिरी भटकती रहती है। उसके घर के दरवाजे के उस पार स्त्री को वृद्धा से ज्ञात होता है कि बड़े बेटे का उसके लिए घर छोटा पड़ गया और उसने पांच सौ रुपए पकड़ा कर ट्रेन पर चढ़ा दिया और इसी कारण उसे छोटे बेटे के घर में आश्रय के लिए आना पड़ा। यहां भी उसका जीवन अकेलेपन की पीड़ा को भोग रहा होता है। ‘अंधकूप’ मां, बेटी और बहू के त्रिकोण पर केंद्रित कहानी है जिसमें मां केवल इकलौते बेटे को बर्दाश्त करती है, अन्य के प्रति वह हिंसक बनी रहती है और परायेपन का बोध है। ‘छुट्टी का एक दिन’ कहानी शिमला के माल रोड पर बच्ची के साथ धूप में छुट्टी का दिन व्यतीत करते परिवार से संबंध रखती है। कहानी एक छोटी बच्ची के इर्द-गिर्द विन्यस्त की गई है। ‘कुछ भी नहीं देखा’ में एक प्रेम कथा है। गद्दी की बेटी मेहरू की प्रेम कहानी है। कांगड़ा घाटी के अत्यंत ईमानदार और मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत पटवारी और कबायली परिवार से संबंध रखने वाली युवती मेहरू के सात्विक प्रेम की कहानी है। परदेसी पटवारी और गद्दी की बेटी के मध्य सान्निध्य के कारण प्रेम अंकुरित होता है। युवती पटवारी के यहां चौका चूल्हा करते हुए उस साहचर्य में पटवारी से प्रेम करने लगती है। पटवारी विवाहित है और अपने संस्कारों के कारण इस प्रेम को अव्यक्त ही रखता है। एक वर्ष के अनंतर पटवारी का स्थानांतरण हो जाता है और वह प्रेम अव्यक्त ही रहता है।

इस कहानी में आदर्श प्रेम की परिकल्पना है। कहानीकार ने सात्विक प्रेम की पीड़ा के सूक्ष्म तंतुओं को बहुत गहरे अभिव्यंजित किया है। अन्य कहानियों की भांति भाषा के सूक्ष्म रंग रेशों से उन्होंने अद्भुत कहानी की सृष्टि की है। ‘रक्तबीज’ में पृथक पृथक कथा सूत्रों के माध्यम से नगरीय जीवन की विडंबनाओ का चित्रण है। ‘उत्सव’ में मानवीय संबंधों की आत्मीयता को भिन्न धरातल पर प्रस्तुत किया है। इसमें कथा नायक के पिता के जीवन के रहस्य डायरी के माध्यम से विवृत होते हैं। पुत्र पिता की मृत्यु के अनंतर डायरी के माध्यम से जान पाता है कि इंदिरा के साथ आलिंगनबद्ध देखने के बावजूद पिता ने उसे कुछ नहीं कहा। उसे तत्काल फटकार भी सकते थे या मां के माध्यम से भी कह सकते थे। परंतु जीवन भर उन्होंने उस रहस्य को छुपाए रखा। वे मृत्यु से कुछ समय पूर्व अपनी डायरी बेटे को सौंपते हैं। उन्होंने इस घटना को डायरी में लिखा था ‘प्रेम में उनके बीच बहती उस नदी को अवरुद्ध नहीं करना चाहता था, इसीलिए भी की प्रेम और लगाव ऐसी भावनाएं हैं जिनसे मेहरूम होकर मनुष्य नहीं रह जाता, जो मैंने नहीं पाया उसे बेटा पाए इसका फैसला उसी पर छोडक़र मैं आज उससे मुक्त हो गया हूं। औरत, आदमी के रेगिस्तान में एक नदी की तरह होती है। उस नदी को अपने बेटे से छीनने का अपनी तड़प के बावजूद मुझे कोई हक नहीं है। बेटे ने मां को पा लिया था, वह औरत को प्रेमिका के रूप में अपनी संगिनी के रूप में भी पाए, उस रोज मैं इसीलिए चुपचाप लौट आया। उस रोज यह सब अवचेतन में था और आज यह सब मेरे सामने है। मेरे भीतर भी और बाहर भी। उस ईश्वर की तरह जो छाया है और सत्य भी। अनुपस्थित होकर भी उपस्थित।’ डायरी में व्यक्त अपने इस आत्मकथात्मक कथन में वे स्वीकार करते हैं कि स्वयं उसने अपने जीवन में प्रेम कभी भी नहीं पाया। अलग-अलग तरह की औरतों के संसर्ग के बावजूद। इसलिए वह अपने पुत्र को वंचित नहीं करना चाहता। कहानीकार का एक अन्य कथा सूत्र इंदिरा के माता-पिता के दाम्पत्य से संबद्ध है। इंदिरा की मां नर्स और पिता हॉस्पिटल में चपरासी हैं। उनका दांपत्य जीवन कटुता से भरा है। ‘अशेष’ में ग्रामीण और नगरीय जीवन यापन करने वाले दो पीढिय़ों के मूल्य बोध और जीवन दृष्टि को व्यंजित किया है। ‘खच्चर’ में भ्रष्ट व्यवस्था में ईमानदार व्यक्ति किस तरह असहाय और निरीह हो जाता है, इसका चित्रण है। लच्छू का घोर दारिद्रय और मेजर की अमानवीयता, प्रशासन तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को अनावृत्त किया है। एडीएम जैसे न्यायप्रिय प्रशासक स्थानांतरित कर दिए जाते हैं और शोषण और उत्पीडऩ का वह क्रम जारी रहता है। केशव की संदर्भित संग्रह की कहानियों में जीवन के अनुभव घनीभूत संवेदना और महीन बुनावट के साथ सूक्ष्म रूप में व्यंजित हुए हैं और भाषा का समृद्ध और परिपक्व वैभव अभिभूत करता है।

विवेच्य अवधि में साधुराम दर्शक के दो कहानी संग्रह ‘मेरी सांप्रदायिकता तथा आतंकवाद विरोधी कहानियां’ (2003) और ‘फौजी तथा अन्य कहानियां’ (2005) प्रकाशित हैं। ‘मेरी सांप्रदायिकता तथा आतंकवाद विरोधी कहानियां’ शीर्षक कहानी संग्रह में सत्रह कहानियां- अतीत, कितनी रात और, सलीब पर लटका मसीहा, अकेली मादा सारस, अंधेरे का जुगनू, जिंदा-मुर्दा, नन्हा गुलाब बूढ़ा खार, क्रोध, नादिया, मेरी आत्मा मर नहीं गई, शांतिदूत, बिटिया ऐ, सिर्फ इंतजार, मदर टेरेसा, पागल बंदर, गऊदान और प्रदूषण संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियां सांप्रदायिकता और आतंकवाद की विकृतियों को सामने लाती हैं। ‘अतीत’ शीर्षक कहानी देश विभाजन की त्रासदी पर केंद्रित है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी में यह स्थापित किया है कि अंग्रेजी सरकार ने सांप्रदायिकता की जो चिंगारी फेंकी थी, अनुकूल हवा पाकर वह भडक़ उठी। सारा देश धू-धू करके जल उठा। हजारों वर्षों में अर्जित मानवीय गुणों को तिलांजलि देकर इनसान हैवान बन गया। हैवान से भी बदतर। कहानी में हिंदू-मुस्लिम चरित्रों के माध्यम से परस्पर सौहार्द का चित्रण करते हुए बिछोह की पीड़ा को रेखांकित किया है। ‘मदर टेरेसा’ कहानी में एक स्त्री के अद्भुत साहस और सूझबूझ का चित्रण है जो दो अनजान व्यक्तियों को दंगा फसाद और आतंक फैलाने वाले व्यक्तियों से रक्षा करती है। वह स्त्री धर्म के नाम पर घृणा के अंधकार में जुगनू की भांति मानवता की कौंध उत्पन्न करती है। ‘सलीब पर लटका मसीहा’ में भी एक साहसी स्त्री के बलिदान की गाथा है जो अपने अनाथालय में सभी धर्म के बच्चों को समभाव से सभी धर्मों की शिक्षा प्रदान करती है और सांप्रदायिक शक्तियों के समक्ष नहीं झुकती। ‘बिटिया ऐ’ कहानी में गिट्टू केंद्रीय चरित्र है।

उसके मन और मस्तिष्क में सांप्रदायिकता के संबंध में विचार उठते हैं। वह सोचता है क्यों होते हैं दंगे! लोग धर्म के नाम पर क्यों लड़ते हैं? सारी दुनिया को बनाने वाला एक नहीं है क्या? फिर उसके नाम पर एक दूसरे को मारते क्यों हैं लोग, एक दूसरे से नफरत क्यों करते हैं? उसे तो सभी धर्म और उन धर्मों को मानने वाले अच्छे लगते हैं। वह जब अठारह-बीस वर्ष की युवती को नर पिशाचों के झुंड के बीच घिरी देखता है, उनके अमानवीय कुकृत्य को देखते हुए वह युवती को बिटिया ऐ कह कर संबोधित करता है। दरिंदों से उसकी जान बचाता है और उन आतंकियों को जख्मी करता है। परंतु अंतत: वे उस पर छुरे से प्रहार करते हैं जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। ‘नादिया’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने यह व्यंजित किया है कि सांप्रदायिक उन्माद की पीठिका में जमीन से लोगों को विस्थापित करने के पीछे लोगों के निजी स्वार्थ होते हैं। ‘नन्हा गुलाब बूढ़ा खार’ कहानी सांप्रदायिकता का प्रतिकार करती है। ‘मेरी आत्मा मर नहीं गई’ कहानी में कथाकार ने यह प्रतिपादित किया है ‘सृष्टि का यदि कोई मालिक है तो साफ है कि वह एक ही होगा। तब मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर आदि सब उसी के तो घर हैं। फिर एक तरह का घर गिराकर उसकी जगह दूसरी तरह का घर बनाने में क्या तुक है।’ ‘पागल बंदर’ में भी सांप्रदायिक उन्माद और लूटपाट को दर्शाया गया है। दंगा करने वालों के उत्पात और तोडफ़ोड़ कितनी विध्वंसक होती है, यह कहानी निरूपित करती है तथा पाठक की चेतना को झकझोरती है। विध्वंसक शक्तियों का प्रतिकार करती है।

कहानीकार साधुराम दर्शक के ‘फौजी तथा अन्य कहानियां’ शीर्षक कहानी संग्रह में बीस कहानियां- फौजी, सिर्फ इंतजार, मोहिना, बुझी आंखों का सपना, भिखारी क्या और सरदारी क्या, आखिरी सांस तक, शर्मनाक, प्रतिभा, खुशी का दिन, सुहागन, शीतलहर में मौतें, बारिश जारी है, तुलसी का विवाह, फक्कड़ मास्टर साहब, वायदा, भटकन, उद्घाटन, धर्मी बाबुल, कसक और नीलकंठ संगृहीत हैं। ‘फौजी’ संदर्भित संग्रह की शीर्ष कहानी है। इसमें कहानीकार ने राम सिंह की चरित्र सृष्टि के माध्यम से देश के लिए समर्पित सैनिक के जीवन की गाथा प्रस्तुत की है। युद्ध में राम सिंह की एक टांग और बाजु कट जाती है जिसके कारण टांग और बाजु कृत्रिम लगाने के बाद वह सेवानिवृत्त है। उसके लिए पूरा समाज परिवार है और समाज के उत्थान के लिए वह सदैव कृतसंकल्प रहता है। ‘धर्मी बाबुल’ कहानी में सांप्रदायिकता और जातिगत रिश्तों की अपेक्षा मानवीय रिश्तों को श्रेयस्कर माना है। ‘भिखारी क्या सरदारी का क्या’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने स्थापित किया है कि आम आदमी सरदारी यानी खुदमुख्तार तभी बन सकता है जब वह आत्मनिर्भर हो। उसे किसी से कुछ याचना न करनी पड़े। ‘सिर्फ इंतजार’ मार्मिक कहानी है जिसमें आतंकवाद का शिकार बेटा होता है और घर लौटकर नहीं आता। मां उम्र भर विक्षिप्त अवस्था में बेटे की बस से लौट आने की प्रतीक्षा करती रहती है जिससे उसके बेटे को आना था।  परंतु वह बस कभी नहीं आती और न कभी आएगी ही। ‘मोहिना’ कहानी स्त्री शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करती है और ‘आखिरी सांस’ में बिहारी लाल के चरित्र के माध्यम से ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ कर्मचारी की कठिनाइयों और विपत्तियों को उभारा है, परंतु दर्शक की कहानी का चरित्र आखिरी सांस तक भ्रष्टाचार और रिश्वत से लोहा लेता है।

‘नीलकंठ’ कहानी साहित्यकारों को उत्तरदायित्व के प्रति सजग करती है। कथाकार दर्शक की इन लघु कलेवर की कहानियों में सामाजिक चेतनाबोध एवं यथास्थितिवाद का विरोध का स्वर मुखर हुआ है। भाषा की सहजता एवं सरलता परिवेशगत यथार्थ को मूर्तिमान करती है। रतन चंद रत्नेश का विवेच्य अवधि में ‘एक अकेली’ (2004) शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाशित है जिसमें सत्रह कहानियां- चौराहा, रातरानी का खिला हुआ चेहरा, बेकार मंडली, कजरी कबीर, शरबतिया, रामदीन को पता है, अम्मा, दुलिया राम मारा गया, प्रेत बाधा, वोट हमीं को दें, भूख से अधिक वाली रोटी, एफ आईआर, उद्धारक, एक अकेली, कुत छौने और फूलों से ढकी देवी संगृहीत हैं। संदर्भित संग्रह की ‘एक अकेली’ शीर्ष कहानी है। इसमें हिमाचल प्रदेश के गांव की एक ऐसी युवती का चित्रण है जो चंडीगढ़ के लिए बस में बैठती है।

(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

पुस्तक समीक्षा : डा. परमार को समर्पित विपाशा का अंक

साहित्य, संस्कृति एवं कला की द्वैमासिकी ‘विपाशा’ का सितबंर-अक्तूबर 2023 का अंक डा. यशवंत सिंह परमार विशेषांक के रूप में सामने आया है। डा. पंकज ललित इसके मुख्य संपादक हैं। संपादकीय में हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री परमार को प्रदेश के इतिहास का नायक बताया गया है।

जीवन वृत्त में परमार के बारे में सारी जानकारी संक्षेप में एकत्रित की गई है। इस अंक में कुछ यादगार चित्र भी प्रकाशित किए गए हैं जो प्रदेश के इतिहास को पूर्णता प्रदान करते हैं। लेखों में पीसी लोहमी, श्रीनिवास जोशी, पद्म गुप्त अमिताभ, नवनीत शर्मा, सुदर्शन वशिष्ठ, जगदीश शर्मा, आचार्य ओमप्रकाश राही तथा मनजीत शर्मा की रचनाएं लोकनायक परमार की बहुमुखी प्रतिभा को रूपायित करती हैं। संस्मरणों की शृंखला में आरआर वर्मा, डा. सुशील कुमार फुल्ल, केआर भारती, डा. प्रत्यूष गुलेरी, राजेंद्र राजन और विद्यानंद सरैक की कलम कुछ ऐतिहासिक पलों का बखान करती है। इसी तरह कुश परमार से दिलीप वासिष्ठ की बातचीत, कंवर अजय बहादुर से अनंत आलोक की बातचीत, आनंद परमार से राजन पुंडीर की बातचीत, मामराज शर्मा की देवेंद्र सिंह शास्त्री से बातचीत और तुलसी राम चौहान से अनिल हारटा की बातचीत के जरिए डा. परमार के व्यक्तित्व को उकेरा गया है। ये साक्षात्कार पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसके अलावा भी पत्रिका के इस अंक में डा. परमार पर छिटपुट रोचक सामग्री दी गई है।

संपादकीय में डा. परमार का एक वक्तव्य पहाड़ी लोगों की मानसिकता और महत्त्वाकांक्षाओं को प्रकट करता है, ‘पहाड़ी लोग बुनियादी तौर पर शांतिप्रिय और कानून के पाबंद हैं, किंतु इस गुण को कमजोरी नहीं समझना चाहिए। वे सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार के अधिकारी हैं और मुझे विश्वास है कि उनके कल्याण के कार्यक्रम निर्धारित करते समय इन तथ्यों को ध्यान में रखा जाएगा।’ यह वक्तव्य पूर्ण राज्यत्व मिलने से पहले का है। इसी तरह पत्रिका में बिखरी परमार के व्यक्तित्व की अन्य छटाएं प्रदेश के संघर्ष को बताती हैं। -फीचर डेस्क

खारिज होती मनुष्यता की पीड़ा व्यक्त करती कहानियां

कथाकार सूर्यबाला का हिंदी कहानी में अवतरण 1970 के प्रारम्भिक दशक में हो गया था और सन 60 की नई कहानी के दौर को अभी समाप्त हुए जुम्मा रोज ही हुए थे। जाहिर है सूर्यबाला ने भी नई कहानी को और उसके बाद के समय को बहुत नजदीक से देखा, पढ़ा और परखा है। हिंदी के तमाम वादों, विवादों-आंदोलनों और विमर्शों की वह साक्षी रही है। जब कहानी आंदोलनों, विमर्श आदि की बात होती है तो कथाकार सूर्यबाला की चर्चा नहीं होती, होती भी है तो कम होती है, परंतु उनकी समकालीन रही मन्नू भंडारी, मैत्रीय पुष्पा, ममता कालिया, चित्र मुदगल, राजी सेठ आदि की बातें ही होती हैं। संभवत: इसका सबसे बड़ा कारण यह भी रहा कि सूर्यबाला के लेखन में किसी विचारधारा के प्रति अंध श्रद्धा देखने को नहीं मिलती है। सूर्यबाला की पहली कहानी वर्ष 1972 में प्रकाशित हुई थी और पहला उपन्यास ‘मेरे संधिपत्र’ 1975 में बाजार में आया। सातवें-आठवें दशक में उनकी कहानी ‘गौरा गुनवंती’ को मैंने सारिका में, और कहानी ‘न किन्नी न’ को धर्मयुग में पढ़ा था। ऐसी और अविस्मरणीय कहानियां नब्बे के दशक में धर्मयुग, सारिका के अलावा साप्ताहिक हिंदुस्तान, हंस, वागर्थ आदि में छपती रहीं। यह दशक इनके कथा लेखन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। सूर्यबाला की अब तक 19 से भी ज्यादा कृतियां, पांच उपन्यास, दस कथा संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह के अलावा डायरी व संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। ‘मेरे संधिपत्र’ उपन्यास के बाद ‘कौन देस को वासी : वेणु की डायरी’ उपन्यास ने उन्हें कथा जगत का स्टार घोषित कर दिया। बहरहाल, वर्ष 2023 में नए कहानी संग्रह ‘बहनों का जलसा’ के आ जाने से एक बात तो तय हो गई कि उनके लेखन के नैरन्तर्य, सौंदर्य और सजगता ने यह सिद्ध किया है कि लेखक की रचना ही उसकी छवि को गढ़ती है और यह छवि निर्माण आकस्मिक नहीं होता, अपितु धैर्य और ईमानदार लेखन से बनता है।

‘बहनों का जलसा’ कथासंग्रह ने सुधि पाठकों, आलोचकों और शोधार्थियों का ध्यान आकर्षित किया है। संग्रह की कहानियों में बदलते जीवन मूल्य, पीढिय़ों के विरोधाभास और टकराहट, संबंधों का खोखलापन, स्त्री की पराधीनता, महानगरीय जीवन की त्रासद विडम्बनाओं, संबंधों के खोखलेपन आदि को विषयवस्तु का आधार बनाया गया है। संग्रह की कहानियां यथा, वेणु का नया घर, बच्चे कल मिलेंगे, सूबेदारनी का पोता, पंचमी के चांद की विजिट आदि में विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों के जीवन व संस्कृति की एक-एक बारीक बातों को यहां कथानक में जिस तरह पिरोया है वैसा सूक्ष्म चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। नब्बे के दशक में नव उदारीकरण एवं भू विश्वग्राम की अवधारणा, संचार साधनों की उपलब्धता और विकसित देशों की उदार अर्थव्यवस्था के चलते नए विश्वबाजार विकसित हो रहे थे। भूमंडलीकरण व पूंजीवादी व्यवस्थाओं के पनपने व सोवियत संघ के पतन के बाद यहां की युवा पीढ़ी में पूंजी के प्रति अगाध आकर्षण पैदा होना शुरू हुआ और बाजारवाद के दौर की एक आहट भी सुन पडऩे लगी थी। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप विदेश में काम करने के अवसर उपलब्ध होने शुरू हुए। आज की भारतीय युवा पीढ़ी का एकमात्र मकसद है कि वह पढ़-लिख कर अमेरिका जैसे देश में जाकर डालर कमाए, वहां का नागरिक बने और शायद उनके सपनों की इस उड़ान में उनके मां-बाप ने भी बेतहाशा मेहनत की। अमरीका की सिलीकोन वैली भारतीय टेक्नोक्रेट से भरती चली गई। भारत की बेरोजगारी और शिक्षित वर्ग की उपेक्षा और रोजगार पैदा करने की संभावनाओं के लगातार क्षीण होते जाने से लोगों ने कनाडा, आस्ट्रेलिया, यूरोप और खाड़ी के देशों की ओर रुख किया और काम के अवसर तलाशे। कथाकार के रूप में सूर्यबाला ने मुंबई से अमरीका की अनेक प्रवासी यात्राएं की है और प्रवासी भारतीयों पर अनुभव की प्रमाणिकता के आधार पर यह कहानियां लिखी हैं। उपरोक्त कहानियों के पात्र वेणु, विभव, विकास, आकांक्षा- यह वह युवा पीढ़ी है जिनको विदेशप्रियता के सम्मोहन ने अपनी जड़ों से दूर कर दिया है। यह विषयवस्तु ऐसी है जो लगता है कि हमारे जीवन के आसपास से चयनित की गई है। इन कहानियों का परिवेश चरित्र, परिस्थिति और घटनाओं का चित्रण बड़े प्रामाणिक और आश्वस्त तरीके से किया गया है।

‘वाचाल सन्नाटे’ में मां अपने बेटे के घर जा रही है। वह महानगर में रहते हैं। लेकिन उनकी व्यस्त जिंदगी में मां को स्टेशन से लाने तक का समय नहीं। वह एक परिचित के साथ उनकी कार में जा रही है। कहानी का बस इतना सा प्लाट है, जिसे बड़े मार्मिक शैली में सूर्यबाला जी ने चित्रित करते हुए बताया कि सुविधासंपन्न घरों के बूढ़े मां या बाप या दोनों की अब अगली पीढ़ी को कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। ‘प्रतिद्वंद्विनी’ और ‘विजयिनी’ जैसी कहानियों में सूर्यबाला स्त्री पात्रों के अंतर्मन को कुरेदती हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘बहनों का जलसा’ एक छोटी सी रेल यात्रा और बिछोह भरी मर्म कथा है। ‘बहनों का जलसा’ कहानी संग्रह में जिस प्रकार की कथा भाषा का प्रयोग सूर्यबाला करती है, वह महत्वपूर्ण है। पात्रों की मनोस्थितियां, घटनाओं के सूक्ष्म विवरण, देश-विदेश का परिवेश, दुखद विसंगतियों, विडम्बनाओं, अंत:संघर्षों को सहज लयात्मकता के साथ अभिव्यक्त किया गया है। सूर्यबाला का मानना है कि, ‘लय पद्य की ही नहीं गद्य की भी होती है। जहां लय टूटी, कलम अटकी!’ कह सकते हैं कि स्थानीयता के या क्षेत्रीयता के भाषागत गुणों से भरपूर इन कहानियों में मध्यमवर्गीय विभिन्न आयामों को विवरणात्मक शैली में अभिव्यक्त करने की शक्ति व सौंदर्य है। इस दृष्टि से हिंदी की भाषिक संरचना को विकसित करने में सूर्यबाला की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। राजकमल (दिल्ली) से प्रकाशित यह कहानी संग्रह पाठकों को अवश्य पसंद आएगा।

-डा. देवेंद्र गुप्ता


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