हिमाचल में सियासी भूकंप

सुक्खू की कांग्रेस सरकार पहले दिन से ही स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के प्रति निष्ठा रखने वाले विधायकों को हाशिए पर धकेलने के काम में लगी हुई थी। वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना कर सोनिया गांधी की संतान ने संतुलन साधने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन सुक्खू उस संतुलन को धरातल पर नहीं उतार पाए। यह भी कहा जा रहा है कि सुक्खू विरोधी खेमे में चौदह विधायक हैं, लेकिन रणनीति के तहत अभी छह विधायकों को ही सार्वजनिक रूप से राज्यसभा चुनाव के अवसर पर सामने लाया गया है। विक्रमादित्य सिंह का इस्तीफा किसी भावी तूफान का संकेत करता है। चलते-चलते विक्रमादित्य सिंह यह भी बता गए कि विधानसभा का चुनाव प्रतिभा सिंह और मुकेश अग्निहोत्री के नेतृत्व में लड़ा गया था। शायद वह परोक्ष रूप से सोनिया गांधी और उनके बच्चों से सवाल ही कर रहे थे कि फिर सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री किस हिसाब से बना दिया गया। हाईकमान तो पता नहीं इस सवाल का उत्तर कब देता, लेकिन इस ग्रुप ने राज्यसभा के चुनाव को उचित अवसर जान कर स्वयं इसका उत्तर दे दिया…

हिमाचल प्रदेश में राज्यसभा की एकमात्र सीट के लिए 27 फरवरी को हुए चुनाव के परिणाम ने प्रदेश की राजनीति में भूकम्प ला दिया है। 68 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा के पच्चीस सदस्य हैं और सोनिया कांग्रेस के चालीस। सरकार चलाने, बचाने और राज्यसभा की यह सीट जीतने के लिए पैंतीस सदस्यों की दरकार है। यानी कांग्रेस के पास ये तीनों काम निपटाने के लिए जरूरत से ज्यादा पांच अतिरिक्त सदस्य हैं। इसी विश्वास के बल पर सोनिया गान्धी ने अपने परम भक्त अभिषेक मनु सिंघवी को हिमाचल प्रदेश से राज्यसभा सदस्य बनाने का ‘खतरनाक’ निर्णय लिया था। राज्य के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने उनको इस लड़ाई में जीत का अतिरिक्त विश्वास दिलाया ही होगा। खासकर तब जब उन्हें विश्वास था कि सरकार का समर्थन कर रहे तीन निर्दलीय भी अभिषेक मनु सिंघवी को राज्यसभा में हिमाचल का प्रतिनिधि मानने को तैयार हो जाएंगे। वैसे इसे भी संयोग ही कहना चाहिए कि अभिषेक मनु सिंघवी राजस्थान के रहने वाले हैं और वहां से आसानी से राज्यसभा में पहुंच सकते थे। लेकिन राजस्थान से राज्यसभा में जाने का रास्ता सोनिया गान्धी ने अपने लिए सुरक्षित कर लिया और राजस्थान के सिंघवी को हिमाचल में धकेल दिया, जबकि वे स्वयं हिमाचल से लड़ सकती थीं और राजस्थान के सिंघवी को राजस्थान में ही रहने दे सकती थीं।

क्या उन्होंने पहले से ही हिमाचल में इस पराजय का खतरा सूंघ लिया था? खैर इस पर राजनीतिक विश्लेषक अरसे तक माथापच्ची करते ही रहेंगे। लेकिन असली सवाल तो यह है कि कांग्रेस बहुमत से ज्यादा सदस्य होते हुए भी भारतीय जनता पार्टी के हर्ष महाजन से हारी कैसे? गणित का हिसाब किताब तो साफ-सुथरा है। कांग्रेस के छह विधायकों ने अपनी पार्टी के प्रत्याशी को वोट न देकर भाजपा के प्रत्याशी को वोट दे दिया। तीन निर्दलीय विधायकों ने भी इस चुनाव में भाजपा का साथ दिया। यानी कुल मिला कर दोनों प्रत्याशी 34-34 वोटों पर संतुलित हो गए। ऐसे मौकों पर भाग्य यानी ईश्वर लीला पर विश्वास किया जाता है। भाजपा और सोनिया कांग्रेस इस बात पर सहमत हो गए कि अब निर्णय ईश्वर यानी भाग्य पर छोड़ दिया जाए कि वह किसका साथ देता है। भाजपा को शायद विश्वास था कि ईश्वर उसी का साथ देगा, क्योंकि वे सब अभी-अभी अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करके ही नहीं, बल्कि राम के विग्रह में प्राण प्रतिष्ठा करके लौटे थे। अभिषेक मनु सिंघवी की पार्टी निमंत्रण मिलने के बावजूद अयोध्या नहीं गई थी। वैसे एक बार तो कांग्रेस पार्टी ने राम के अस्तित्व को ही नकार दिया था। परिणाम जानने के लिए पर्ची डाली गई तो वह भाजपा के पक्ष में निकली। इस ईश्वर लीला में भाजपा की जय जय हुई और सोनिया कांग्रेस की पराजय। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता जो दशकों तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे, कहते सुने गए कि हम तो पहले ही कहते थे कि संघ ईश्वरीय कार्य है। अभी कांग्रेस इस झटके से संभलती, तभी हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। वह सुक्खू मंत्रिमंडल में लोक निर्माण मंत्री थे। त्यागपत्र का कारण बताते हुए वह भावुक हो गए। उनका कहना था कि उनके पिता का अभी भी इस सरकार द्वारा अपमान किया जा रहा है। उनकी प्रतिमा लगाने के लिए जमीन तक उपलब्ध नहीं करवाई गई। जब सोनिया गान्धी ने अयोध्या में राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर आधिकारिक तौर पर पार्टी की शमूलियत को सार्वजनिक तौर पर नकार दिया था तो विक्रमादित्य सिंह उसके बाद भी अयोध्या गए थे। वैसे वीरभद्र सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में मतान्तरण रोकने के लिए हिमाचल प्रदेश में क़ानून बना दिया था। तभी से वह सोनिया गान्धी की आंख की किरकिरी बन गए थे। सुक्खू की कांग्रेस सरकार पहले दिन से ही स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के प्रति निष्ठा रखने वाले विधायकों को हाशिए पर धकेलने के काम में लगी हुई थी।

वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना कर सोनिया गान्धी की सन्तान ने संतुलन साधने की कोशिश तो जरूर की, लेकिन सुक्खू उस संतुलन को धरातल पर नहीं उतार पाए। यह भी कहा जा रहा है कि सुक्खू विरोधी खेमे में चौदह विधायक हैं, लेकिन रणनीति के तहत अभी छह विधायकों को ही सार्वजनिक रूप से राज्यसभा चुनाव के अवसर पर सामने लाया गया है। विक्रमादित्य सिंह का इस्तीफा किसी भावी तूफान का संकेत करता है। चलते-चलते विक्रमादित्य सिंह यह भी बता गए कि विधानसभा का चुनाव प्रतिभा सिंह और मुकेश अग्निहोत्री के नेतृत्व में लड़ा गया था। शायद वह परोक्ष रूप से सोनिया गान्धी और उनके बच्चों से सवाल ही कर रहे थे कि फिर सुखविंदर सिंह सुक्खू को मुख्यमंत्री किस हिसाब से बना दिया गया। हाईकमान तो पता नहीं इस सवाल का उत्तर कब देता, लेकिन इस ग्रुप ने राज्यसभा के चुनाव को उचित अवसर जान कर स्वयं इसका उत्तर दे दिया। उत्तर इतना तीखा है कि शायद हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को ही निगल जाए। बाकी राहुल गान्धी अपनी भारत जोड़ो यात्रा में स्थान-स्थान पर मोहब्बत की दुकानें सजाने में पहले की तरह व्यस्त हैं। उधर बाद की हकीकत यह है कि विक्रमादित्य सिंह को मना लिया गया है और उन्होंने इस्तीफा फिलहाल वापस ले लिया है। लेकिन उनके इस्तीफे से कांग्रेस की जो किरकिरी हुई, वह अब जगत के सामने है। देखना यह होगा कि कांग्रेस क्रॉस वोटिंग करने वाले अन्य विधायकों को कैसे मनाती है तथा सवाल यह भी है कि क्या विक्रमादित्य सिंह की नाराजगी दूर हो गई है? उधर सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार को बचाने के लिए कांग्रेस ने रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। उसने फिलहाल बजट भी पारित करवा दिया है। फिलहाल संकट टलता दिखता है, लेकिन ऐसी भी सूचनाएं हैं कि क्रॉस वोटिंग करने वाले कुछ विधायक तो कांग्रेस का कहा मान भी सकते हैं, लेकिन दो विधायकों को मनाना कठिन होगा।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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