शानन प्रोजेक्ट विवाद व बेसिन राज्यों के हित

आज दिन तक आवंटित भूमि पर हक हासिल करने के किए कई लोग मुकद्दमों में उलझे हुए हैं। जबकि परियोजना 70 के दशक में पूरी हो गई थी और पंजाब, राजस्थान को पानी और बिजली मिलने लग गई थी। किन्तु हिमाचल के हित आज तक फंसे हुए हैं। केंद्र सरकार को भी इस ओर ध्यान देकर निर्णय करवाना चाहिए, किन्तु वहां से भी चुप जैसी स्थिति क्यों बनी रहती है, समझ से परे है। ताजा मामला शानन परियोजना का है जो हर हाल में हिमाचल को मिलनी ही चाहिए थी, जिसके लिए अब अनावश्यक रूप से कानूनी लड़ाई के हालात पैदा किए गए हैं…

ब्रिटिश राज में 1925 में कर्नल बेट्टी ने तत्कालीन राजा मंडी जोगिन्दर सेन से उनकी रियासत में पडऩे वाले क्षेत्र बारोट घाटी से सुरंग बना कर उहल नदी का पानी जोगिन्दरनगर में लाकर बनने वाले प्रपात से बिजली बनाने की योजना पर बात की। राजा की सहमति के बाद राजा और कर्नल बेट्टी के बीच 99 साल की लीज पर अपने क्षेत्र को शानन बिजली परियोजना के निर्माण के लिए देने का समझौता हुआ। अब 2 मार्च को लीज समाप्त हो गई है। हिमाचल ने परियोजना पर अपना दावा पेश किया है। पंजाब इस 110 मेगावाट की योजना पर अपना कब्जा छोडऩा नहीं चाहता है। इसके लिए उसने सर्वोच्च न्यायालय में स्टे के लिए रिट डाल कर एक मार्च को स्टे ले लिया है। अब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर शानन प्रोजेक्ट का भविष्य निर्भर है। हिमाचल प्रदेश की सीमा के अंदर कोई संपत्ति लीज की अवधि समाप्त होने के बाद भी पंजाब की संपत्ति बनी रहे, यह किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है।

अत: हिमाचल प्रदेश का पक्ष बहुत मजबूत है और प्रोजेक्ट का हक हिमाचल को मिलने की पूरी संभावना है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान हिमाचल के बेसिन राज्य हैं। इस तरह इनका एक-दूसरे पर निर्भरता का प्राकृतिक रिश्ता है। इन राज्यों की जल आपूर्ति पूरी तरह से हिमाचल के पर्यावरण प्रबन्धन पर निर्भर करती है। हिमाचल एक छोटा सीमान्त हिमालयी राज्य होने के कारण संसाधनों के मामले में विशेष परिस्थिति राज्य है। हिमालय बहुत ही नाजुक और कम उम्र पर्वत श्रृंखला है, जिसकी ढलानें तेज, पथरीली, भूक्षरण का शिकार और आवागमन के लिए कठिन हैं। जहां निर्माण कार्य महंगा और प्राकृतिक आपदाओं के खतरे का शिकार रहता है। यहां की जमीनें उथली मिट्टी वाली हैं जिनकी उपजाऊ शक्ति कम है। अधिकांश भूभाग पथरीला और कुछ स्थायी बर्फ में ढका होने के कारण कृषि योग्य भूमि केवल 10 फीसदी ही है। केवल वन संसाधन ही हमारे पास हैं जिसका दोहन स्थानीय और राष्ट्रीय पर्यावरण हित में हम नहीं कर सकते हैं। वनों के अत्यधिक दोहन के परिणाम हम बाढ़ और सूखे के रूप में भुगतने के लिए मजबूर हो जाते हैं। साल दर साल ऐसे अनुभव सामने आते रहते हैं। जहां भी परियोजनाओं के लिए वन कटान हुए हैं वहां बरसातों में भूस्खलन झेलने पर मजबूर होना पड़ा है। विकास के वर्तमान ऊर्जा सघन मॉडल में वातावरण में धुआं बढ़ता जा रहा है जिसके चलते वैश्विक तापमान वृद्धि हो रही है। दुनिया में औद्योगिक क्रांति के बाद 2 डिग्री से ज्यादा तापमान न बढ़े, इस बात के प्रयास चल रहे हैं। इसलिए भी वन संरक्षण और कार्बन प्रचूषण के लिए वन संवर्धन की जरूरतें बढ़ती जा रही हैं।

इस जलवायु परिवर्तन के दौर में हिमालय अधिक खतरे में आ गया है। माना जा रहा है कि आने वाले तीन-चार दशकों में हिमालय के ग्लेशियर पिघल कर समाप्त हो जाएंगे। इस परिस्थिति में हिमालय के वनों द्वारा अवशोषित जल ही बेसिन राज्यों की जल आपूर्ति के लिए आशा की किरण होगा। इन वनों की रक्षा और संवर्धन के लिए हिमाचल के पास आर्थिक साधन होने चाहिएं और स्थानीय जनता को पलने के लिए भी साधन चाहिएं। इस दबाव में प्रदेश वन संरक्षण जैसे जरूरी कामों के लिए जरूरी धन उपलब्ध नहीं करवा पा रहा है। कर्ज लेकर राज्य का काम चलाना पड़ रहा है। इसलिए बेसिन राज्यों को अपने पर्यावरणीय हितों, जल आपूर्ति, जलवायु नियंत्रण, बाढ़ नियंत्रण, भूजल भरण जैसे निजी हितों को ध्यान में रखते हुए भी हिमाचल के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और जिम्मेदारी भरी नजर रखनी चाहिए। किन्तु तात्कालिक लाभ के लोभवश ये राज्य अपना भी दीर्घकालीन हित देखना नहीं चाहते, जिसका उदाहरण अन्य भी कई मामलों में सामने आता रहता है। 1950-60 के दशक में बना भाखड़ा बांध अपने विस्थापितों को अब तक पूरी तरह से बसा नहीं पाया है। इसमें हरियाणा या पंजाब ने भी अपनी जिम्मेदारी निभाने में कोताही की है। बीबीएमबी में 1966 में राज्य पुनर्गठन के समय तय की गई 7.19 प्रतिशत हिस्सेदारी का भुगतान अभी तक भी नहीं हो पा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 4000 करोड़ रुपए का एरियर हिमाचल के हक में हुए निर्णय के अनुसार हिमाचल को अभी तक भी नहीं दिया गया है। पौंग बांध के साथ भी यही स्थिति है। राजस्थान ने हिमाचली विस्थापितों के साथ जिस तरह का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार आज दिन तक किया है, वह शर्मनाक है।

आज दिन तक आवंटित भूमि पर हक हासिल करने के किए कई लोग मुकद्दमों में उलझे हुए हैं। जबकि परियोजना 70 के दशक में पूरी हो गई थी और पंजाब, राजस्थान को पानी और बिजली मिलने लग गई थी। किन्तु हिमाचल के हित आज तक फंसे हुए हैं। केंद्र सरकार को भी इस ओर ध्यान देकर निर्णय करवाना चाहिए, किन्तु वहां से भी चुप जैसी स्थिति क्यों बनी रहती है, समझ से परे है। ताजा मामला शानन परियोजना का है जो हर हाल में हिमाचल को मिलनी ही चाहिए थी, जिसके लिए अब अनावश्यक रूप से कानूनी लड़ाई के हालात पैदा किए गए हैं। पंजाब बड़ा दिल करके न्याय के साथ खड़ा हो तो उसमें उसका अपना आर्थिक और पर्यावरणीय हित जुड़ा है। हिमाचल के हिमालय के प्रति उदारता इन बेसिन राज्यों के अपने हित में किया गया दीर्घकालीन निवेश होगा, जिसके लाभ-हानि का गणित इन राज्यों को करना चाहिए। इस दिशा में केंद्र को हस्तक्षेप करना चाहिए।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद


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