भारतीय समाज में दिखावे का मनोविज्ञान क्या दर्शाता है

By: Mar 2nd, 2024 12:14 am

जे.पी. शर्मा, मनोवैज्ञानिक
नीलकंठ, मेन बाजार ऊना मो. 9816168952

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सर विलियम मैकडूगल ने व्यक्ति के व्यवहार की बहुत सी मनोप्रवृत्तियों पर कई किताबें लिखी हैं। जिनमें जन्मजात प्रवृत्तियों एव जन्मोपरांत वातावारणानुसार विकसित प्रवृत्तियों का विस्तृत विवरण दिया गया है। जन्मजात जैविक प्रवृत्तियों की गिनती नौ दर्शाई गई है। जिनमें भूख, प्यास, कामुकता, दिखावे की, स्वयं के अनुसार एवं अनुरूप उत्तेजकों को परिवर्तन करने की, अवसाद, चिंतन, पलायन आदि शामिल हैं। जिनको इनसान लेकर पैदा होता है एवं जन्मोपरांत प्राप्त वातावरणानुसार कुछ और मनोवृत्तियां विकसित कर दोनों के अनुसार स्वयं का व्यक्तित्व ढ़ाल लेता है। सारांश दिखावे की प्रवृत्ति मनोवैज्ञानिक प्रत्यय है अर्थात कान्सेप्ट है। इतिहास पर अवलोकन करें तो चाहे रजवाड़ावाही सत्ता हो, नवाबशाही हो, सामंतवाद हो, या अन्य कोई भी सत्ता कालखंड रहा हो, सभी में सत्ताधारी प्रमुखों ने अपना पहरावा, खान पान, व्यवहारशैली, जीवनशैली, आचार व्यवहार, अपने को पेश करने का तरीका आम जनमानस से पूर्णतया अलग रखा था, ताकि उनके दिखावे में उनका अहम साफ दिखाई दे और वे सभी से ऊपर दिखाई दें। यही प्रवृत्ति प्राचीनकाल, मध्यकाल, मुगलकाल, ब्रिटिशकाल और स्वतंत्रता बाद लोकतंत्र सरकारों में भी प्रचलित रही है।

इसका मुख्य कारण है मनोवैज्ञानिक ‘इंडिविजुयल डिफरेंस’ यानी व्यक्तियों से अलग दिखाने की प्रवृत्ति, जिसमें दंभ, एवं अहम का तुष्टिकरण, स्वयं को बेहतर एवं दूसरों से श्रेष्ठ समझने जैसी भावनाओं का समावेश रहता है। समान्यतया सभी राष्ट्रों में स्वयं की श्रेष्ठता दर्शाने हेतु महत्वाकांक्षा एवं पदों के अनुसार वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, आडंबरी भाव भंगीमाएं रीति रिवाज, उत्सवों का आयोजन सत्ता प्रमुखों ने आरंभ किया जो धीरे-धीरे समाज का एक अनिवार्य अंग बनकर स्थापित हो गया एवं जीवन के हर क्षेत्र में विकसित व प्रचलित हो गया। जिसकी मिसाल के तौर पर देखा जा सकता है कि हर व्यवसाय में भी यह परंपरा है जिसमें अपने को दूसरों से अलग दिखाने की मूलभावना ही निहित है। भारतीय समाज में तो यह मनोवृत्ति कुछ ज्यादा ही है। कालखंड कोई भी रहा हो राजसी पहरावा, आनबान, शानोशौकत, राजप्रमुखों के प्रवेश से पूर्व उनकी शान में कसीदे पढऩा, बैठने का शाही अंदाज, अजीब सी नाटकीय भाव भंगीमाओं के साथ वार्तालाप करना व दूसरों को संबोधित करना आदि सभी दिखावे के मनोविज्ञान का प्रकटीकरण ही तो है। युग बदल गए सत्ताशाही के चलन बदल गए।

लोकतंत्र तक आ पहुंचे, परंतु नेताओं का चलन भी दिखावे की मनोवृत्ति से निजात न पा सका, क्योंकि मनोवृत्तियों से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं होता। विशेषतया जन्मजात प्रवृत्तियां तो लिबास की मानिंद जीवन एवं व्यवहारशैली से चिपक ही जाती हैं, आजीवन पीछा नहीं छोड़ती। दंभ अहम, स्वश्रेष्ठता, महत्वाकांक्षा सरीखी मूल व्यक्तित्व में रची बसी मनोवृत्तियां चेतन मन से निकालने की कितनी भी कोशिश कर लें अर्धचेतन मन में तो रची बसी रहती ही हैं, जो गाहेबगाहे दिवास्वपनों, कल्पनाओं, सपनों, रिफलेक्स एवं अनचाही भावना से ही सही, कभी कभार संवादशैली, व्यवहारशैली में भी झलक का प्रकटीकरण करती ही रहती हैं। समाज में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के व्यवहार, संवाद, जीवनशैली, भाव- भंगीमाएं, हावभाव पर अवलोकन कर अनुसंधान करे तो रिसर्च के आंकड़े प्रमाणित करेंगे कि बुद्धिजीवी एवं विशेषज्ञ वर्ग में होने के बावजूद भी वे अपने व्यवहार में कभी कभार कोई ऐसा नाटकीय प्रभाव जरूर छोड़ते हैं जो उनके भीतर की श्रेष्ठता के दिखावापूर्ण अहम का तुष्टिकरण ही होता है।


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