जमानत एक नियम, जेल एक अपवाद है

न्यायालय को भी मुकद्दमों का ट्रायल निश्चित समय सीमा में निटपाने के लिए जिम्मेदार ठहराने की जरूरत है…

स्ंाविधान की धारा 21 के अंतर्गत व्यक्तिगत जीवन व स्वतंत्रता का विशेष मौलिक अधिकार है, जो कि अपातकाल में भी समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी तरह न्यायशात्र का भी यही सिद्धांत है कि जब तक किसी दोषी को सजा न हो जाए, तब तक उसे निर्दोष ही समझा जाना चाहिए। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (अब नागरिक सुरक्षा संहिता) में दोषियों को जमानत दिए या न दिए जाने का प्रावधान रखा गया है। न्यायालय जमानत देते समय उसके कानून व व्यवस्था पर पडऩे वाले प्रभावों का पूर्ण अवलोकन करता है। यह बात ठीक है कि जमानत देना या न देना किसी न्यायाधीश के व्यक्तिगत विवेक पर भी निर्भर करता है। आखिर जमानत क्या है? किसी भी अपराधी को गिरफ्तारी से बचने के लिए न्यायालय के सामने कोई निश्चित धन राशि या सम्पत्ति जमा करवाने या फिर अमुक धन राशि को न्यायालय के दिशा निर्देशों की अवहेलना न करने के लिए एक ऐसा बांड/प्रतिज्ञा पत्र होता है जो अपराधी व उसकी जमानत देने वाले को लिख कर देना होता है तथा दी गई शर्तों के अनुसार उसे अपना व्यवहार सुनिश्चित करना होता है। सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों में पुलिस को ही जमानत लेने का अधिकार दे दिया गया है, मगर इसमें भी अपवाद की अवधारणा डाली गई है कि यदि पुलिस को लगे कि अपराधी फरार हो सकता है या फिर सहयोग नहीं करेगा, तो इन हलात में पुलिस अपने स्तर पर जमानत नहीं लेगी तथा न्यायालय द्वारा ही जमानत दी जा सकती है।

इस विवेक का पुलिस भी कई बार अनुचित लाभ उठा कर न्याय के साथ भद्दा मजाक करती रहती है। गंभीर प्रकार के अपराधों को गैर-जमानती बनाया गया है तथा आम तौर पर ऐसे अपराधों में जमानत नहीं दी जाती तथा दोषी अपने केस के ट्रायल के अंतिम निर्णय तक जेल के अंदर ही रहता है। इसी तरह यदि पुलिस किसी गैर जमानती मुकद्दमे का 90 दिन में अन्वेषण पूर्ण करके चालान नहीं भेज देती तब संबंधित अपराधी को न्यायालय जमानत पर छोड़ सकता है। इसी तरह जब कोई व्यक्ति अपनी गिरफ्तारी की आशंका से ग्रसित होता है, तो वह सत्र न्यायालय या फिर उच्च न्यायालयों में जमानत की मांग कर सकता है। मगर जमानत देना या न देना न्यायाधीश के व्यक्तिगत/विवेक पर भी निर्भर करता है। यदि मामला गंभीर प्रवृत्ति का हो तो आम तौर पर अग्रिम जमानत नहीं दी जाती। गौरतलब है कि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत विचाराधीन मुकद्दमों की सुनवाई की कोई सीमा निश्चित नहीं की गई है, तथा परिणामस्वरूप विचाराधीन अपराधी कई बार बिना वजह से लंबे समय तक जेलों में अपने जीवन की अंतिम संासें गिनते रहते हैं। पाया गया है कि वर्ष 2021-22 में भारत की जेलों में केवल 33 प्रतिशत कैदी ही ऐसे थे जिन्हें किसी अपराध में दोषी करार दिया गया था, जबकि 77 प्रतिशत कैदी ऐसे थे जो बिना सजा के ही जेलों में सड़ रहे थे। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021 में 11490 ऐसे विचाराधीन अपराधियों को जेलों में रखा गया था, जो पिछले पांच वर्षों से भी अधिक समय तक न्याय का इंतजार कर रहे थे। इसी तरह वर्ष 2022 में कुल 573220 दोषी विभिन्न जेलों में थे जिनमें से 434302 विचाराधीन कैदी ही थे।

यह भी देखा गया है कि जिन कैदियों को सत्र न्यायाधीश से जमानत नहीं मिलती, वे उच्च या उच्चतम न्यायालय में गुहार लगा कर जमानत प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं, जिससे स्पष्ट है कि न्यायाधीश का व्यक्तिगत विवेक भी किसी की जमानत को निर्धारित करता है। दोषियों को न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए पुलिस जांच एजेंसियां केवल यही गुहार लगाती हैं कि दोषी अपने पद का दुरुपयोग कर सकता है, गवाहों को डरा- धमका सकता है या फिर कई प्रकार के प्रलोभनों द्वारा आकर्षित कर सकता है। यहां पर सोचने की बात यह है कि क्या ट्रायल के समय दोषी के सगे संबंधी गवाहों को प्रभावित नहीं कर सकते? हां, वो ऐसा आराम से करते ही हैं तथा यही कारण है कि गवाहों के मुकर जाने से ही दोषी सजामुक्त हो जाते हैं। जमानत न देने से किसी कैदी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उसे अपराधी तो एक ट्रायल के बाद ही ठहराया जा सकता है। अगर हम आर्थिक अपराधों में सजा की दर की बात करें तो यह केवल 32.6 प्रतिशत है। आखिर क्या कारण है कि ऐसे अपराध जो कि दस्तावेजों के साक्ष्यों पर आधारित होते हैं, उनमें भी अधिकतर दोषी सजा से मुक्त हो जाते हैं। पुलिस व न्यायालय दोषियों की जमानत रद्द करने-करवाने में ही लगे रहते हैं तथा पूरी न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। जमानत के समय तथ्यों की कोई विस्तृत पड़ताल करने की आवश्यकता नहीं होती। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने संजय चंद्र बनाम सीबीआई (2012) वाले केस में कहा था कि जमानत का उद्देश्य न ही सजा देने का है और न ही कोई अपराध की रोकथाम करना है। यह तो केवल मुलजिम को पुलिस या न्यायालय में पूछताछ में शामिल होने के लिए केवल एक प्रतिज्ञापत्र है। एक समय था जब उच्चतम न्यायालय जमानत के संबंध में बहुत ही उदार था तथा जेल भेजने की बजाय बेल पर विश्वास किया जाता था। हां, ऐसे अपराध जिनका सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता हो, के अतिरिक्त अन्य मामलों में जमानत हो ही जानी चाहिए।

यह भी देखा गया है कि एक ही जैसे अपराध को यदि सामान्य व्यक्ति या फिर विशेष व्यक्ति द्वारा किया गया हो तो विशेष व्यक्ति को जमानत नहीं दी जाती है, तथा यह कानून की नजरों में तो भेदभाव वाली ही बात है। आर्थिक अपराधों में कुछ विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त जमानत दिए जाने का प्रावधान उदार ही होना चाहिए, क्योंकि ऐसे मुकद्दमों में तथ्य दस्तावेजों पर ही आधारित होते हैं तथा यदि फिर भी दोषी किसी प्रकार का हस्तक्षेप करता है, तब जांच एजेंसी उसकी जमानत रद करवा सकती है। वास्तव में न्यायालय को भी मुकद्दमों का ट्रायल एक निश्चित समय सीमा के भीतर निटपाने के लिए जिम्मेदार ठहराने की जरूरत है, जो कि अब नए कानून, नागरिक सुरक्षा संहिता के अंतर्गत ऐसा प्रावधान किया भी गया है। पुलिस व अभियोजन पक्ष को लकीर का फकीर न बन कर किसी दोषी की जमानत रद्द करवाने के लिए वो ही घिसी-पिटी बातें लिख कर कि जमानत हो जाने पर गवाहों का डराया-धमकाया व प्रलोभित किया जा सकता है या फिर अपराधी भगौड़ा हो सकता है, इन सब बातों से ऊपर उठकर एक मानवीय व उदारवादी रुख अपनाना चाहिए। जमानत की राशि को तर्कसंगत आधार पर बढ़ाया जा सकता है।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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