ब्रह्मा, विष्णु, महेश

By: Apr 11th, 2024 12:05 am

आज हममें से बहुत से लोग वास्तव में आध्यात्मिक होने के बजाय केवल आध्यात्मिक दिखने की परवाह करते हैं। निश्चित रूप से, एक फैंसी, आध्यात्मिक सोशल मीडिया पोस्ट लिखना आसान है, लेकिन वास्तव में उस उद्धरण पर खरा उतरना, उसे जीवन में उतारना, अपने व्यवहार में लाना कठिन हो सकता है। हमारे जीवन की असली सफलता इसी में है कि हम प्रेम का पाठ पढ़ लें, प्रेम के अढ़ाई अक्षरों को जीवन में उतार लें। यह एक मानसिक यात्रा है, यह मन के विचारों के बदलाव की यात्रा है, यह एक आंतरिक परिवर्तन है और इसके लिए कोई और दिखावा, या किसी और परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है…

हमारे देश में सनातन धर्म में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को सृष्टि के जन्मदाता, पालनकर्ता और संहारक माना गया है। सनातन धर्म इन्हें परम तत्व की तीन अभिव्यक्तियों के रूप में स्वीकार करता है। विज्ञान कहता है कि इलैक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटोन की शक्ति के बिना किसी भी वस्तु का निर्माण सम्भव नहीं है। अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो प्रोटोन को ब्रह्मा जी की अभिव्यक्ति मान सकते हैं, क्योंकि किसी भी वस्तु का अस्तित्व प्रोटोन की विधायी शक्ति के बिना प्रकट ही नहीं हो सकता। उसके प्रकटीकरण का मूल कारण विधायक है, इसीलिए ब्रह्मा जी को विधाता भी कहा गया है। विधाता प्रोटोन है। विधायक न हो तो किसी भी वस्तु की सृष्टि नहीं हो सकती, निर्माण नहीं हो सकता। प्रोटोन के बिना कोई भी वस्तु रूप-रंग, आकार-प्रकार धारण नहीं कर सकती, भौतिक रूप से प्रकट ही नहीं हो सकती। प्रत्येक वस्तु और प्राणी की तीन अवस्थाएं हैं : निर्माण, स्थिति और विनाश। स्थिति में परिवर्तन होता है। यदि परिवर्तन न हो तो उसका विनाश सम्भव नहीं। जिसके द्वारा वस्तु या प्राणी स्थित रहता है अथवा अपनी स्थिति बनाए रखता है, यह है स्थापक यानी भगवान विष्णु का प्रतिबिंब। विज्ञान की भाषा में हम जिसे न्यूट्रॉन कहते हैं, अध्यात्म की दृष्टि से वह भगवान विष्ण के रूप की अभिव्यक्ति है।

शिव विध्वन्स है, इलैक्ट्रॉन है। यदि विध्वन्स न हो तो आविर्भूत वस्तु में परिवर्तन नहीं हो सकता, रूपान्तरण भी नहीं हो सकता। कोई भी वस्तु भौतिक रूप में प्रकट होते ही परिवर्तित होने लगती है, उसमें रूपान्तरण होने लगता है जिसके फलस्वरूप वह नाश की ओर बढऩे लगती है। विध्वन्स की ओर उसका अस्तित्व उन्मुख हो जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश, ये तीन तीनों मौलिक अणुओं के नाम हैं जिन्हें धर्म ने विज्ञान को प्रदान किया है। ये तीन विश्व सृष्टि के आदि मौलिक देवता हैं। इनके न रूप हैं, न रंग हैं, न तो आकार-प्रकार हैं, तीनों अनाम हैं और अरूप हैं। फिर भी वे तीनों सनातन धर्म के मूलाधार हैं। विधायक न हो तो किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं हो सकता। विधायक जन्मदाता, ब्रह्मांड निर्माणकर्ता है। स्थापक न हो तो कोई भी वस्तु अपने अस्तित्व में नहीं रह सकती। अपनी स्थिति को उपलब्ध नहीं हो सकती। इसी प्रकार विध्वन्सक न हो तो वस्तु में परिवर्तन नहीं हो सकता और अन्त में उसका नाश नहीं हो सकता। परिवर्तन होना महत्वपूर्ण है। यदि कोई भी एक स्थिति बराबर बनी रहेगी और उसमें परिवर्तन नहीं होगा तो प्रकृति में विकृति उत्पन्न हो जाएगी, सृष्टि की मर्यादा भंग होने लगेगी। विकृति उत्पन्न न हो और सृष्टि की मर्यादा भी न भंग हो, इसके लिए परिवर्तन और विध्वन्स आवश्यक है। अस्तित्व अपने आपको तीन रूपों में अभिव्यक्त कर रहा है। तात्पर्य यह कि अस्तित्व की तीन अभिव्यक्तियों के योग से अस्तित्व निर्मित होता है। किसी भी अस्तित्व की अभिव्यक्ति के मूल में इन तीनों का योग समझना चाहिए। ‘सहज संन्यासी’ के रूप में इसीलिए हम यह मानते हैं कि इस ब्रह्मांड की हर वस्तु, हर प्राणी और खुद हम भी इलैक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटोन के योग से ही बने हैं तो फिर फर्क कहां है? और अगर फर्क है ही नहीं तो किसी भी वस्तु या प्राणी से उपेक्षा कैसे हो सकती है, नफरत कैसे हो सकती है?

‘सहज संन्यास मिशन’ की ओर से यह बार-बार दोहराया जाता रहा है कि पूजा सिर्फ तभी पूजा है जब हम प्रेममय हो जाते हैं, देश, धर्म, जाति, लिंग, क्षेत्र की बात छोडक़र हर व्यक्ति से प्रेम करने लगते हैं, बिना कारण प्रेम करने लगते हैं, और व्यक्ति से ही नहीं, हर वस्तु से प्रेम करने लगते हैं, हर जड़-चेतन जीवन का सम्मान करने लगते हैं, बिना कारण, बिना लालच, बिना किसी डर के। यह जीवनशैली अपना लें तो मन हमेशा प्रसन्न-प्रफुल्लित रहता है। जब हम प्रेममय हो जाते हैं तो शिकायतें खत्म हो जाती हैं, किसी बात का गिला नहीं रह जाता, क्रोध नहीं रह जाता, पछतावा नहीं रह जाता, इन सब की जगह कृतज्ञता का भाव आ जाता है, समर्पण का भाव आ जाता है, सेवा का भाव आ जाता है। इस तरह हम अध्यात्म की कई सीढिय़ां चढ़ जाते हैं। हम आध्यात्मिक होते हैं तो ब्रह्मांड से जुड़ जाते हैं, परमात्मा से जुड़ जाते हैं। ‘सहज संन्यास मिशन’ के अनुगामी के रूप में हम सबका मानना है कि दुनिया माया नहीं है, जीवन सपना नहीं है। हम जीवित हैं, हमें एक शरीर मिला है और हम इस दुनिया में हैं, तो यह भी एक सच है, और इसे झुठलाया नहीं जाना चाहिए। दुनिया में रहकर दुनिया वालों से प्रेम करना, उनकी सेवा करना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। आध्यात्मिकता का अर्थ है कि हम सब के प्रति दया का भाव रखें, प्रेम का भाव रखें, जहां तक संभव हो, निस्वार्थ भाव से सहायता करें। हम खुद को बदलें, हमारे अंदर के परिवर्तन से ही सब कुछ बदलेगा। हमारा नजरिया बदलेगा तो हम बदलेंगे। हम बदलेंगे तो परिवार बदलेगा, समाज बदलेगा, देश बदलेगा, दुनिया बदलेगी। जब तक हम खुद नहीं बदलेंगी, हमारी दुनिया नहीं बदलेगी। हमारे संपर्क में आने वाले लोग हमारी दुनिया हैं। हम बदल जाएंगे तो शायद हम उन लोगों में बदलाव ला सकेंगे जो हमारे संपर्क में आते हैं। हम ही नहीं बदले तो बाकी सब बदल भी जाए तो भी हमारे लिए वह बदलाव अर्थहीन ही रहेगा। समस्या यह है कि मार्केटिंग के इस युग में आध्यात्मिकता भी बिकाऊ हो गई है। हमें ऐसी बातें परोसी जा रही हैं जो सत्य प्रतीत होती हैं। हम झूठ को पकड़ लेते हैं, लेकिन अक्सर सच लगने वाले झूठ को, या सच और झूठ की मिलावट से बनी बातों के जाल में फंस जाते हैं।

सच तो यह है कि आध्यात्मिकता निरर्थक है यदि हम इसके बारे में बात करते हैं, सोचते हैं और पढ़ते हैं, लेकिन इसके बारे में कुछ नहीं करते। अध्यात्म व्यावहारिकता है, यह मांग करता है कि हम बात करें या न करें, पर अध्यात्म को व्यवहार में उतारें, उस पर अमल करें। पारंपरिक धर्म और नए युग की आध्यात्मिक शिक्षाओं दोनों ने दयालु और दयालु होने पर प्रकाश डाला है, लेकिन इन प्रणालियों ने ‘आध्यात्मिक बनने की इच्छा रखने वाले’ लोगों की एक सेना तैयार कर दी है। आज हममें से बहुत से लोग वास्तव में आध्यात्मिक होने के बजाय केवल आध्यात्मिक दिखने की परवाह करते हैं। निश्चित रूप से, एक फैंसी, आध्यात्मिक सोशल मीडिया पोस्ट लिखना आसान है, लेकिन वास्तव में उस उद्धरण पर खरा उतरना, उसे जीवन में उतारना, अपने व्यवहार में लाना कठिन हो सकता है। हमारे जीवन की असली सफलता इसी में है कि हम प्रेम का पाठ पढ़ लें, प्रेम के अढ़ाई अक्षरों को जीवन में उतार लें। यह एक मानसिक यात्रा है, यह मन के विचारों के बदलाव की यात्रा है, यह एक आंतरिक परिवर्तन है और इसके लिए कोई और दिखावा, या किसी और परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। गृहस्थ में रहते हुए, परिवार में रहते हुए, दुनिया में रहते हुए ब्रह्मांड की हर वस्तु और हर प्राणी से प्यार ही अध्यात्म का एकमात्र स्वरूप है। बस इसे ही समझने की जरूरत है। सहज संन्यास भी श्रेष्ठ है।

स्पिरिचुअल हीलर

सिद्धगुरु प्रमोद जी

गिन्नीज विश्व रिकार्ड विजेता लेखक

ई-मेल: indiatotal.features@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App