राम सिंह पठानिया : इतिहास के गुमनाम नायक

By: Apr 9th, 2024 12:05 am

11 नवंबर 1849 ईस्वी को वजीर राम सिंह पठानिया सिर्फ 24 साल के थे, जब वह अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए लड़ते हुए बलिदान हो गए। उनकी जयंती पर देश उन्हें नमन करता है…

वजीर राजपूत राम सिंह पठानिया के साहस की प्रशंसा का गीत है : ‘किला पठानिया खूब लधाय्या, बल्ली पठानिया खूब लधाय्या, डाली दिया धारा दफाली जो बजड़ी, कुमनी बज्जय तामूर…।’ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के भूले हुए नायकों को याद करते हुए देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हमें मुख्यधारा के हिस्से के रूप में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के भूले हुए नायकों के आख्यानों को गले लगाने की आवश्यकता है। चाहे जितनी तरह से कही जाए और जितनी बार, आजादी की कहानी से कुछ छूट ही जाता है, चाहे कितने भी तरीके और कितनी बार कहा जाए, जब स्वतंत्रता संग्राम की कहानियों की बात आती है तो कुछ बातें हमेशा अनकही रह जाती हैं। यह सच है कि इतिहास ‘जो हुआ उसका आख्यान’ है, लेकिन यह तय नहीं है, यह लगातार विकसित होता है। जब समुदाय जागरूक और मुखर हो जाते हैं, तो वे अपने अनसुने इतिहास का पता लगाते हैं और मुख्यधारा के आख्यानों पर दावा करते हैं। इस प्रकार, जागरूक समुदायों का इतिहास दो तरह से उभरता है : अकादमिक इतिहास के रूप में और सार्वजनिक इतिहास के रूप में। स्वतंत्रता सेनानी वजीर राजपूत राम सिंह पठानिया (1824-1849) का नाम महान सपूतों में गिना जाता है। उन्होंने मु_ी भर साथियों के साथ अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिलाकर रख दी थी।

उस वक्त वजीर राजपूत राम सिंह पठानिया की उम्र महज 24 साल थी। इस वीर सपूत का जन्म नूरपुर रियासत के वजीर श्याम सिंह के घर 10 अप्रैल 1824 को हुआ था। उनके पिता नूरपुर रियासत में राजा वीर सिंह के वजीर थे। अंग्रेजों को भी पता था कि वो वजीर राजपूत राम सिंह पठानिया को आसानी से गिरफ्तार नहीं कर सकते हैं। ऐसे में उन्होंने प्लान बनाया और जब वजीर राजपूत राम सिंह पठानिया पूजा-पाठ कर रहे थे, तब उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, आजीवन कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेज दिया और बाद में उन्हें रंगून भेजा गया। 11 नवंबर 1849 को मातृभूमि की रक्षा करते हुए मात्र 24 साल की उम्र में वीरगति को प्राप्त हो गए। राजपूत राम सिंह पठानिया एक किशोर राजपूत अंग्रेजों के खिलाफ उत्प्रेरक बन गया। बहादुरी के कुछ कृत्यों को पदक या प्रशंसा से सम्मानित किया जाता है, और लोग कुछ को सदियों तक याद करते हैं, लेकिन शायद ही कभी बहादुरी के कार्य की पूजा की जाती है। वजीर राम सिंह पठानिया ने इतना त्रुटिहीन काम किया कि लोगों ने उनके लिए एक मंदिर समर्पित किया। उनकी बहादुरी ने उन्हें भगवान की स्थिति तक पहुंचा दिया। राजपूत राम सिंह पठानिया भारतीयों के लिए तत्काल स्वतंत्रता नहीं लाए, लेकिन यह भारतीय लोगों में एकता लाए और ब्रिटिश सरकार के कब्जे के प्रतिरोध के लिए उत्प्रेरक बन गए। राजनीति, वैचारिक और व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों के चलते इतिहासकारों ने कई महानायक बना दिए, यहां तक कि कई ऐसे भी जो इस लायक नहीं थे।

इसका खामियाजा भुगतना पड़ा, उन लोगों को जिन्होंने देश पर अपनी जान बलिदान कर दी, लेकिन लोग उन्हें जानते तक नहीं। यह लेख उन गुमनाम नायकों में से एक राजपूत राम सिंह पठानिया के बारे में है जिनको भारतीय इतिहास की किताबों में वो जगह नहीं मिली जिसके कि वो हकदार थे। यहां तक कि उनका योगदान आप जिनको महानायक कहते हैं, उनसे भी ज्यादा था। हर एक व्यक्ति देश पर अपनी जान बलिदान कर फांसी चढऩे वाले भगत सिंह को तो जानता है, लेकिन क्या किसी को पता है एक भारतीय युवा राजपूत राम सिंह पठानिया ने पूर्व तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रॉबर्ट पील के भतीजे ब्रिटिश अधिकारी जॉन पील को तलवार से मौत के घाट उतारा था? 1857 का विद्रोह, जिसने ब्रिटिश सरकार को मूल रूप से हिला दिया था, को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भारतीयों के नेतृत्व में पहले सशस्त्र विद्रोह के रूप में याद किया जाता है। लेकिन यह केवल अर्ध-सत्य है क्योंकि 1857 का महान विद्रोह न तो पहला विद्रोह था और न ही अंतिम। भारतीय चाहे उत्तर, दक्षिण, पूर्व या पश्चिम में हों, ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद से हमेशा अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे। 1857 के विद्रोह या स्वतंत्रता के पहले युद्ध से पहले, भारतीयों ने अपने क्षेत्रों को मुक्त करने के लिए कई बड़े और छोटे पैमाने पर लड़ाई लड़ी। राजपूत राम सिंह पठानिया ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर राज के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह शुरू किया और उन्हें अंदर तक हिला दिया। बहादुर राजपूत राम सिंह पठानिया का वास्तविक इतिहास पहले एंग्लो-सिख युद्ध (1845-1846) के अंत के साथ शुरू होता है। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध के बाद अंग्रेजों और सिखों के बीच एक संधि हुई थी, जिसके कारण हिमाचल प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों को ब्रिटिश राज ने अपने कब्जे में ले लिया था। माना जाता है कि 9 मार्च 1846 को लाहौर में संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे।

इस संधि के द्वारा, ब्यास और सतलुज के बीच का क्षेत्र ब्रिटिश प्रभुत्व में गिर गया। इस समय नूरपुर के राजा वीर सिंह की मृत्यु हो गई और चालाक अंग्रेजों ने अपनी धोखेबाज नीतियों के माध्यम से नूरपुर रियासत पर कब्जा कर अपना क्षेत्र घोषित कर दिया। लेकिन बहादुर राजपूत राम सिंह पठानिया ने साथी राजपूत भाइयों के साथ गठबंधन किया, जो कटोच शाखा के थे। हालांकि, राजपूतों की यह मु_ी भर सेना पूरे भारत पर विजय प्राप्त करने वाले शत्रुओं के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया, लेकिन क्षत्रिय के कभी न हारने के रवैये ने अपनी भूमि की रक्षा के लिए जो कुछ भी कर सकते थे, किया। अंग्रेजों ने भी कुछ जागीर और बड़ी रकम देने का वादा किया, लेकिन गर्वित राजपूत राम सिंह पठानिया ने इस पर सहमत होने से इनकार कर दिया। साथ ही अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की राजनीति खेली। वे सिखों और हिमाचल के पहाड़ी लोगों के संबंधों के बीच कड़वाहट को चिंगारी देना चाहते थे। बहरहाल यह कहानी लंबी है। अनेक घटनाक्रम के बाद कालापानी के कैदियों को गुलामों के रूप में काम करने के लिए रंगून (वर्तमान बर्मा) ले जाया गया। यहीं पर राम सिंह को यातनाएं देकर मौत के घाट उतार दिया गया। 11 नवंबर 1849 ईस्वी को वजीर राम सिंह पठानिया सिर्फ 24 साल के थे, जब वह अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए लड़ते हुए बलिदान हो गए। उनकी जयंती पर देश उन्हें नमन करता है।

डा. अमरीक सिंह

शिक्षाविद


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App