पुर्जे-पुर्जे शिकायत

By: Apr 27th, 2024 12:05 am

धर्मपुर बस डिपो की चलती बस के टायर ही नहीं खुले, बल्कि पथ परिवहन निगम प्रबंधन की ढीली चूलें भी सामने आ गई हैं। लापरवाही का नजराना किसे मिला, यात्रियों को जो-बाल-बाल बच गए या चालक को- जो सारी नालायकी का जिम्मेदार बना दिया गया। अब अपनी जांच के ढीले पुर्जों को दुरुस्त करने की दृष्टि से एचआरटीसी प्रबंधन ने धर्मपुर बस डिपो के मुख्य व कार्यकारी मुख्य मैकेनिक निलंबित कर दिए, तो चालक संघ ने आंदोलन का शंखनाद करते हुए यह मांग कर डाली कि जांच के फंदे में आरएम और डीएम को भी निलंबन की सूची में डालें। आश्चर्य यह कि जिस बस को जोगिंद्रनगर से अमृतसर जाना था, उसकी चालन क्षमता व पुर्जों की उपयोगिता इतनी थी ही नहीं कि इसे डिपो से बाहर निकलने की अनुमति मिलती। वैसे जो सरकारी बसें सडक़ों पर तथाकथित रूप से चल रही हैं, उनमें कइयों की स्थिति धर्मपुर बस सरीखी ही है। आश्चर्य यह कि लंबे और अंतरराज्यीय बस रूटों पर भी सुरक्षित आवागमन की गारंटी नहीं। बेशक एचआरटीसी पर आज भी यात्रियों का भरोसा है और वे इसे ब्रांड हिमाचल की दृष्टि से अहमियत देते हैं, लेकिन वर्तमान स्थिति में सरकारी बसों की छवि जगह-जगह ब्रेकडाउन के कारण खराब हो रही है। यही वजह है कि प्रदेश के स्थानीय रूटों पर निजी बसों को यात्रियों की प्राथमिकता मिल रही है। वोल्वो बसों के संचालन में भी एचआरटीसी पिछड़ चुकी है, जबकि निजी क्षेत्र के कारण हिमाचल पर्यटकों को सुविधाजनक यात्रा के माध्यम से आकर्षित कर पा रहा है।

जाहिर है हिमाचल परिवहन निगम की बसें फिसड्डी साबित हो रही हैं, तो इसके अनेक कारण हैं और जिनके लिए काफी हद तक चालक, मैकेनिक, क्षेत्रीय एवं डिवीजनल मैनेजर ही दोषी नहीं ठहराए जा सकते। जब से सरकारी बसें राजनीतिक फैसलों का बोझ उठाने लगी हैं, इनकी प्रबंधकीय क्षमता के टायर पंक्चर होने लगे हैं। इसलिए धर्मपुर डिपो की बस के टायरों का किस्सा बता रहा है कि भीतर कंगाली का आलम है क्या। हिमाचल के 14 सार्वजनिक उपक्रमों के कुल 5143.46 करोड़ के घाटे में परिवहन निगम ने ही 1966.13 करोड़ गंवाए हैं। यह अजीब सी स्थिति है, जहां घाटा निरंतर बढ़ रहा है, लेकिन सियासी प्राथमिकताएं बेशर्मी से अपना रुतबा आजमा रही हैं। जो रूट होने नहीं चाहिएं, वहां खाली बसें दौड़ रही हैं। जहां बस डिपो होने नहीं चाहिएं, वहां लाभकारी डिपो से छीन कर राजनीतिक आत्म संतुष्टि की जा रही है। कांगड़ा, हमीरपुर, ऊना, मंडी व कुल्लू के निजी बस आपरेटरों से ही एचआरटीसी प्रबंधन की कला सीख ले, तो पता चल जाएगा कि एक बस चलाने के लिए कितना अर्थशास्त्र व अर्थगणित चाहिए। न्यू प्रेम बस सर्विस दर्जनों बसें चलाने के लिए डिपो जैसे नखरे तो नहीं उठाता। दूसरी ओर निजी वोल्वो बसों की बुकिंग व यात्री संबंध इस तरीके से बुने गए हैं कि राज्य के बाहर के आपरेटर लाखों कमा रहे हैं। आश्चर्य यह कि एचआरटीसी बस की सीट भले ही फटी हो, प्रबंधन के तौर तरीकों में साहबों के दफ्तर आलीशान व शानोशौकत को तसदीक करते अपना रुतबा बताते हैं।

हैरत है कि प्रबंधन उस चालक को कठघरे में खड़ा कर रहा है, जिसने न बस खरीदी और न ही पुर्जे। उसका दायित्व साफ-सुथरी व अनुशासित ड्राइविंग से यात्रियों को गंतव्य तक पहुंचाना है। यह पुर्जे का घालमेल है और जहां जुगाड़ से गाडिय़ां चल रही हैं। बस के टायर इसलिए खुले कि एचआरटीसी अब या तो जुगाड़ है या कबाड़ बन चुकी है। बेहतर है सरकारी उपक्रम अपने घाटे और संस्थागत बोझ घटाएं।


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