पैसे और राजनीति का इश्क

कुछ मायनों में दिए गए कुछ तर्क ठीक हैं, लेकिन ध्यान रहे कि पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। यह सिर्फ भ्रष्ट नेताओं के संदर्भ में सही होगा। जो नेता ईमानदार हैं और ईमानदारी से कार्य करते रहे हैं, उनके लिए राजनीति जनसेवा है, देशसेवा है। उदाहरण के लिए स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी, स्वर्गीय अटल जी इत्यादि जिनके ऊपर एक भी पैसे का दाग नहीं है। इन सबके अलावा आज और भी ऐसे ईमानदार नेता लोग हैं, लेकिन बहुत कम हैं। दरअसल, यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के चुनकर आने का वास्तविक रहस्य समाज पर वैचारिक प्रभाव है। जिन विचारों का समाज पर अधिक प्रभाव रहता है, उन विचारों को मानने वाले व्यक्ति चुनावों में जीतकर आते रहते हैं और सत्ता भी उसी विचार को मानने वाली पार्टी के पास जाती है…

चुनावी मौसम सुहावना हो रहा है, इस दिलकश माहौल में दौलत के तडक़े की संभावना का इंकार करना कठिन है। यूं भी राजनीति में पैसे का महत्व लगभग हमेशा से रहा है। बिरले ही बिना पैसे के मात्र अपने मेहनत, समाज सेवा, भाषण देने की कला के आधार पर सफल हुए। इस क्षेत्र में एजुकेशन का तो कोई महत्व नहीं है, हालांकि संविधान में सभी को बराबरी का हक है, लेकिन आज की राजनीति में जाति और धर्म का महत्व है जिससे जाति और धर्म के संख्याबल के आधार पर वोट बैंक की राजनीति हो सके। राजनीति और पैसे के इश्क की कहानी दिलचस्प है। चुनावी मौसम में अखबार, टीवी और होर्डिंग्स पर पार्टियों और प्रत्याशियों के विज्ञापनों की भरमार रहती है। लेकिन सवाल यह है कि इन पार्टियों के पास ये पैसा आखिर आता कहां से है? लेकिन कुछ महीने पहले एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स की एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें कहा गया कि देश की पांच राष्ट्रीय पॉलिटिकल पार्टियों को जो कुछ पैसा मिला, उसमें से 53 फीसदी रकम का स्रोत पता नहीं था। यानी ये अज्ञात स्रोतों से थी। पार्टियों की 36 फीसदी आय ज्ञात स्रोतों से आई थी और सिर्फ 11 फीसदी रकम ही मेंबरशिप फीस आदि से जुटाई गई। यानी पार्टियों के खजाने में बेनामी चंदे की भरमार है। चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर व्यवस्था ने राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया में तीन बड़े बदलाव किए। पहला, अब राजनीतिक पार्टियां विदेशी चंदा ले सकती हैं। दूसरा, कोई भी कंपनी कितनी भी रकम, किसी भी राजनीतिक पार्टी को चंदे के रूप में दे सकती है, और तीसरा, कोई भी व्यक्ति या कंपनी गुप्त रूप से चुनावी बॉन्ड के जरिए किसी पार्टी को चंदा दे सकती है।

हो सकता है पहले भी कुछ लोग राजनीति में सेवा के उद्देश्य से आते थे और आज भी कुछ लोग सेवा के उद्देश्य से ही आते होंगे, लेकिन पहले भी अधिकांश लोगों ने सेवा के नाम पर राजनीति का फायदा दौलत समेटने के लिए किया है, और आज तो लगभग सभी लोग, इक्के-दुक्के को छोडक़र राजनीति को पैसा कमाने का जरिया बना चुके हैं। विदेशों में पॉलिटिकल फंडिंग के अपने दस्तूर हैं। अमरीका में अलग-अलग तरह के डोनर्स के लिए अलग-अलग लिमिट तय है। हालांकि थर्ड पार्टी पॉलिटिकल फंडिंग से जुड़े नियम ज्यादा सख्त नहीं हैं, लिहाजा बड़े पैमाने पर पैसा खर्च होता है। अमरीका में सिएटल के लोकल चुनावों में डेमोक्रेसी वाउचर का सिस्टम शुरू किया गया था। सरकार वोटरों को कुछ रकम के वाउचर देती है, जिसे वे अपनी पसंद के कैंडिडेट को चंदे में दे सकते हैं। ब्रिटेन में चंदे की कोई लिमिट नहीं है, लेकिन चुनाव खर्च की सीमा है। पार्टियां प्रति सीट 54 हजार पौंड (57.02 लाख रुपए) से अधिक नहीं खर्च कर सकतीं। यह सीमा पोलिंग डे से पहले के सालभर के दौरान हुए खर्च पर है। ब्रिटेन में किसी सिंगल सोर्स से कैलेंडर ईयर में 7500 पौंड (7.92 लाख रुपए) से ज्यादा रकम मिलने पर उसका खुलासा करना होता है। यूरोपियन यूनियन ने 2014 में यूरोप के राजनीतिक दलों की फंडिंग से जुड़े नियम बनाए थे। डोनेशन की लिमिट तय करने के साथ बड़ी रकम के खुलासे से जुड़े नियम बनाए थे। जर्मनी में पार्टियों को चुनाव लडऩे के लिए सरकार से पैसा मिलता है। पिछले चुनावों में मिले वोटों और पार्टी मेंबरशिप के आधार पर सरकारी फंडिंग होती है। जर्मनी में किसी सिंगल सोर्स से कैलेंडर ईयर में 10 हजार यूरो से अधिक रकम मिलने पर उसका खुलासा करना होता है। यह तो जगजाहिर हो चुका है कि देश में अधिकतर राजनीति का व्यापारीकरण हो गया है।

और यह व्यापार मुफ्त का व्यापार है, इसमें शानो शौकत है, मान और सम्मान है। कुछ पैसा लगाना पड़ता है तो उसका रिटर्न भी अच्छा मिलता है। राजनीति के जरिये पैसा बनाने वालों के अपने तर्क हैं। ये लोग कहते हैं कि क्यों न राजनीति के जरिये पैसे कमाएं, जब चुनाव लडऩे के लिए अथाह धन खर्च करना पड़ता है। ये भी नहीं है कि एक बार जीत गए तो पूरा जीवन नहीं लडऩा पड़ेगा। सिर्फ पांच साल ही मिलेंगे। चुनाव लडऩे के लिए थोड़ी तैयारी भी करनी पड़ती है। पता लगा कि मेहनत तो सारी कुएं में चली गई क्योंकि हाईकमान में मौजूद किसी असरदार नेता के चलते कोई दूसरा व्यक्ति टिकट ले गया। फिर निर्दलीय चुनाव लडऩा पड़ा तो खर्चा और मेहनत दुगना, और पार्टी से बगावत अलग। ये लोग यह भी कहते हैं कि चुनाव प्रचार के लिए गाडिय़ों व कार्यकर्ताओं की फौज, गाडिय़ों के लिए ईंधन और कार्यकर्ता के भोजन-दारू की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक नहीं तो कोई भी साथ नहीं चलेगा। चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं की लिस्ट व जातीय समीकरण के हिसाब से हर जगह सुबह 6 से रात 10 बजे प्रचार के लिए जाना कुछ क्षेत्र के ऐसे मतदाताओं की वोट तभी ‘पक्की’ मानी जाती है जब उन्हें चुनाव से पहले की रात तक लगातार दारू की बोतल और उनके परिवार के अन्य सदस्यों की मांगें पूरी होती रहेंगी। चुनाव कार्यालय के आसपास एक ऐसी जगह फिक्स होती है जहां कार्यकर्ताओं के लिए खाने-पीने के लिए 24 घंटे का बाकायदा हलवाई बिठाकर पूरा बंदोबस्त रहता है।

कुछ कार्यकर्ताओं की भी फीस अलग अलग तरह की होती है। कई तो भाषण विशेषज्ञ होते हैं, नेता कुछ बोले, न बोले, वो नेता जी के लिए एक से बढक़र एक विशेषण शब्द बोलते हैं। कुल मिला कर चुनाव में जुटे सारे कार्यकर्ता पैसे से ही बुलाए जाते हैं। अब इतना खर्च करके कौन ‘वसूली’ नहीं करना चाहेगा। कुछ मायनों में दिए गए कुछ तर्क ठीक हैं, लेकिन ध्यान रहे कि पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती। यह सिर्फ भ्रष्ट नेताओं के संदर्भ में सही होगा। जो नेता ईमानदार हैं और ईमानदारी से कार्य करते रहे हैं, उनके लिए राजनीति जनसेवा है, देशसेवा है। उदाहरण के लिए स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी, स्वर्गीय अटल जी इत्यादि जिनके ऊपर एक भी पैसे का दाग नहीं है। इन सबके अलावा आज और भी ऐसे ईमानदार नेता लोग हैं, लेकिन बहुत कम हैं। दरअसल, यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के चुनकर आने का वास्तविक रहस्य समाज पर वैचारिक प्रभाव है। जिन विचारों का समाज पर अधिक प्रभाव रहता है, उन विचारों को मानने वाले व्यक्ति चुनावों में जीतकर आते रहते हैं और सत्ता भी उसी विचार को मानने वाली पार्टी के पास जाती है। चुनाव जीतने के लिए विचारों का महत्व अधिक है। विचारों से आंदोलन होता है और आंदोलन से राजनीतिक दशा और दिशा बदलती है। इसलिए यह कहना कि राजनीति के लिए बहुत पैसा चाहिए, गैर-वाजिब ही है।

डा. वरिंद्र भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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