लाहुल में बांध, जरा संभल कर

यदि वहां की संवेदनशील ढलानों में भूस्खलन से तबाही शुरू हो गई तो इन लोगों की रोजी पर भी संकट पैदा हो सकता है। हिमालय में सामान्य से एक अंश ज्यादा तापमान में वृद्धि दर्ज की जा रही है, और इसमें बांध जनित मीथेन गैस का भी योगदान माना जा रहा है…
लाहुल, हिमाचल प्रदेश के जिला लाहुल-स्पीति का पश्चिमी भाग है। जिला को कुंजुम दर्रा दो भागों में बांटता है। पूर्वी ओर स्पीति क्षेत्र पड़ता है जिसका पनढल सतलुज की ओर है, जबकि लाहुल का पनढल उसकी विपरीत दिशा में जम्मू कश्मीर की ओर है। चंद्रभागा इस घाटी के जलागम की निकास प्रणाली है। चंद्रभागा का उद्गम बड़ा शिन्ग्री हिमनद से होता है, जहां इसे चंद्रा नदी ही कहते हैं। नीचे तांदी में जब चंद्रा नदी के साथ भागा नदी का सम्मिलन हो जाता है, तो इसका नाम चंद्रभागा हो जाता है, और जम्मू कश्मीर में प्रवेश करने पर इसे चिनाब कहा जाता है। लाहुल से पश्चिम की ओर चंद्रभागा के निचले हिस्से में जिला चंबा का पांगी क्षेत्र पड़ता है। 1966 में राज्य पुनर्गठन से पहले लाहुल घाटी की उदयपुर तक की पंचायतें जिला चंबा का हिस्सा होती थीं, क्योंकि ये अंग्रेजी शासन काल में चंबा स्टेट का हिस्सा थीं। जब हिमाचल का गठन हुआ तो चंबा स्टेट पूरी की पूरी हिमाचल में मिल गई, किन्तु बाकी का लाहुल पंजाब का हिस्सा रहा। तब उदयपुर के नीचे के लाहुल को छोटा लाहुल या चंबा-लाहुल कहा जाता था और बाकी के लाहुल को ब्रिटिश लाहुल या बड़ा लाहुल कहा जाता था। लाहुल की भूगर्भीय स्थिति बड़ी ही नाजुक है। यह ट्रांस हिमालय में गिना जा सकता है। इसकी ढलानें बहुत ही कच्ची हैं और थोड़ी भी बारिश में बह जाने वाली हैं। वैसे तो इस भौगोलिक परिस्थिति में बारिश बहुत ही कम होती है। वर्ष भर में केवल 6.7 इंच बारिश होती है, वह भी ज्यादातर बर्फ के रूप में।
यहां का जलवायु शीत मरुस्थलीय है, किन्तु मिट्टी बहुत उपजाऊ है और विशेषकर बेमौसमी उपज सब्जी, आलू और मटर आदि के लिए बहुत उपयोगी है। यहां का आलू पूरे देश में प्रसिद्ध है और बंगाल तक बीज का आलू यहां से निर्यात होता है। पिछले कुछ वर्षों से मटर की खेती काफी बढ़ी है और यहां की गोभी भी अब अपनी पहचान बना चुकी है। जलवायु परिवर्तन के दौर में तापमान में वृद्धि के चलते यहां भी अब सेब की बागबानी होने लगी है, जबकि पहले यहां का जलवायु सेब के लिए ज्यादा ठंडा था। यह क्षेत्र भूकम्पीय दृष्टि से जोन 5 में पड़ता है, जो अति संवेदनशील श्रेणी में आता है। यह घाटी ग्लेशियरों से भरपूर है। बड़ा शिन्ग्री, छोटा शिन्ग्री और घेपनघाट प्रमुख ग्लेशियर हैं। वैश्विक तापमान वृद्धि के चलते इन हिमनदों के पिघलने की गति बढ़ती जा रही है। हिमनदों के टूट कर संकरी घाटियों में गिरने के कारण झीलें बन जाती हैं। उनमें पानी जमा होता रहता है। जब पानी उन कच्चे मलबे के बांधों की ताकत से ज्यादा हो जाता है तो ये झीलें टूट जाती हैं और आकस्मिक बाढ़ों का कारण बनती हैं। 90 के दशक में पारछू नदी में तिब्बत में हिमनद झील के टूटने से आई बाढ़ ने हिमाचल में अप्रत्याशित बाढ़ की स्थिति बना दी थी और भारी नुकसान झेलना पड़ा था। पिछले दो वर्षों में भी हिमाचल में हिमनद पिघलने से बनी झीलों के टूटने के कारण आई बाढ़ों से भारी जन-धन की हानि हुई है, जिससे अभी तक भी प्रदेश उबर नहीं पाया है। गत दिनों राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग केंद्र हैदराबाद ने हिमालय में 28043 हिमनद झीलों के होने की बात कही है। इनमें से बहुत सी झीलें हिमनद पिघलने की गति तेज होने के कारण आकार में बढ़ती जा रही हैं, जो कभी भी फूट कर निचले क्षेत्रों में भारी बाढ़ का कारण बन सकती हैं।
लाहुल के घेपन घाट हिमनद से बनी झील विशेषकर खतरनाक मानी जा रही है। एक अमरीकी अध्ययन संस्थान ने बताया है कि यह झील जो 14000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है, पिछले वर्षों में आकार में बहुत बड़ी हो गई है। 1989 में यह 36.49 हेक्टेयर में फैली थी और अब 2023 में इसका आकार बढ़ कर 101.30 हेक्टेयर हो गया है। बड़ा शिन्ग्री हिमनद में भी ऐसी कई झीलें हैं जो आने वाले समय में खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। बड़ा शिन्ग्री हिमनद गंगोत्री हिमनद के बाद हिमालय का दूसरा सबसे बड़ा हिमनद है। इस संवेदनशील क्षेत्र में कई जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। यह घाटी आज तक जलविद्युत के लिए दोहन से बची हुई थी, किन्तु अब इसी पर दृष्टि गड़ चुकी है। हाल ही में हिमाचल ने तेलंगाना से दो परियोजनाओं के लिए निर्माण समझौते किए हैं। कुछ निर्माणाधीन हैं। यानी लाहुल से पांगी घाटी तक परियोजनाओं का जाल बिछने वाला है। इनमें से जिस्पा, शंलिंग, सटीगरी, छतडू, मयाड, तांदी, राशेल, सेली, टेलिंग, बदरंग, तिंगरेट, कोकसर, पुर्थी, साच खास और डूगर प्रमुख हैं। लाहुल घाटी कच्चे मलबे पर बसी हुई घाटी है। इसलिए स्थानीय समुदाय इतने बड़े पैमाने पर इस संवेदनशील घाटी में बृहद निर्माण कार्य से होने वाली उखाड़ पछाड़ से डरे हुए हैं कि कहीं उनका हाल भी इसी घाटी के लिंडूर गांव जैसा न हो जाए, जो बिना बारिश के ही भूस्खलन की चपेट में आ चुका है और जहां के वासियों को दूसरी जगह बसाने की जरूरत आन पड़ी है। इसलिए सरकार को इस दिशा में बढऩे से पहले इस पूरे इलाके का भूगर्भीय अध्ययन करवा लेना चाहिए। बांधों की योजना बनाने में ज्यादातर इंजीनियरिंग ज्ञान का ही प्रयोग किया जाता है, जिसकी सीमाएं भी दिखने लग पड़ी हैं।
किन्नौर के उदाहरण से भी सीखने की जरूरत है। उर्नी ढांक के भूस्खलन के सामने सारी इंजीनियरिंग धरी रह गई है। लाहुल क्षेत्र बेमौसमी सब्जी आदि का उत्पादक क्षेत्र है, जिसके कारण काफी समृद्ध भी है। यदि वहां की संवेदनशील ढलानों में भूस्खलन से तबाही शुरू हो गई तो इन लोगों की रोजी पर भी संकट पैदा हो सकता है। हिमालय में सामान्य से एक अंश ज्यादा तापमान में वृद्धि दर्ज की जा रही है, और इसमें बांध जनित मीथेन गैस का भी योगदान माना जा रहा है। जल विद्युत के लिए बने बांधों की झीलों में जैविक पदार्थों के ऑक्सीजन रहित सडऩ से मीथेन गैस पैदा होती है जो कार्बन डाईआक्साइड से भी सात गुणा ज्यादा तापमान वृद्धि का कारण होती है, जिससे लाहुल घाटी में यदि सामान्य से ज्यादा तापमान वृद्धि होती है तो बारिश के दौर में भी वृद्धि हो सकती है, जिसके लिए यहां की धरती बनी नहीं है। बारिश यहां भूस्खलन का बड़ा कारण बन सकती है।
कुलभूषण उपमन्यु
पर्यावरणविद
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