कलम से काबिलीयत की ओर

By: May 7th, 2017 12:07 am

शिखर पर

कलम से काबिलीयत की ओरसरोज वर्मा का जन्म भले एक छोटे से गांव में हुआ, लेकिन जन्म से ही उनकी नन्ही आंखें बड़े-बड़े सपने देखती थीं। उनके भीतर कहीं कुछ कर गुजरने का जुनून था। जिक्र हो रहा है फीचर राइटर सरोज वर्मा उर्फ नेहा वर्मा का। उन्होंने कहा कि मैंने भी उस छोटे से गांव से अपने लिए नए रास्ते खोजने शुरू कर दिए थे, जहां से विकास कोसों दूर था। जिला सिरमौर के पच्छाद निर्वाचन क्षेत्र के दीदग के एक मध्यवर्गीय परिवार में पिता मस्तराम व माता मिनकी देवी के घर जन्मी सरोज वर्मा ने बताया कि मेरा बचपन से सपना था कि ग्रामीण परिवेश से बाहर निकलकर कुछ अलग किया जाए। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही एक स्कूल में हुई, लेकिन उसके बाद उन्होंने चंडीगढ़ का रुख किया। यहां आकर पता चला कि जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए कोई एक नहीं हजारों रास्ते होते हैं। उन्हें बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौक था, जिसे चंडीगढ़ आकर पंख लगे। सरोज वर्मा ने बताया कि 20 साल की उम्र में उनकी शादी मंडी जिला के सुंदरनगर में हुई। चूल्हा-चौका संभालते-संभालते एक बार फिर लगा कि ऐसे में वह अपने सपनों को खत्म होते नहीं देख सकती। फिर उन्होंने परिवार सहित चंडीगढ़ का रुख किया। शुरू में एक ऐड एजेंसी में काम करने लगी, लेकिन बच्चों की जिम्मेदारी होने के चलते वह लिख नहीं पा रही थी। इस बीच उन्होंने एक न्यूज पेपर में रिपोर्टर के तौर पर काम शुरू किया। कितना कुछ सीखा और फिर कई पेपरों में अपने हुनर को तराशती चली गईं। दिक्कते यहां भी कम नहीं थी कि जॉब की वजह से वह बच्चों और परिवार को समय नहीं दे पा रही थी। इसी बीच कार्यालय में उन्होंने अपनी परेशानी एक सहकर्मी से साझा की। उन्होंने सरोज को  सलाह दी कि जॉब छोड़कर स्वतंत्र पत्रकारिता कर सकती हो। फिर क्या था उनके दिमाग में सहकर्मी की बात घर कर गई और उन्होंने जॉब छोड़ दी। इसके बाद उन्होंने बड़े-बड़े स्टार्स के साथ इंटरव्यू, लेख, कविताएं व आर्टिकल लिखने शुरू किए जो दैनिक समाचार कई प्रतिष्ठित पत्रों में प्रकाशित हुए। इसी सफर में एक मुकाम ऐसा आया कि उन्हेें इंडिया अचीवमेंट अवार्ड के लिए नोमिनेट किया गया और दिल्ली में उन्हेें यह सम्मान दिया गया। यह अवार्ड उन्हेें असम के पूर्व राज्यपाल सिब्ते राजी द्वारा दिया गया। सरोज वर्मा ने बताया कि अच्छे लेखन की वजह से अब तक मुझे तीन अवार्ड मिल चुके हैं। इनमें इंडिया अचीवमेंट अवार्ड, ग्रेट आइकॉन ऑफ इंडिया, प्राइड ऑफ कंट्री शामिल हैं। हाल ही में मुंबई में आयोजित इंटरनेशनल हृयूमन राइट काउंसिल के भाना अवार्ड-2017 समारोह में अवार्ड ऑफ नोबलिस्ट से सम्मानित किया गया। यह अवार्ड क्रिएटिव और कल्चरल राइटिंग में दिया गया है। उन्होंने हाल ही में नशे के खिलाफ बनी एक हिंदी शार्ट मूवी में खास भूमिका निभाई है। इसके अलावा वह समाज के एक गंभीर मुद्दे पर लिखी जा रही किताब में भी को-राइटर की भूमिका में हैं। कल्चर से संबंधित वह अपनी एक मौलिक किताब पर भी काम कर रही हैं, जो जल्द पाठकों के हाथ में होगी। उन्होंने बताया कि वह आज जो कुछ भी हैं मायके परिवार में अपने भाई-बहन और ससुराल पक्ष में अपने जीवनसाथी की वजह से हैं। उनकी बेटी अंजलि वर्मा भी उनके हर काम को सराहती है और उनकी उम्मीदों को समझती है। शायद यही वजह है कि वह आगे बढ़ रही हैं। सरोज अभी खुद को कामयाब नहीं मानती और कहती हैं कि अभी सफर जारी है। उन्होंने ट्विंकल खन्ना, अक्षय चतुवर्ती, विनोद चंद, धर्मेंद्र, शगुफ्ता रफीक, संग्राम सिंह, सरगुन सिवेंद्रम व लखविंद्र बडाली जैसे स्टार्स के इंटरव्यू प्रकाशित किए हैं। उन्हें हिमाचली गीत नीरू चाली घूमदी अकसर याद आता है। पहला अवार्ड वर्ष 2014 में दामिनी रेप कांड पर लिखी गई कविता के लिए मिला। भाना अवार्ड के संस्थान द्वारा ऑनलाइन प्रोफाइल भेजी जाती है। प्रोफाइल में दिए गए विवरण को भरने के बाद ही कमेटी द्वारा पुरस्कार के लिए चयनित किया जाता है। शार्ट मूवी आवाज में मैंने मां का रोल किया है।

— रमेश पहाडि़या, नाहन

मुलाकात

आज जो कुछ भी हूं हिमाचल की वजह से ही हूं…

कब पता चला कि आपकी दिशा लेखन की ओर इशारा कर रही है?

यह सवाल मेरे लिए बहुत अहम है। दरअसल हर इनसान में एक लेखक बसता है। बस उसे पहचानने की जरूरत होती है। फर्क इतना है कि कुछ लोग शब्दों का सहारा लेकर अपने आपको परिभाषित कर पाते हैं और कुछ नहीं। जिंदगी आपको कई पड़ाव से गुजरने का मौका देती है। मेरे साथ भी ऐसा हुआ है। घर परिवार, समाज और अपने आसपास की चीजों से गुजरते हुए मैंने अपने अंदर लेखन के बीज अंकुरित होते महसूस किए। मैं अपने भावों को दबाकर नहीं रख सकी और मेरा लेखन कार्य शुरू हो गया, जो जारी है।

लेखन अगर रोजी-रोटी का साधन बन जाए तो इसकी मौलिकता को साधना कितना मुश्किल हो सकता है?

हर लेखक की अपने लेखन में एक मौलिकता होती है। मैं इस सवाल का जवाब दो तरह से दूंगी, क्योंकि मैंने हमेशा ही लेखन को दो तरह से जिया है। एक तो अगर लेखन आपका रोजी-रोटी का साधन है, तो जाहिर सी बात है कि आपको कई बार इससे समझौते भी करने पड़ेंगे। लेखन साधना की तरह है और साधन मन से रूह से बिना किसी विघ्न के होती है वह भी निरंतर। मैंने इस विचार को हमेशा आगे रखा है और लेखन से कभी समझौता नहीं किया।

व्यावसायिक लेखन के बीच आपकी निजी संवेदना किन विषयों को छूना चाहती है?

मैंने हमेशा ही उन विषयों पर लिखा है, जो मेरी निजी संवेदनाओं के साथ-साथ सामाजिक संवेदनाओं से भी जुड़े  हुए हैं। मैं उन सभी विषयों को छूना चाहती हूं जिन्हें आज के व्यावसायिक लेखन में फंसा लेखक छूने से डरता है। वह चाहे सामाजिक हो आर्थिक या मानसिक। आप जितना निजी संवेदनाओं से जुड़े होते हो उतने ही गंभीर रूप से आप समाज की संवेदनाओं को पकड़ने की कोशिश करते हो।

आपके जीवन को कलम ने निर्धारित किया या यही नियति थी कि आप लेखन में भूमिका तराशती रहीं?

कहीं न कहीं आपका लेखन आपके निजी जीवन को भी प्रभावित करता है, ऐसा मैंने महसूस किया है। जब आप कुछ भी लिखते हो तो पहला संवाद लेखन का आपसे ही होता है कि आप क्या कर रहे हो या क्या करने जा रहे हो। लेखन या कलम आपको असल मायने में तराशती है।

लेखन में सबसे अच्छा प्रयोग किस विधा में रहा और जिसे खोजने निकली वह कहां मिला?

मैंने फीचर राइटिंग के साथ-साथ समाज के उन विषयों को भी छूने की कोशिश की है जिन्होंने हमेशा से ही मुझे झिंझोड़ा है। जब आप एक पत्रकार की भूमिका में होते तो आपको अपना कोई निजी सरोकार छोड़ना पड़ता है। इसे मैं खुद से समझौता करना कहती हूं। मैंने स्वतंत्र लेखन को हमेशा ही तरजीह दी है। यहां मैं समाज के प्रति अपनी बात खुल कर रख सकती हूं।

क्या लिखना भी गुरु  की दीक्षा से प्राप्त हो सकता है या आप किसी को इस रूप में देखती हैं?

दो चीजें होती हैं जिंदगी में। एक बनाई गई और दूसरी स्वरूप निर्मित। लेखन भी ऐसा ही है। आपके पहले खुद अंदर कुछ होना चाहिए उसे तराशने की बात बाद में आती है। गुरु या मार्गदर्शक इसमें अहम भूमिका निभाता है। मुझे बहुत सारे लोगों से मिलने का मौका मिलता है। सब कुछ न कुछ सिखाकर जाते हैं। किसी न किसी की कोई न कोई बात आपको कुछ न कुछ देकर जाती है।

लेखन से लेखक कब गिर सकता है या कलम की प्रतिबद्धता को जब नजरअंदाज करते हैं तो?

लेखन से जब समझौते होते हैं आपका लेखन आपको बनाकर नहीं रख पाता। आपका लेखन बता देता है कि आप किस स्तर पर हो। कलम की प्रतिबद्धता को जब नजरअंदाज करते हैं तो लेखन में गिरावट आती है। लेखन के प्रति ईमानदार रहना लेखक की लेखन से पहले सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।

किसे पढ़ना अच्छा लगता है?

मुझे ज्यादातर इतिहास से जुड़ी किताबें पढ़नी अच्छी लगती हैं। कविता लेखन से भी जुड़ी हुई हूं। मैं पढ़ने के कोई मानक नहीं तय करना चाहती। जहां लगता है कि कुछ सीखने का मौका मिल रहा है उस साहित्य को पकड़ लेती हूं। फिर वह चाहे नवोदित लेखक का हो या किसी पुराने का।

किताबों के जखीरों में क्या खोज पाईं?

किताबें असल जिंदगी की तरजुमानी करती हैं। भाषा से साहित्य निर्मित होता है और साहित्य से ही संस्कार। इतना साहित्य रचा जा रहा है जिसका कोई अंत नहीं है। अंग्रेजी, पंजाबी की अनुवादित और हिंदी से जुड़ी किताबों से मैंने जिंदगी जीने की बारीकियों को बहुत नजदीक से देखा है। किताबें आपकी संवेदना को तराशती हैं। मैंने यही संवेदना किताबों से पाई है।

साहित्य की रचना सरल है या पत्रकार की कलम?

दोनों की अपनी विशालताएं हैं। यह कहना मुश्किल है कि दोनों में से कौन सा सरल है। मैं दोनों के ही बहुत पास हूं तो मैं दोनों में ही आत्मिक संतुष्टि महसूस करती हूं। साहित्य जितना आपको अंतरमन से जोड़ता है पत्रकारिता उतना ही आपको आकाश में उड़ने के लिए नए आसमान पैदा करती है।

लेखन में पुरस्कारों की जुगत के क्या मायने या समाज की आंख से लेखक की पहचान में अंतर कैसे आएगा?

अगर आप साधना की तरह लेखन करते हो तो पुरस्कार किसी जुगाड़ या जुगत से लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। समाज आपको आपके लेखन से ही जानता है न कि आपको मिले पुरस्कारों से। आपका लेखन ही आपका पुरस्कार है।

लौट के उसी माटी को कुछ देना हो ?

मैं भले काफी समय से चंडीगढ़ में रह रही हूं, लेकिन अपनी हिमाचली माटी से मेरा मोह कभी कम नहीं हुआ। यहां की आबोहवा मेरे जहन में हमेशा बनी रहती है। मैं क्या दे सकती हूं हिमाचल को, आज जो कुछ भी हूं मैं हिमाचल की वजह से ही हूं।

और कुछ हिमाचली गुनगुनाना हो?

हिमाचली अगर कुछ गुनगुनाना हो तो यह गुनगुनाऊंगी ‘माए नी मेरिए शिमले दी राहे चंबा कितनी के दूर…’।

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