राजधर्म के 36 लक्षण

By: Jun 16th, 2018 12:12 am

महाराणा प्रताप जयंती पर विशेष

महाभारत का शांतिपर्व भारतीय राजनीतिक चिंतन की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण थाती है। शांतिपर्व से एक रोचक पृष्ठभूमि जुड़ी हुई है। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त होने के बाद युधिष्ठिर का मन शोकाकुल हो जाता है। वह क्षात्रधर्म को हिंसक और त्याज्य मानकर संन्यास की तरफ  प्रवृत्त होना चाहते हैं। पांचों पांडवों द्वारा समझाने के बावजूद वह क्षात्रधर्म का उत्तरदायित्व ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं होते। ऐसे में भीष्म पितामह राजधर्म की सर्वोत्कृष्टता और आवश्यकता को युधिष्ठिर के समक्ष रखते हैं। भीष्म पितामह क्षात्रधर्म की महत्ता को स्थापित करते हुए कहते हैं कि राजकाज की प्रकृति इतनी जटिल है कि इसमें सभी प्रकार के त्याग-तप स्वयंमेव हो जाते हैं। राजा प्रजा के रंजन अर्थात उन्हें प्रसन्न करने का उत्तरदायित्व निभाता है, इसलिए संपूर्ण पुण्य उसे अपने आप मिल जाते हैं। क्षात्रधर्म में ही सभी धर्म निहित हैं। यह इसलिए भी सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि बेहतर राजकाज की स्थिति में सभी नागरिक अपने हिस्से के धर्म का निर्वहन कर पाते हैं। यदि सत्ता प्रणाली ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रही होती तो उसमें अध्ययन-अध्यापन जैसे कार्यों को ठीक ढंग से संपादित नहीं किया जा सकता। राजधर्म की जटिलता की तरफ  संकेत करते हुए भीष्म पितामह कहते हैं कि यह कठोर और मृदु प्रक्रियाओं का मिश्रण है। यदि राजा बहुत कठोर है तो वह सम्यक तरीके से राजकाज का निर्वहन नहीं कर सकता और इसी प्रकार यदि राजा बहुत नम्र है तो अधिकारी उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे। इसलिए राजकाज में गतिशीलता का होना बहुत आवश्यक है। राजा के लिए कोई भी आदर्श स्थिर नहीं हो सकता। देश, काल, पात्र के अनुसार उसे आदर्शों का चुनाव करना पड़ता है और उन आदर्शों के अनुरूप आदेश देने पड़ते हैं। इसी क्रम में भीष्म पितामह राजकाज के व्यक्ति में आवश्यक रूप से शामिल होने वाले 36 गुणों का उल्लेख करते हैं। यह गुण आज की राजनीतिक व्यवस्था में भी शासक के लिए मार्गदर्शक हैं। ये गुण निम्नवत हैं- 1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्त्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परंतु जीवन में कटुता न आने दे। 2. आस्तिक रहते हुए दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़े। 3. क्रूरता का व्यवहार न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।  4. मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।  5. दीनता न दिखाते हुए ही प्रिय भाषण करे।  6. शूरवीर बने, परंतु बढ़-चढ़कर बातें न करे। इसका अर्थ है कि राजा को मितभाषी और शूरवीर होना चाहिए। 7. दानशील हो, परंतु यह ध्यान रखे कि दान अपात्रों को न मिले। 8. राजा साहसी हो, परंतु उसका साहस निष्ठुर न होने पाए। 9. दुष्ट लोगों के साथ कभी मेल-मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे।  10. बंधु-बांधवों के साथ कभी लड़ाई-झगड़ा न करे। 11. जो राजभक्त न हों ऐसे भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों से कभी भी गुप्तचरी का कार्य न कराए।  12. किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना ही अपना काम करता रहे। 13. दुष्टों को अपना अभीष्ट कार्य न कहे अर्थात उन्हें अपनी गुप्त योजनाओं की जानकारी कभी न दे। 14. अपने गुणों का स्वयं ही बखान न करे। 15.श्रेष्ठ पुरुषों (किसानों) से उनका धन (भूमि) न छीने। 16. नीच पुरुषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न ले, अन्यथा देर-सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है। 17. उचित जांच-पड़ताल किए बिना (क्षणिक आवेश में आकर) किसी व्यक्ति को कभी भी दंडित न करे।   18. अपने लोगों से हुई अपनी गुप्त मंत्रणा को कभी भी प्रकट न करे। 19. लोभियों को धन न दे।  20 जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर कभी विश्वास न करे।  21. ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्री की सदा रक्षा करे।  22. राजा शुद्घ रहे, परंतु किसी से घृणा न करे। 23. स्त्रियों का अधिक सेवन न करे। आत्मसंयमी रहे। 24. शुद्घ और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकार भोजन कभी न करे।  25. उद्दंडता छोड़कर विनीत भाव से माननीय पुरुषों का सदा सम्मान करे। 26. निष्कपट भाव से गुरुजनों की सेवा करे।  27. दंभहीन होकर विद्वानों का सत्कार करे, अर्थात विद्वानों को अपने राज्य का गौरव माने। 28.ईमानदारी से (उत्कोचादि भ्रष्ट साधनों से नहीं) धन पाने की इच्छा करे।  29. हठ छोड़कर सदा ही प्रीति का पालन करे। 30. कार्यकुशल हो, परंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो।  31. केवल पिंड छुड़ाने के लिए किसी को सांत्वना या भरोसा न दे, अपितु दिए गए विश्वास पर खरा उतरने वाला हो। 32. किसी पर कृपा करते समय उस पर कोई आक्षेप न करे।  33. बिना जाने किसी पर कोई प्रहार न करे। 34. शत्रुओं को मारकर किसी प्रकार का शोक न करे। 35. बिना सोचे-समझे अकस्मात किसी पर क्रोध न करे। 36. कोमल हो, परंतु  अपकार करने वालों के लिए नहीं। शांतिपर्व में रेखांकित किए गए राजा के 36 गुण भारतीय राजनीतिक चिंतन के आदर्श बन गए। महाराणा प्रताप जैसे राष्ट्र और धर्म पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले अनेक राजर्षियों पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। महाराणा प्रताप जयंती 16 जून को मनाई जाएगी।


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