बेटी या बलात्कारी बचाओ
अंततः बिहार की समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। उनके और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए मजबूरी का आलम तैयार हो गया था। अब बचने का कोई रास्ता नहीं था। नैतिकता और हकीकत की पोल खुल चुकी थी। सीबीआई के प्रथमदृष्टया निष्कर्ष थे कि मंजू के पति चंद्रेश्वर वर्मा और इस ‘भेडि़या कांड’ के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर के बीच करीबी संबंध थे। वे साथ-साथ दिल्ली यात्राएं भी करते थे। जनवरी और जून के बीच 17 बार मोबाइल पर दोनों की बात हुई थी और 9 बार मुजफ्फरपुर के ‘दागदार’ बालिका गृह भी मंत्री जी के पति गए थे। मुजफ्फरपुर वर्मा दंपत्ति का गृहनगर नहीं था। फिर भी इन्हीं आधारों पर किसी को भी बलात्कारी या दुष्कर्मी करार नहीं दिया जा सकता, लेकिन शक की सुई तो संकेत करती ही है। बिहार के मुजफ्फरपुर और उप्र के देवरिया के ‘राक्षस-गृहों’ में जो महापाप किए जाते रहे हैं, उन पर सर्वोच्च न्यायालय की एक कठोर टिप्पणी ही पर्याप्त है। शीर्ष अदालत ने गुस्से और निराशा में यह टिप्पणी की है-‘लगता है राज्य सरकारें ही रेप करवा रही हैं!’ यह शर्मनाक है, पराकाष्ठा है और नीतीश-योगी सरीखे मुख्यमंत्रियों की छवि पर कलंकित सवाल भी है। सोचने पर विवश होना पड़ता है कि देश के दो बड़े राज्यों में प्रधानमंत्री मोदी के सरकारी अभियान का नाम ‘बेटी बचाओ…’ या ‘बलात्कारी बचाओ’ है? प्रख्यात समाजसेवी रंजना कुमारी के मुताबिक मुजफ्फरपुर और देवरिया में ही बच्चियों के नरक नहीं हैं, बल्कि ऐसे 17 केंद्र और हैं, जहां दरिंदगी जारी है। सरकार उन केंद्रों में जांच करा रही है अथवा नहीं, यह साफ नहीं है, लेकिन केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी की भी यह स्थापना है कि देश में कई और मुजफ्फरपुर और देवरिया हैं। मेनका के मंत्रालय ने अगले 60 दिनों में देश भर में 9462 बाल देखभाल गृहों के ‘सामाजिक लेखा-जोखा’ के आदेश दिए हैं। इनमें से 7109 शेल्टर होम ही पंजीकृत हैं। करीब 1921 केंद्र बच्चों के लिए ही हैं, जिनमें करीब 44,000 बच्चे रहते हैं। प्रत्येक बच्चे पर जो खर्च तय किया हुआ है, वह भारत सरकार और राज्य सरकारें मुहैया कराती हैं। मंत्रालय की वेबसाइट पर अंकित है कि 2017-18 के दौरान भारत सरकार 636.90 करोड़ रुपए की राशि एनजीओ को बांट चुकी है। सवाल यह है कि सरकारी अनुदानों पर पलने और बढ़ने वाले कथित ‘बालिका सुधार गृह’ अनाथ-सी बच्चियों की सुरक्षा, भरण-पोषण, शिक्षा-दीक्षा के लिए हैं अथवा ‘बलात्कार केंद्र’ हैं ? 2016 में कुल 38,947 बलात्कार के केस सामने आए हैं। 2017-18 में यह संख्या बढ़ना निश्चित है, क्योंकि यह कुरीति जारी है। ऐसे शब्द और आंकड़े लिखते हुए शर्म भी आ रही है और मन के भीतर गुस्सा भी उबल रहा है। दरअसल किसी भी एनजीओ को सरकारी अनुदान देना अनैतिक या अनाचार अथवा भ्रष्टाचार नहीं है। यह भी व्यवस्था की एक प्रक्रिया है। भारत सरकार और राज्य सरकारें अनुदान मुहैया कराती आई हैं, ताकि सामाजिक दायित्व भी व्यापक स्तर पर निभाए जा सकें। लेकिन राजनीतिक संरक्षण में मिलीभगत के मद्देनजर भ्रष्टाचार के गलत इरादों की पूर्ति के लिए इन गृहों, केंद्रों की संचालिकाएं यह भूल जाती हैं कि वे भी बेटियों की मां हैं और सबसे बढ़कर एक औरत हैं। समझ नहीं आता कि औरत ही 7-18 साल तक की बच्चियों को यौन शोषण के बाजार में कैसे धकेल सकती है? बेशक लाल, काली, बड़ी कारों वाले ‘सफेदपोश राक्षस’ ही होंगे! यदि एक ‘मां’ ही बच्चियों की इज्जत नीलाम कर सकती है, तो फिर ‘बेटी बचाओ…’ राष्ट्रीय स्तर पर ही बेमानी है। हैरानी होती है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सार्वजनिक कथनों पर और उप्र के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ तो बुनियादी रूप से ही ‘योगी’ हैं। बेशक वह दागदार नहीं हैं, लेकिन उनकी छवि के साथ ‘कुशासन’ जरूर जुड़ गया है। मुजफ्फरपुर और देवरिया के ‘बलात्कार कांडों’ की शुरुआत किस सरकार में हुई और आपसी सांठगांठ किन नेताओं के संग रही, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। सवाल यह है कि आखिर ‘बालिका संरक्षण गृह’ बलात्कार के नरक कैसे बने? यहां सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सटीक लगती है, क्योंकि ये नरक सरकारों के साये में पलते और पनपते रहे हैं, लिहाजा सवाल किया जा सकता है कि क्या सरकारें ही रेप करवा रही हैं! बहरहाल बच्चियों से बलात्कार या अन्य दुष्कर्म की सजा फांसी होगी, यह बिल संसद में पारित होकर अब कानून बन चुका है। क्या मुजफ्फरपुर और देवरिया के ‘सफेदपोश बलात्कारियों’ को यथाशीघ्र उस कटघरे तक लाया जा सकेगा?
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