आजादी की लड़ाई में मीडिया की भूमिका

By: Aug 12th, 2018 12:05 am

स्वतंत्रता आंदोलन में मीडिया की प्रखर भूमिका रही है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जनता को तैयार किया जिससे आजादी का आंदोलन जन आंदोलन बन गया…

भारत की स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम 1857 में शुरू हुआ। इसे 1857 की क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। इसे सैनिक विद्रोह मानना भ्रांति है। वास्तविकता तो यह है कि इसी राष्ट्रीय क्रांति के संबल पर हमारी आजादी की लड़ाई अनवरत चलती रही। दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुर शाह, कानपुर में नाना साहब, बुंदेलखंड में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, ग्वालियर के तांत्या टोपे तथा बिहार में कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। अमर शहीद युवा क्रांतिकारी मंगल पांडेय की कामना को पूर्ण करने में पूरा भारत एकजुट हो गया। यद्यपि 1857 की क्रांति सफल नहीं हो पाई, फिर भी इसने भावी क्रांति के स्वरूप-निर्धारण में अच्छी भूमिका निभाई।

1857 की क्रांति और ‘पयामे आजादी’

स्वतंत्रता-आंदोलन के मूर्धन्य नेता अजीमुल्ला खां ने 8 फरवरी, 1857 को दिल्ली में ‘पयामे आजादी’ पत्र का प्रकाशन किया। यह एक ऐसा शोला था जिसने अपनी प्रखर एवं तेजस्वी वाणी से जनता में स्वतंत्रता का प्रदीप्त स्वर फूंका। अल्प समय तक निकलने वाले इस पत्र ने तत्कालीन वातावरण में ऐसी जलन पैदा कर दी जिससे ब्रिटिश सरकार घबरा उठी तथा उसने इस पत्र को बंद कराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस व्यक्ति के पास भी इस पत्र की कोई प्रति मिल जाती तो उसे अनेक यातनाएं दी जातीं। इसकी सारी प्रतियों को जब्त करने का विशेष अभियान तत्कालीन सरकार ने चलाया, फिर भी इस पत्र ने जन-जागृति के क्षेत्र में सराहनीय योगदान दिया। इसी पत्र ने प्रसिद्ध राष्ट्रगीत छापा जिसकी कुछ पंक्तियां माननीय हैं-

हम हैं इसके मालिक, हिंदुस्तान हमारा।

पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।

जन-जन को उद्वेलित करने वाले इस पत्र का संपादकीय लेख भी उल्लेख्य था। तभी तो ‘पयामे आजादी’ अगर हिंदू के पास मिलता तो बिना अदालत में लाए उसे जबरदस्ती गोमांस खिलाया जाता और गोली से उड़ा दिया जाता था। मुसलमान के पास बरामद होने पर सुअर का गोश्त उसके  मुंह में भरकर गोली से उड़ा दिया जाता था। अंग्रेज पत्र की एक चिंदी भी नहीं देखना चाहते थे। ऐसे  ही पत्र के संपादकीय लेख की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं : ‘भाइयो! दिल्ली में फिरंगियों के साथ आजादी की जंग हो रही है। खुदा की दुआ से हमने उन्हें पहली शिकस्त दी है। उससे वे इतना घबरा गए हैं जितना कि पहले ऐसी दस शिकस्तों से भी न घबराते। बेशुमार हिंदुस्तानी बहादुरी के साथ दिल्ली में आकर जमा हो रहे हैं। ऐसे मौके पर आपका आना लाजिमी है। आप अगर वहां खाना खा रहे हैं तो हाथ यहां आकर धोइए। हमारा बादशाह आपका इस्तकबाल करेगा। हमारे कान इस तरह आपकी ओर लगे हैं जिस तरह रोजेदारी के कान मुबाजिन के अजान की तरफ लगे रहते हैं। हम आपकी आवाज सुनने के लिए बेताब हैं। हमारी आंखें आपके दीदार की प्यासी हैं।’ ‘पयामे आजादी’ के प्रेरक वाक्यों से हिंदवासियों में उत्साह और उत्सर्ग का तराना लहराने लगा जिससे प्रेरित हो सभी ने स्वतंत्रता का स्वप्न देखना प्रारंभ कर दिया। प्रजाहितैषी, बुद्धिप्रकाश, मजहरुल, सरुर, ग्वालियर गजट, धर्मप्रकाश, भारतखंडामृत, ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका, वृत्तांत विलास आदि पत्रों ने उत्तर भारत में राष्ट्रीयता का बीज बो दिया। राष्ट्रीय जागरण, स्वदेश-प्रेम, मुद्रण कला का विकास तथा अंग्रेजी साहित्य के संपर्क से स्वतंत्रता-आंदोलन का अंकुरण हुआ। लॉर्ड मेयो (1869-72), लॉर्ड नार्थबुक  (1872-76), लार्ड लिटन (1876-80), लॉर्ड रिपन (1880-84), लॉर्ड डफरिन (1884-88) के कार्यकाल में भारतीय नेताओं द्वारा सुधार पर बल दिया गया। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का अंकुरण किया। भारतेंदु मंडल के वरेण्य पत्रकारों ने अपनी समर्पित सेवा-भावना के बल पर जन-चेतना को प्रस्फुटित किया। कविवचन सुधा (1867), अल्मोड़ा अखबार (1871), हिंदी दीप्ति प्रकाश (1872), बिहार बंधु (1872), सदादर्श (1874), हिंदी प्रदीप (1877), भारत मिश्र (1878), सारसुधानिधि (1879), उचितवक्ता (1880), ब्राह्मण (1883) इस काल के प्रमुख पत्र हैं।

भारतेंदु मंडल तथा स्वाधीनता-आंदोलन

भारतेंदु हरश्चिंद्र का नारा यही था-

चहहुं जो सांचहु निज कल्यान।

जपहुं निरंतर एक जबान।

हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान।

हिंदी के उन्नायक भारतेंदु बाबू पत्रकारिता के अप्रतिम संबल थे जिन्होंने सर्वत्र चेतना का स्वर फूंका। वे अपने में एक संस्था थे। उन्होंने दो दर्जन से अधिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन-प्रकाशन का कार्य प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किया। कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन, हरिश्चंद्र चंद्रिका, हिंदी प्रदीप, भारतमित्र, आनंद कादंबिनी और ब्राह्मण पत्रों के मूल में वे ही थे। उनकी मित्रमंडली हिंदी जगत में वरिष्ठ पत्रकार और निबंधकार के रूप में मान्य है। बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, प्रेमघन व अंबिकादत्त व्यास ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी निबंध को बहुमुखी आयाम दिया तथा चतुर्दिक जागरण का संदेश प्रसारित किया।

स्वदेशी आंदोलन और हिंदी पत्र

स्वाधीनता की लड़ाई में विदेशी वस्तुओं का त्याग और स्वदेशी वस्तुओं के प्रति राग की भावना प्रबल थी। भारतेंदु ने 23 मार्च, 1874 को कविवचन सुधा में जो लिखा, उस भावना को सुपुष्ट करने हेतु ‘हिंदी प्रदीप’ लिखता है कि ‘वही सुशिक्षा और सभ्यता का  दम भरने वाले हम हैं कि देशी चीजों के बर्ताव के लिए हजार सिर धुनते हैं और प्रत्यक्ष देख भी रहे हैं कि देश की बनी हुई वस्तुओं को काम में न लाने से दरिद्रता देश में डेरा किए है, पर विलायती चीजों  के चटकीलेपन और नफासत में ऐसे फंसे हैं कि हजार बार के लेक्चर का एक भी फल न हुआ।’ पं. बालकृष्ण भट्ट के पत्र ‘ हिंदी प्रदीप’ ने राष्ट्रीय आंदोलन को गति प्रदान की, फलतः आंग्ल शासकों का इसे कोपभाजन बनना पड़ा। ‘जरा सोचो तो यारो यह बम क्या है’-पं. माधव शुक्ल की इस कविता के प्रकाशन पर पत्र का अवसान हो गया। इस काल के बाद महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, एनी बेसेंट तथा कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने कई पत्र-पत्रिकाएं निकाले तथा लोगों को आजादी की लड़ाई के लिए तैयार किया। लोकमान्य तिलक के हिंदी केसरी की अपनी अलग भूमिका रही। हिंदोस्थान, सर्वहितैषी, हिंदी बंगवासी, साहित्य सुधानिधि, स्वराज्य, नृसिंह व प्रभा प्रभृति आदि पत्रों ने जागरण मंत्र के जरिए आंग्ल शासकों के दांत खट्टे कर दिए तथा अंत में भारत की आजादी संभव हुई।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App