शोषित महिलाओं की आवाज-मी टू

By: Oct 11th, 2018 12:08 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

सवाल यह है कि इस अवस्था में हमें क्या करना चाहिए? हमारे समाज की सोच क्या होनी चाहिए? क्या हम अपनी बेटियों को असुरक्षित छोड़ देना चाहते हैं? हम एक धार्मिक समाज हैं, नैतिकता की दुहाई देते हैं, लेकिन घरों में भी महिलाओं को उनके अपने रिश्तेदारों द्वारा शोषण का शिकार होना पड़ता रहा है। यह एक शोचनीय स्थिति है। कोई घर ऐसा नहीं है, जिसमें महिलाएं न हों। मां, पत्नी, बहन, बेटी के रूप में महिलाएं हर घर में मौजूद हैं, फिर भी हम महिलाओं के शोषण के प्रति उदासीन क्यों हैं…

भारतवर्ष इस समय एक तूफान से गुजर रहा है। मनोरंजन उद्योग और मीडिया उद्योग इस तूफान से थरथराए हुए हैं। अंग्रेजी के दो शब्दों ‘मी’ और ‘टू’ के जोड़ से बना शब्द ‘मी-टू’, यानी, ‘मैं भी’ वह तूफान है, जिसने विश्व भर की कई बड़ी हस्तियों को धराशायी कर दिया है। अपने देश में महिमा कुकरेजा-विकास बहल प्रकरण, तनुश्री दत्ता-नाना पाटेकर प्रकरण, विंटा नंदा-आलोक नाथ प्रकरण मनोरंजन उद्योग के हाई प्रोफाइल प्रकरण थे ही, मीडिया जगत के बड़े लोगों में प्रशांत झा, केआर श्रीनिवास ही नहीं, एमजे अकबर भी इस तूफान की चपेट में हैं। एमजे अकबर तो इस समय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में हैं और प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुने गए व्यक्ति हैं। वर्तमान में राजनीति से जुड़े लोगों में एमजे अकबर अकेले व्यक्ति हैं, जिन पर महिलाओं को परेशान करने का आरोप लगा है। कई साल पहले मीडिया जगत में इससे पहले तहलका से प्रसिद्धि पाए तरुण तेजपाल ऐसे ही झंझावत में फंसे थे।

पंजाब में ऐसा ही एक बहुचर्चित मामला सन् 1988 में हुआ, जब तत्कालीन पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल ने आईएएस अधिकारी रूपन द्योल बजाज के साथ एक पार्टी में बदतमीजी की। रूपन द्योल बजाज एक आईएएस अधिकारी थीं, साधन संपन्न थीं, उनके पति बीआर बजाज भी आईएएस थे तथा रूपन को अपने पति का पूरा समर्थन प्राप्त था। इसलिए उन्होंने इस बदतमीजी के खिलाफ न केवल आवाज उठाई, बल्कि उनके पति बीआर बजाज ने केपीएस गिल के खिलाफ अपनी धर्मपत्नी से बदसुलूकी की एफआईआर भी दर्ज करवाई और केपीएस गिल के खिलाफ इस दंपत्ति ने मुकद्दमा भी दायर किया। माननीय न्यायालय ने अंततः बजाज दंपत्ति की दलील को स्वीकार करते हुए केपीएस गिल को दोषी करार दिया। इसके बावजूद मुकद्दमे का फैसला आने से पहले बजाज दंपत्ति पर ‘मामले को तूल न देने’ का बहुत दबाव था।

यही नहीं, उनके संगी-साथियों और शुभचिंतकों में से बहुतेरे लोगों ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि गिल का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, उनकी जगहंसाई मुफ्त में होगी। यह अलग बात है कि बजाज दंपत्ति ने ऐसी किसी सलाह पर ध्यान नहीं दिया और गिल के विरुद्ध कार्रवाई जारी रखी और अंततः मुकद्दमा जीत कर नैतिक जीत भी हासिल की। हम सब जानते हैं कि भारतीय समाज में आमतौर पर ऐसा नहीं होता। महिलाओं को मन मारकर चुप रह जाना पड़ता था। कभी मामला यह होता था कि समाज क्या सोचेगा, बदनामी होगी। पुरुष वर्चस्व वाले समाज में स्त्री को भोग्या मान लिया गया है और पुरुषों का यह व्यवहार चुपचाप बर्दाश्त कर लिया जाता है। कई बार तो बदतमीजी का शिकार हुई लड़कियों को उनकी मांए ही चुप करा देती थीं। यहां तक कि वे अपने परिवार के पुरुषों को भी नहीं बता पाती थीं कि उन पर क्या गुजरी या क्या गुजर रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि गरीबी के अभिशाप को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। गरीबी भुगत चुका हर व्यक्ति जानता है कि गरीब होने की समस्याएं क्या-क्या हैं। विवशताएं, सीमाएं, आवश्यकताएं कई बार व्यक्ति को इतना झुका देती हैं कि रोजमर्रा की असुविधाएं सहने के अतिरिक्त व्यक्ति बात-बात पर अपमान सहने को भी विवश होता है। अपमान के घूंट गले उतारना आसान नहीं है, तो भी अकसर चुप रह जाना पड़ता है, क्योंकि और कोई चारा नहीं है। सिर्फ किसी की बेइज्जती हो जाना ही अपमान का बायस नहीं है। महिलाओं के साथ और भी विवशताएं हैं।

अधीनस्थ कर्मचारी के रूप में महिलाओं को कई बार पुरुष अधिकारियों अथवा सहकर्मियों के भद्दे इशारे, मजाक या अनचाहे ढंग से छुए जाने की घटनाओं से दो-चार होना पड़ता है। जिस नारी को हम मंदिर में जगह देते हैं, देवी मानकर पूजते हैं, उसी नारी को पुरुष वर्ग घरों, दफ्तरों, बाजारों में या सड़कों पर बदसुलूकी या हवस का शिकार बनाने से गुरेज नहीं करता। विदेशों में कु छ महिलाओं ने हिम्मत करके न केवल इस अपमान के विरुद्ध आवाज उठाई, बल्कि उसे एक सामाजिक आंदोलन में बदल डाला जिसे ‘मी-टू’ हैशटैग के साथ ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि सोशल मीडिया के मंचों पर प्रचार मिला और अंततः भारतीय महिलाओं ने भी इस अभियान में शामिल होने की हिम्मत दिखाई। किसी महिला के साथ दस-पंद्रह साल पहले भी अगर बदतमीजी हुई थी, तो वह अब आवाज उठा रही है, क्योंकि अब वह अकेली नहीं है और समाज उसकी आवाज सुनने को तैयार है, अन्य महिलाएं उसके साथ खड़ी हो रही हैं और पुरुष वर्ग इस अभियान को रोक सकने में असमर्थ है। जी हां, मैं दोहरा कर कहना चाहूंगा कि यह अभियान इतना सशक्त हो गया है कि पुरुष वर्ग इस अभियान को रोक पाने में असमर्थ है, इसलिए वह महिलाओं की इस ‘गुस्ताखी’ को चुप रहकर देख रहा है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि अभी भी इस अभियान को पुरुष वर्ग का व्यापक समर्थन नहीं मिला है, लोग इस अभियान के समर्थन में मोमबत्तियां लेकर सड़क पर नहीं उतरे हैं। राजनीतिक दलों के लिए यह एक ‘फैशनेबल मुद्दा’ है, जिससे लोगों का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। यही कारण है कि एक बड़े राजनीतिक दल के पुरुषों ने भी इस अभियान को अपना समर्थन प्रदान किया, पर यह एक राजनीतिक कदम था, इसे नैतिक कदम कहना शायद मुश्किल है। सवाल यह है कि इस अवस्था में हमें क्या करना चाहिए? हमारे समाज की सोच क्या होनी चाहिए? क्या हम अपनी बेटियों को असुरक्षित छोड़ देना चाहते हैं? हम एक धार्मिक समाज हैं, नैतिकता की दुहाई देते हैं, लेकिन घरों में भी महिलाओं को उनके अपने रिश्तेदारों द्वारा शोषण का शिकार होना पड़ता रहा है। यह एक शोचनीय स्थिति है। कोई घर ऐसा नहीं है, जिसमें महिलाएं न हों। मां, पत्नी, बहन, बेटी के रूप में महिलाएं हर घर में मौजूद हैं, फिर भी हम महिलाओं के शोषण के प्रति उदासीन क्यों हैं? लड़कों की बदतमीजियों को उनकी मांए ही क्यों बर्दाश्त कर लेती हैं? हम क्यों भूल जाते हैं कि अगर घर में सिर्फ बेटा ही हो तो भी उसका विवाह होगा और पुत्रवधु घर आएगी। क्या हम चाहते हैं कि हमें ऐसी पुत्रवधु मिले, जो किसी पुरुष की हवस का शिकार हो चुकी हो? यह एक बड़ा सवाल है। हमें इसका जवाब देना है, जवाबदेही हम पर है। और यदि यह सवाल आपको विचलित करता है, तो कृपा अपने बेटों को महिलाओं की इज्जत करना सिखाइए, वरना इस शोषण और अपमान का शिकार सिर्फ महिलाएं ही नहीं होंगी, उनके रिश्तेदार पुरुषों को भी शर्मिदंगी झेलनी पड़ेगी। यह एक अकेला रास्ता है, जो हमारे समाज को टूटने से बचा सकता है, वरना भगवान भी हमारी सहायता नहीं कर पाएंगे।

 ईमेलःindiatotal.features@gmail.


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